सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मीरा चरित

मीरा चरित

 द्वारिका में ,मीरा, एक ऐसे दुखी व्यक्ति जो पुत्र की मृत्यु के पश्चात हताश हो सन्यास लेना चाहता था ,उसका मार्ग दर्शन कर रही है । मीरा ने उसे समझाया कि इस तरह की परिस्थितियों से आये क्षणिक वैराग्य को आप भक्ति का नाम नहीं दे सकते ।
मीरा ने उसे सहज़ता से बताते हुये कहा ," अगर तुम भक्ति पथ पर शुभारम्भ करना ही चाहते हो तो शुष्क वैराग्य और सन्यास से नहीं ब्लकि भजन से करो। भजन का नियम लो , और इस नियम को किसी प्रकार टूटने न दो ।अपने शरीर रूपी घर का मालिक भगवान को बनाकर स्वयं उसके सेवक बन जाओ। कुछ भी करने से पूर्व भीतर बैठे स्वामी से उसकी आज्ञा लो ।जिस कार्य का अनुमोदन भगवान से मिले , वही करो ।इस प्रकार तुम्हारा वह कार्य ही नहीं , ब्लकि समस्त जीवन ही पूजा हो जायेगा ।नियम पूर्ण हो जाये तो भी रसना ( जीभ ) को विश्राम मत दो ।खाने , सोने और आवश्यक बातचीत को छोड़कर , ज़ुबान को बराबर प्रभु के नाम उच्चारण में व्यस्त रखो ।"
" वर्ष भर में महीने दो महीने का समय निकाल कर सत्संग के लिए निकल पड़ो और अपनी रूचि के अनुकूल स्थानों में जाकर महज्जनों की वार्ता श्रवण करो। सुनने का धैर्य आयेगा तो उनकी बातें भी असर करेंगी। उनमें तुम्हें धीरे -धीरे रस आने लगेगा। जब रस आने लगेगा , तो जिसका तुम नाम लेते हो ,वह आकर तुम्हारे भीतर बैठ जायेगा ।ज्यों -ज्यों रस की बाढ़ आयेगी ,ह्रदय पिघल करके आँखों के पथ से निर्झरित होगा ,और वह नामी ह्रदय -सिंहासन से उतर कर आँखों के समक्ष नृत्य करने लगेगा। इसलिए ......
राम नाम रस पीजे मनुवा ,
राम नाम रस पीजे।
तज कुसंग सत्संग बैठ नित,
हरि चर्चा सुन लीजे ॥
काम क्रोध मद लोभ मोह कूँ ,
चित्त से दूर करी जे ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
ताहि के रंग में भीजे ॥
 " आज्ञा हो तो एक बात निवेदन करना चाहता हूँ !" एक सत्संगी ने पूछा ।और मीरा से संकेत पा वह पुनः बोला ," जब घर में रहकर भजन करना उचित है अथवा हो सकता है तो फिर आप श्रीचरण ( मीरा ) रानी जैसे महत्वपूर्ण पद और अन्य समस्त सुविधाओं को त्याग कर ये भगवा वेश , यह मुण्डित मस्तक ..........?"
"देखिए ,जिसके लिए कोई बन्धन नहीं है, जिसके लिए घर बाहर एक जैसे है , ऐसे हमारे लिए क्या नियम ?"
म्हाँरा पिया म्हाँरे हिवड़े रहत है ,
कठी न आती जाती।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर ,
मग जोवाँ दिन राती ॥
"सार की बात तो यह है कि बिना सच्चे वैराग्य के घर का त्याग न करें ।"
" धन्य ,धन्य हो मातः !" सब लोग बोल उठे ।
" क्षमा करें मातः! आप ने फरमाया कि भजन अर्थात जप करो ।भजन का अर्थ सम्भवतः जप है । पर जप में मन लगता नहीं माँ !" उसने दुखी स्वर में कहा ," हाथ तो माला की मणियाँ सरकाता है , जीभ भी नाम लेती रहती है , किन्तु मन मानों धरा -गगन के समस्त कार्यों का ठेका लेकर उड़ता फिरता है ।ऐसे में माँ , भजन से , जप से क्या लाभ होगा ? ब्लकि स्वयं पर जी खिन्न हो जाता है। "
 मीरा ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुये कहा ," भजन का अर्थ है कैसे भी ,जैसे हो, मन -वचन -काया से भगवत्सम्बन्धी कार्य हो। हमें भजन का ध्यान ऐसे ही बना रहे , जैसे घर का कार्य करते हुये , माँ का ध्यान पालने में सोये हुये बालक की ओर रहता है याँ फिर सबकी सेवा करते हुये भी पत्नी के मन में पति का ध्यान रहता है। पत्नी कभी मुख से पति का नाम नहीं लेती , किन्तु वह नाम उसके प्राणों से ऐसा जुड़ा रहता है कि वह स्वयं चाहे तो भी उसे हटा नहीं पाती। मन सूक्ष्म देह है ।जो भी कर्म बारम्बार किए जाते है , उसका संस्कार दृढ़ होकर मन में अंकित होता जाता है। बिना मन और बुद्धि के कोई कार्य बार बार करने से मन और बुद्धि उसमें धीरेधीरे प्रवृत्त हो जाते है ।जैसे खारा याँ कड़वा भोजन पहले अरूचिकर लगता है , पर नित्य उसका सेवन करने पर वैसी ही रूचि बन जाती है। "
" जप किया ही इसलिए जाता है कि मन लगे ,मन एकाग्र हो ।पहले मन लगे और फिर जप हो , यह साधारण जन के लिये कठिन है । यह तो ऐसा ही है कि जैसे पहले तैरना सीख लें और फिर पानी में उतरें । जो मन्त्र आप जपेंगें , वही आपके लिए , जो भी आवश्यक है, वह सब कार्य करता जायेगा । मन न लगने पर जो खिन्नता आपको होती है , वही खिन्नता आपके भजन की भूमिका बनेगी। बस आप जप आरम्भ तो कीजिए। आरम्भ आपके हाथ में है , वही कीजिए और उसे ईमानदारी से निभाईये। आपका दृढ़ संकल्प , आपकी ,निष्ठा , सत्यता को देख भजन स्वयं अपने द्वार आपके लिए खोल देगा ।"

