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गणेश गीता

गणेश गीता 


एवमेव पुरा पृष्टः शौनकेन महार्षिणा ।
स सूतःकथयामास गीतां व्यासमुखाच्छ्रुताम ।।१।।
अर्थात
ब्रह्मदेव व्यासांना म्हणतात गणेश पुराण ऐकल्यावरच तूला गणेश गीता श्रवणाचा अधिकार प्राप्त झाला .
म्हणून तू उत्सुकतेने प्रश्न केलास. अशाच प्रकारे पूर्वी शौनकादि महर्षि श्रेष्ठांनी गणेश पुराणाचे श्रवण केल्यावर सूतांना प्रश्न केला आणी
सूतांनी व्यासांच्या मुखातून ऐकलेली गणेश गीता त्यंना सांगितली
ब्रह्मदेव व्यास मुनीजी को कह रहे है गणेश पुराण श्रवण  पश्चात हि तुम्हे गणेश गीता के श्रवण का
अवसर प्राप्त हुआ । इसलिये तुमने ज्ञान प्राप्ती के हेतू  मे मुझे प्रश्न किया । ऐसेही इससे पहले शौनक आदि
महर्षीयोने गणेश पुराण सुनकर सुत को प्रश्न पूछा और सुत ने व्यास मुनीजी के मुख से सुनी गणेश गीता उन्हे बताई ।
गणेश  गीता
अध्याय १ श्लोक २
अष्टादशपुराणोक्तममृतं प्राशितं  मया ।
ततो sतिरसवत् पातुमिच्छाम्यमृतमुत्तमम् ।।  
अर्थात
सूत व्यासांना म्हणाले तुमच्या मुखातून मी अठरा पुराणे ऐकली तेथील ब्रह्मवर्णनरूप अमृतरस मी प्राशन केला म्हणजेच त्या त्या पुराणांतील ब्रह्मरूपाचा साक्षात्कार मिळविला . आता मी त्यापेक्षा श्रेष्ठ अभेदरूप ब्रह्मवर्णन असलेले केवळ रसरूप अमृत  प्राशन करू इच्छितो.
हिंदी गणेश  गीता
अध्याय १ श्लोक २
अष्टादशपुराणोक्तममृतं प्राशितं  मया ।
ततो sतिरसवत् पातुमिच्छाम्यमृतमुत्तमम् ।।  
अर्थात
सूत व्यासांना म्हणाले तुमच्या मुखातून मी अठरा पुराणे ऐकली तेथील ब्रह्मवर्णनरूप अमृतरस मी प्राशन केला म्हणजेच त्या त्या पुराणांतील ब्रह्मरूपाचा साक्षात्कार मिळविला . आता मी त्यापेक्षा श्रेष्ठ अभेदरूप ब्रह्मवर्णन असलेले केवळ रसरूप अमृत  प्राशन करू इच्छितो.
हिंदी
सूत व्यासजीको  कहते है - मैने तुम्हारे मुखसे अठारह पुराणे सुनी । उसमे जो ब्रह्मवर्णनरूप अमृतरस है वह मैने प्राशन किया । याने मुझे  हर एक पुराणमें जो ब्रह्मरूप है उसिका साक्षात्कार हुआ । अभी मै उससे श्रेष्ठ अभेदरूप ब्रह्म के बारेमे ज्ञान जिसमे है वह अमृत रूप पुराण  का श्रवण करना चाहता हुँ |

सूत व्यासजीको  कहते है - मैने तुम्हारे मुखसे अठारह पुराणे सुनी । उसमे जो ब्रह्मवर्णनरूप अमृतरस है वह मैने प्राशन किया । याने मुझे  हर एक पुराणमें जो ब्रह्मरूप है उसिका साक्षात्कार हुआ । अभी मै उससे श्रेष्ठ अभेदरूप ब्रह्म के बारेमे ज्ञान जिसमे है वह अमृत रूप पुराण  का श्रवण करना चाहता हुँ |
गणेश गीता अध्याय  १ श्लोक ३
येनामृतमयो भूत्वा s प्नुयां ब्रह्मामृतं यतः  ।
योगामृतं महाभाग तन्मे करुणया वद ।।३।।
अर्थात
मला असे योगज्ञान सांगावे जे सर्वश्रेष्ठ आहे  योगामृतरूपी ब्रह्मवर्णन ऐकून व त्याचा
आश्रय घेऊन याच शरीरामध्ये पूर्ण योगशांतीसिद्धि मी मिळवावी. आपण मजवर
करुणा करावी व ते योगामृत मला पाजावे.

