जो गृहस्थ साधु संत के आगमन से प्रसन्न न हो वो खाक गृहस्थ है!!!!
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस विष्णु भगत कहुँ देखि।।
श्रीराम जी भैया लक्ष्मण जी से कहते हैं कि- हे लखन! आकाश में छाए घने बादलों को देखकर मोर पक्षी कितना आनंदित हो रहे हैं।
वे बादलों को देखकर ऐसे आनंदित हो रहे हैं जैसे कोई वैरागी गृहस्थ (आसक्ति रहित गृहस्थ) अपने गृह हरि भक्त के आगमन से आनंदित होते हैं।
श्रीराम जी रूपी गृहस्थ ने ये बात कही तो जरा इनके आचरण का अपने अल्प बुद्धि से अवलोकन करने की कोशिश करते हैं।
जब वे सीता वियोग लीला कर रहे हैं और उन्हें दुखी समझ कर...मोर श्राप करि अंगिकारा। सहत राम नाना दुख भारा।। अर्थात् दुख में हैं और नारद मुनि पहुँच गए तो श्रीराम आचरण देखिए...
"करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई।।
स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे।।"
जो हो सके परिस्थिति और समयानुकूल स्वागत सत्कार करते हैं।
जब श्रीराम जी अयोध्या नरेश हुए तब सनकादिक मुनियों के आगमन पर...
देखि राम मुनि आवत "हरषि " दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।
संत का स्वागत आनंदित होकर, हर्षित होकर करते हैं और कहते हैं कि - हे मुनीश्वरों ! आपके दर्शन से मैं धन्य हो गया...
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।
गृहस्थ जीवन में-" गृह कारज नाना जंजाला"अर्थात् अनेक समस्याओं के कारण संत संगति हेतु समय नहीं मिल पाता लेकिन आप हरि प्रेमी संत स्वयं पधार कर हमें कृत कृत्य कर दिए। मेरा अहोभाग्य जो आप पधारे हैं।
जैसे बादल को देखकर मोर पक्षी अपने पंख फैला कर स्वागत करते हैं, प्रसन्नता व्यक्त करते हैं सद् गृहस्थ संत आगमन पर तन मन और धन से सहर्ष स्वागत करते हैं।
हे मुनीश्वर! कहिए मैं आपका क्या सेवा कर सकता हूँ...
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।...
केहि कारन आगमन तुम्हारा? कहहु सो करत न लावउँ बारा।।
संत को देखकर मन संकोच में पड़ गया!
ना जाने क्या मांगेगे?
इनके स्वागत सत्कार में मेरा काम धंधा चौपट हो जाएगा??
बिन बुलाए क्यों आते हैं ये???
धिक्कार है ऐसे गृहासक्त जीवन को
जो संत आगमन से आनंदित न हों तो!!!
जो संपत्ति संत सेवा में बाधक बन वह...जरउ सो संपत्ति सदन सुख ...।
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस विष्णु भगत कहुँ देखि।।
श्रीराम जी भैया लक्ष्मण जी से कहते हैं कि- हे लखन! आकाश में छाए घने बादलों को देखकर मोर पक्षी कितना आनंदित हो रहे हैं।
वे बादलों को देखकर ऐसे आनंदित हो रहे हैं जैसे कोई वैरागी गृहस्थ (आसक्ति रहित गृहस्थ) अपने गृह हरि भक्त के आगमन से आनंदित होते हैं।
श्रीराम जी रूपी गृहस्थ ने ये बात कही तो जरा इनके आचरण का अपने अल्प बुद्धि से अवलोकन करने की कोशिश करते हैं।
जब वे सीता वियोग लीला कर रहे हैं और उन्हें दुखी समझ कर...मोर श्राप करि अंगिकारा। सहत राम नाना दुख भारा।। अर्थात् दुख में हैं और नारद मुनि पहुँच गए तो श्रीराम आचरण देखिए...
"करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई।।
स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे।।"
जो हो सके परिस्थिति और समयानुकूल स्वागत सत्कार करते हैं।
जब श्रीराम जी अयोध्या नरेश हुए तब सनकादिक मुनियों के आगमन पर...
देखि राम मुनि आवत "हरषि " दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।
संत का स्वागत आनंदित होकर, हर्षित होकर करते हैं और कहते हैं कि - हे मुनीश्वरों ! आपके दर्शन से मैं धन्य हो गया...
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।
गृहस्थ जीवन में-" गृह कारज नाना जंजाला"अर्थात् अनेक समस्याओं के कारण संत संगति हेतु समय नहीं मिल पाता लेकिन आप हरि प्रेमी संत स्वयं पधार कर हमें कृत कृत्य कर दिए। मेरा अहोभाग्य जो आप पधारे हैं।
जैसे बादल को देखकर मोर पक्षी अपने पंख फैला कर स्वागत करते हैं, प्रसन्नता व्यक्त करते हैं सद् गृहस्थ संत आगमन पर तन मन और धन से सहर्ष स्वागत करते हैं।
हे मुनीश्वर! कहिए मैं आपका क्या सेवा कर सकता हूँ...
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।...
केहि कारन आगमन तुम्हारा? कहहु सो करत न लावउँ बारा।।
संत को देखकर मन संकोच में पड़ गया!
ना जाने क्या मांगेगे?
इनके स्वागत सत्कार में मेरा काम धंधा चौपट हो जाएगा??
बिन बुलाए क्यों आते हैं ये???
धिक्कार है ऐसे गृहासक्त जीवन को
जो संत आगमन से आनंदित न हों तो!!!
जो संपत्ति संत सेवा में बाधक बन वह...जरउ सो संपत्ति सदन सुख ...।
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