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिशाच भाष्य

पिशाच भाष्य  पिशाच के द्वारा लिखे गए भाष्य को पिशाच भाष्य कहते है , अब यह पिशाच है कौन ? तो यह पिशाच है हनुमानजी तो हनुमानजी कैसे हो गये पिशाच ? जबकि भुत पिशाच निकट नहीं आवे ...तो भीमसेन को जो वरदान दिया था हनुमानजी ने महाभारत के अनुसार और भगवान् राम ही कृष्ण बनकर आए थे तो अर्जुन के ध्वज पर हनुमानजी का चित्र था वहाँ से किलकारी भी मारते थे हनुमानजी कपि ध्वज कहा गया है या नहीं और भगवान् वहां सारथि का काम कर रहे थे तब गीता भगवान् ने सुना दी तो हनुमानजी ने कहा महाराज आपकी कृपा से मैंने भी गीता सुन ली भगवान् ने कहा कहाँ पर बैठकर सुनी तो कहा ऊपर ध्वज पर बैठकर तो वक्ता नीचे श्रोता ऊपर कहा - जा पिशाच हो जा हनुमानजी ने कहा लोग तो मेरा नाम लेकर भुत पिशाच को भगाते है आपने मुझे ही पिशाच होने का शाप दे दिया भगवान् ने कहा - तूने भूल की ऊपर बैठकर गीता सुनी अब इस पर जब तू भाष्य लिखेगा तो पिशाच योनी से मुक्त हो जाएगा तो हमलोगों की परंपरा में जो आठ टिकाए है संस्कृत में उनमे एक पिशाच भाष्य भी है !

शिव नाम महिमा

भगवान् श्रीकृष्ण कहते है ‘महादेव महादेव’ कहनेवाले के पीछे पीछे मै नामश्रवण के लोभ से अत्यन्त डरता हुआ जाता हूं। जो शिव शब्द का उच्चारण करके प्राणों का त्याग करता है, वह कोटि जन्मों के पापों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करता है । शिव शब्द कल्याणवाची है और ‘कल्याण’ शब्द मुक्तिवाचक है, वह मुक्ति भगवन् शंकर से ही प्राप्त होती है, इसलिए वे शिव कहलाते है । धन तथा बान्धवो के नाश हो जानेके कारण शोकसागर मे मग्न हुआ मनुष्य ‘शिव’ शब्द का उच्चारण करके सब प्रकार के कल्याणको प्राप्त करता है । शि का अर्थ है पापोंका नाश करनेवाला और व कहते है मुक्ति देनेवाला। भगवान् शंकर मे ये दोनों गुण है इसीलिये वे शिव कहलाते है । शिव यह मङ्गलमय नाम जिसकी वाणी मे रहता है, उसके करोड़ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते है । शि का अर्थ है मङ्गल और व कहते है दाता को, इसलिये जो मङ्गलदाता है वही शिव है । भगवान् शिव विश्वभर के मनुष्योंका सदा ‘शं’ कल्याण करते है और ‘कल्याण’ मोक्ष को कहते है । इसीसे वे शंकर कहलाते है । ब्रह्मादि देवता तथा वेद का उपदेश करनेवाले जो कोई भी संसार मे महान कहलाते हैं उन सब के देव अर्थात् उपास्य होने...

श्रीशिव महिम्न: स्तोत्रम्

              __श्रीशिव महिम्न: स्तोत्रम्__ शिव महिम्न: स्तोत्रम शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है| ४३ क्षन्दो के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है| स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव को प्रसन्न कर के उनसे क्षमा प्राप्ति की गई थी | कथा कुछ इस प्रकार के है … एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था| वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर बागा का निर्माण करवाया| जिसमे विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे| प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे | फिर एक दिन … पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया| अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए | पर ये तो आरम्भ मात्र था … बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे| पुष्पदंत अपने दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहा | और फिर … राजा च...