हिंदी
मुझे ऐसे योगज्ञान बताए जो सबमे श्रेष्ट है । मै योग अमृत रूप ब्रह्म का ज्ञान
सुनना चाहता हुँ और उसका आचरण करके मेरे इसी शरीरमे पूर्ण योगशान्तिसिद्धि प्राप्त
करना चाहता हुँ । इसिलिए आप मेरे उपर करुणा किजिये और वह योगामृत मुझे
प्राशन करवाए ।
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक ४
अथ गीतां प्रवक्ष्यामि योगमार्गप्रकाशिनिम् |
नियुत्ता पृच्छते सुत राज्ञे गजमुखेन या ||४।।
अर्थात
व्यास म्हणतात , तू इच्छा केलेल्या योगाशास्त्रामृताचे प्राशन ज्या ब्रह्मणस्पतीच्या ज्ञानाच्या आश्रयाने घडणार आहे, तो पूर्णयोग व त्याच्या प्राप्तीचा मार्ग ज्या एकाच गीताशास्त्रामध्ये प्रकाशित झाला आहे, ते गणेशगीताशास्त्र मी तुला सांगणार आहे. वरेण्य राजाने विचारल्यामुळे श्रीगजानन प्रभुने ते गणेशगीताशास्त्र त्याला उपदेशिले होते.

हिंदी  
व्यासजी  कहते है , तुम्हारी इच्छासे मै तुम्हे ऐसा योगशास्त्र बताउँगा जिसका प्राशन तुम्हे  ब्रह्मणस्पती के ज्ञान का आश्रय लेके करना पड़ेगा ।
वह पूर्णयोग और उसके प्राप्तीका  मार्ग जिस एकही गीताशास्त्र में प्रकाशित हुआ है वह गणेशगीताशास्त्र मै तुम्हे बताने जा रहा हुँ । राजा वरेण्य ने इसे श्री गणेशजी को पूछा था तब श्री गणेशजीने खुद राजा वरेण्य को इस गणेशगीताशास्त्र का उपदेश किया था ।
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक ५
विघ्नेश्वर महाबाहो सर्व विद्याविशारद ।
सर्वशास्त्रार्थतत्वज्ञ योगं मे वक्तुमर्हसी ।।५।।
वरेण्य राजा श्री गणेशाला म्हणत आहे "ब्रह्मा विष्णू महेश शक्ती सूर्य या पाचही परमेश्वरांना
सत्ता देणारा व विघ्ने दूर करणाऱ्या विघ्नेश्वरा , भक्तांवर संकट येताच स्वानंद लोकांतून तू त्यांना
कृपा प्रसादाचा हात देऊन सुखी करतोस म्हणून तुला महाबाहू म्हणावे. सर्व विद्यांचा तू स्वामी
आहेस सर्व शास्त्र व तत्व यांचे मूळ तुझ्याच ठिकाणी आहे. म्हणून त्यांचा तू ज्ञाता आहेस. योग
म्हणजे काय हे सांगणारा तूच समर्थ आहेस व ते तुम्ही मला सांगावे
हिंदी
राजा वरेण्य श्री गणेशजी को कह रहे  है - तुम ब्रह्मा विष्णू महेश शक्ती सूर्य यह पाँचो परमेश्वरोंको सत्ता देनेवाले
हो और सबके विघ्नोका नाश करनेवाले हो । हे विघेश्वर जब तुम्हारे किसी भक्त पर संकट आता है तब तुम जहां
रहते हो उसी स्वानंद लोकसे तुम अपनी कृपाप्रसाद का हाथ बढाकर अपने भक्तके संकट का नाश करके उसे
सुखी बनाते हो इसीलिए तुम्हे महाबाहु कहते है । तुम सब  विद्याओंके स्वामी हो तुम सब शास्त्र और तत्व का मूल हो ।इसीलिए तुमही सब शास्त्र और तत्व के ज्ञाता हो । योगका सही अर्थ क्या है यह बतानेवाले तुमही हो और तुम्हे वह अर्थ बताने के  लिए मै  बिनती कर रहा हुँ।
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक ६
सम्यग् व्यवसिता राजन् मतिस्ते s नुग्रहान्मम ।
शृणु गीतां प्रवक्ष्यामि योगामृतमयीं नृप ।।६।।
अर्थात
श्री गजानन म्हणतात माझ्या भक्तिबलामुळेच माझे पूर्ण योगज्ञान ऐकण्यास
तू पात्र  झाला आहेस. सर्व शास्त्रे जेथून उत्पन्न झाली व ज्यांचे पूर्णार्थ  पर्यवसान
ज्या ठिकाणी ठरलेले आहे अशी योगामृतार्थ रुपी गीता व ते ज्ञान मी तुला सांगतो
ते तू ऐक
हिंदी
श्री गजानन कह रहे है - मेरे भाक्तीबलसेही तुम मेरे पूर्ण योगज्ञान सुननेके लिये पात्र
हो गये हो । जहासे सब   शास्त्र का उगम हो गया है और जहा सब शास्त्र का नाश होना
तय है ऐसी योगामृतार्थ रूप  गीता और वह ज्ञान मै  तुम्हे बताने जा रहा हुं वह तुम सुनो ।
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक ७
न योगं योगमित्याहुर्योगो योगो न च श्रियः ।
न योगो विषयैर्यॊगो न च मात्रादिभिस्तथा ।।७।।
अर्थात
ज्याला सामान्य लोक योग समजतात तो खरा योग नव्हे.
विपुल संपत्ती मिळाली किंवा तिचा त्याग केला तरी तो योग
नव्हे . ज्याची ज्याची इच्छा व्हावी व ते ते मिळावे हा हि योग नाही
अशी सिद्धी मिळवणे अथवा तिचा त्याग करणे हा हि योग नाही
हिंदी
जिसे सामान्य लोग योग समझते है वह सचमे योग नही है ।
किसीने बहोत संपत्ती पायी है वह भी योग नही है । किसीने
विपुल संपत्ती  पाकर उसका त्याग किया है वह भी योग नही है ।
 इच्छा सिद्धी प्राप्त होना यह योग नही है । और इच्छा सिद्धी
 पाकर उसे त्याग देना यह भी योग नही है ।  
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक ८
योगो यः पितृमात्रादेर्न स योगो नराधिप ।
यो योगो बन्धुपुत्रादेर्यश्र्चाष्टभूतिभिः सह ।।८।।
अर्थात
हे राजा, आपणास पुज्य असलेले गुरुजन म्हणजे आईबाप,  वडील बंधू ब्राह्मण गाई देव इत्यादींचा कृपानुग्रह स्वतःवर होणे हाही योग नव्हे किंवा त्यापासुन विरक्त होणे हाही योग नव्हे.अष्टमहासिद्धि मिळाल्या किंवा मिळूनही त्यांचा त्याग केला तरी तो योग नव्हे.  
अर्थात
हे राजा, आपणास पुज्य असलेले गुरुजन म्हणजे आईबाप,  वडील बंधू ब्राह्मण गाई देव इत्यादींचा कृपानुग्रह स्वतःवर होणे हाही योग नव्हे किंवा त्यापासुन विरक्त होणे हाही योग नव्हे.अष्टमहासिद्धि मिळाल्या किंवा मिळूनही त्यांचा त्याग केला तरी तो योग नव्हे.  
हिंदी
श्री गणेशजी वरेण्य राजा से  कह रहे है - हे राजा तुम्हे जो प्रिय है वह  गुरुजन अर्थात  माँ बाप ब्राह्मन गईया  देवता इनकी कृपा का  तुमपर अनुग्रह होना यह योग नहीं है। और इन सबसे विरक्त्त होना इन्हे त्याग देना यह भी योग नहीं है । अष्टमहासिद्धि प्राप्त करना यह योग नहीं है और अष्टमहासिद्धि मिलनेके बाद उन्हें त्याग देना यह भी योग नहीं है ।      
   
