एक बार श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी अपने सेवित विग्रह श्रीगोवर्धनधारी गोपाल के लिए चन्दन लेने पूर्व देश की ओर गए। चलते-चलते आप ओड़िसा के रेमुणा नामक स्थान पर पहुंचे। वहां पर श्रीगोपीनाथ जी के दर्शन कर आप बहुत प्रसन्न हुए।
कुछ ही समय में ''अमृतकेलि'' नामक खीर का भोग श्रीगोपीनाथ जी को निवेदन किया गया। तब आप के मन में विचार आया कि बिना मांगे ही इस खीर का प्रसाद मिल जाता तो मैं उसका आस्वादन करके, ठीक उसी प्रकार का भोग अपने गोपाल जी को लगाता किन्तु साथ-साथ ही आपने अपने आपको धिक्कार दिया कि मेरी खीर खाने की इच्छा हुई।
ठाकुर जी की आरती दर्शन करके और उन्हें प्रणाम करके आप मंदिर से चले गये व एक निर्जन स्थान पर बैठ कर हरिनाम करने लगे इधर मंदिर का पुजारी ठाकुर गोपीनाथ जी की सेवा कार्य समाप्त कर सो गया।
उसे स्वप्न में ठाकुर जी ने दर्शन दिये व कहा, ''पुजारी उठो ! मंदिर के दरवाज़े खोलो। मैंने एक संन्यासी के लिये खीर रखी हुई है जो कि मेरे आंचल के कपड़े से ढकी हुई है। मेरी माया के कारण तुम उसे नहीं जान पाये। माधवेन्द्र पुरी नाम के संन्यासी कुछ ही दूर एक निर्जन स्थान पर बैठा है, शीघ्रता से ये खीर ले जाकर उसको दे दो।''
पुजारी आश्चर्य से उठा, स्नान कर मन्दिर का दरवाज़ा खोला और देखा कि ठाकुर जी के आंचल के वस्त्र के नीचे एक खीर से भरा बर्तन रखा है। उसके खीर से भरा बर्तन उठाया व श्रीमाधवेन्द्र पुरी जी को खोजने लगा।
कुछ दूर जाकर श्रीमाधवेन्द्र पुरी जी से उसका मिलन हो गया। पुजारी जी ने अपने स्वप्न में हुए आदेश की बात श्रील माधवेन्द्र जी को बताई। श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद जी सारी बात सुन कर प्रेमाविष्ट हो गये। बड़े ही सम्मान के साथ आपने खीर से भरा बर्तन लिया व भगवान के आदेश के अनुसार प्रसाद पाया।
अपने भक्त के लिये खीर चुराने वाले श्री गोपीनाथ भगवान की जय!
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