एकादशी में चावल वजिर्त क्यों?
वर्ष की चौबीसों एकादशियों में चावल न
खाने की सलाह दी जाती है।
ऐसा माना गया है कि इस दिन चावल खाने से
प्राणी रेंगने वाले जीव की योनि में जन्म
पाता है,किन्तु द्वादशी को चावल खाने से इस
योनि से मुक्ति भी मिल जाती है।
एकादशी के विषय में शास्त्र कहते हैं,
‘न विवेकसमो बन्धुर्नैकादश्या: परं व्रतं’
यानी विवेक के सामान कोई बंधु नहीं है और
एकादशी से बढ़ कर कोई व्रत नहीं है।
पांच ज्ञान इन्द्रियां, पांच कर्म
इन्द्रियां और एक मन, इन
ग्यारहोंको जो साध ले, वह
प्राणी एकादशी के समान पवित्र और दिव्य
हो जाता है।
एकादशी जगतगुरु विष्णुस्वरुप है, जहां चावल
का संबंध जल से है, वहीं जल का संबंध चंद्रमा से
है।
पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म
इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है।
मन ही जीवात्मा का चित्त स्थिर- अस्थिर
करता है।
मन और श्वेत रंग के स्वामी भी चंद्रमा ही हैं,
जो स्वयं जल, रस और भावना के कारक हैं,
इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक
भावना प्रधान होते हैं,
जो अक्सर धोखा खाते हैं।
एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र
जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में
उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी।
महाभारत काल में वेदों का विस्तार करने
वाले भगवान व्यास ने पांडव पुत्र भीम
को इसीलिए निर्जला एकादशी (वगैर जल
पिए हुए) करने का सुझाव दिया था।
आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार वर्ष
तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण
भक्ति प्राप्त की थी।
वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है।
चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं,
इसीलिए व्रती इस दिन चावल खाने से परहेज
करते हैं।
एक और पौराणिक कथा है कि माता शक्ति के
क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने
अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और
उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई।
वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं।
ऐसा माना गया है कि यह
घटना एकादशी को घटी थी।
यह जौ और चावल
महर्षि की ही मेधा शक्ति है, जो जीव हैं।
इसीलिए इस दिन से जौ और चावल
को जीवधारी माना गया है।
आज भी जौ और चावल को उत्पन्न होने के लिए
मिट्टी की भी जरूत नहीं पड़ती।
केवल जल का छींटा मारने से ही ये अंकुरित
हो जाते हैं।
इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन
के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है,
ताकि सात्विक रूप से विष्णुस्वरुप
एकादशी का व्रत संपन्न हो सके। —
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