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गणेशजी की भाद्रपद शुध्द चतुर्थी की कथा

गणेशजी की भाद्रपद शुध्द चतुर्थी की कथा 

सिंधु दैत्य सब देवोंको अजिंक्य हो गया था । कोई भी देवता उसे युद्ध में हरा नही सका तो उसी समय जब सब देव चिंतित थे तब देवगुरु बृहस्पती प्रकट हुए और उन्होने सब देवोंको प्रभु विनायक के भक्ती का उपाय बताया । तब सब देवोने मिलकर गणेशजी की सुंदर मूर्ती बनाई और उसकी स्थापना की । सब देव उसकी पूजा अर्चना करने लगे तब उनके सामने दशभुज गणेश दिव्य तेज धारण करते हुए प्रकट हुए । जब सब देव उनकी स्तुती करने लगे तब गणेशजी ने उनको आश्वासन दिया कि मै गिरीजा के यहा मयुरेश्वर नामका अवतार धारण करुगा और सिंधू दैत्य का नाश करुंगा । तब सब देवगण के साथ शंकर त्रिसंध्या क्षेत्र मे आये वहा गौतम मुनीने उनका स्वागत किया | और वे सब उन्हीके आश्रम मे रहने लगे । वहा जाब शंकर तप करने लगे तो गौरीने उन्हे पुछा आप किसका ध्यान कर रहे हो तो शंकर ने उसे बताया मै इस श्रुष्टी का कर्ता धर्ता श्री गणेश जी का ध्यान कर रहा हु । तब गौरीने इच्छा प्रकट कि की मुझे भी उनका साक्षात्कार होना चाहिए ऐसा लग रहा है तभी शंकरजी ने उसे श्री गणेशजी का एकाक्षरी मंत्र बताया और गौरी वह मंत्र लेकर तप करनेके लिए लेखनाद्रि अभी उस परबत को लेण्याद्रि कहते है परबत पर चली गई । गिरीजाने वहा बारह बरस तप किया । तब भगवान गणेश जिन्हे गुणेश भी कहते है वह प्रकट हुए । उन्हेनो गिरीजा को वर मांगने के लिए कहा गिरीजा ने श्री गणेश को तुम मेरे यहा पुत्र के रूप मे पधारो तो मै आपका लालन पालन आदि सुखद उत्सव स्वरूप उपचार कर सकू । तब श्री गणेशजी ने गिरीजा को कहा " तथास्तू मै तुम्हारे यहा पुत्ररुपमे पधारुंगा और सिंधू दैत्य का नाश करुंगा । भाद्रपद शुध्द चतुर्थी को पार्वतीने गणेशजी कि मूर्त बनाई और उसकी पूजा कि । तब उसमेसे श्री गणेश प्रकट हुए उनकी बहोत बडी प्रभा को देखकर गिरीजा मुर्च्छित हो गई । तब गीरीजाने उसे सौम्य बनने के लिए कहा । उसके बिनती को मानकर वह सौम्य हो गया । उसने गिरीजा को कहा " तुम्हारे अनुष्ठान से मै प्रसन्न हो गया हु । उसने गिरीजा को कहा " तुम्हारे अनुष्ठान से मै प्रसन्न हो गया हु । मै हि परम पुरुष गणेश हु | मै तुम दोनो कि सेवा के लिए, सिंधू दैत्य का नाश करने के लिए, देवोको पुनह पद्प्राप्ती देने के लिए आया हु यह सब करने के बाद मै स्वगृह स्वानंद लोक मे वापस जाऊंगा “|यह कह्के वह गौरी के बिनती के अनुसार बालक बन गया । छ हाथ त्रिनेत्र सुंदर ऐसे वह बालक के उपर सब देवगण ने पुष्प्वृष्टी की । दुंदुभी बजने लगी । एक बार एक बडे श्वापद के रूप मे वन मे रहने वाले दैत्य को मारने के लिए गणेश वन मे चला गया ।
उसने दैत्य को मारने के लिए अपना पाश फेका । वो पाश से दैत्य तो मर गया लेकिन वहा विनता अपने अंडे को सम्भल रही थी । विनताने अपनी रक्षा के लिए उसके उपर हमला किया तब गणेश वहा एक बडे वृक्ष के ढोली में छुप गया । उस वृक्ष के ढोली में एक अंडा था । गणेश ने वह अंडा हाथ में लेते हि वह टूट गया और उसमेसे एक पंछी निकल गया गणेश उस पंछी के उपर सवार हो गया । तब विनता वहा आ गई और उसने गणेश को कहा " मै विनता कश्यप मुनी कि भार्या, और यह मेरा पुत्र शिखंडी है यह अब तुम्हारा सेवक है । जिसने अंडा तोडा उसका यह सेवक । तब गणेश ने उसे उस पंछी को मयुर को .वर मांगने के लिए कहा । ऐसा कहतेहि उस पंछी ने वर मांगा कि तुम मेरे नामसे मयुर नामसे जाने जाओ गणेशजी ने तथास्तु कहा और तबसे गणेश गुणेश " मयुरेश " नामसे प्रख्यात हो गया ।
मयुरेशने घनघोर युद्ध करके सिंधू दैत्य को मारा और तब सब देव प्रसन्न हो गए उन्हे लेकर मायुरेश मयुरपुरी में आ गया । वहा सब देवोंको शास्त्र से कैसे गणेश जी कि पूजा अर्चन करना चाहिए इसका ज्ञान मिला । और सब देवोने उसकी पूजा और अर्चना विधी विधान से कि और उन्हे उसका तुरंत फल भी मिल गया । उसके बाद गणेशजी ने सबसे कहा अब मै स्वगृह में वापस जा रहा हुं । उसने पार्वती को कहा मै फिर सिंदुरासूर को मारने के लिए तेरे यहा वापस पुत्ररुपमे आऊंगा ।

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