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक ९  
न स योगः स्त्रिया योगो  जगदद्भूतरूपया ।
राज्ययोगश्र्च नो योगो  न योगो गजवाजिभिः ।।९।।  
अर्थात
अतिशय रूपवती स्त्री भार्या मिळाली तरी तो योग नव्हे किंवा अशा भार्येचा
त्याग करणे हा पण योग नव्हे तसेच राज्य मिळाले अथवा हत्ती घोडे पशू मिळणे अथवा
मिळाल्यावर त्यांचा त्याग करणे हा पण योग नव्हे
हिंदी
बहोतही सुंदर पत्नी प्राप्त होना यह योग नहीं है । और ऐसी सुन्दर पत्नीका त्याग करना यह भी योग नहीं है ।
सम्पूर्ण राज्य कि प्राप्ति होना और  बहोत सारे हाथी घोड़े पशु प्राप्त होना या उन्हें प्राप्त करने के बाद उन्हें
 त्याग देना यह भी योग नहीं है ।
गणेश गीता अध्याय १ श्लोक १०
योगेनेंद्र-पद्स्यापि योगो योगर्थिनः प्रियः ।
योगो यः सत्यलोकस्य न स योगो मतो मम ।।१०।।
अर्थात
इंद्रपदाची प्राप्ती झाली किंवा इंद्रपदाविषयी विरक्ती निर्माण झाली तरी तो योग नव्हे. इतर सर्व योगापासून जो आपल्या मनाला आवरुन धरतो तोच पूर्ण योगाविषयी प्रीती  त्याच्या प्राप्तीची खटपट करतो ब्रह्मांडाची पूर्णता ज्या सत्यलोकात आहे, त्याच्या पदाची प्राप्ती किंवा त्याचा त्याग म्हणजेही योग नव्हे.
हिंदी
इन्द्रपद कि प्राप्ती होना अगर इन्द्रपद प्राप्त होकर उसके बारेमे विरक्ती उत्पन्न होना यह योग नहीं है  । बाकी ऐसे सब योगोंसे जो अपने मन को मुक्त्त रखता है उसीको सच्चे योगके प्रति प्यार उत्पन्न होता है और वही उसे पानेकी कोशिश करता है । ब्रह्माण्ड कि पूर्णता जिस सत्यलोकमे है उसके पद कि प्राप्ती होना यह योग नहीं है । और उसे प्राप्त करनेके बाद उसे त्याग देना यह भी योग नहीं है ।

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