रविवार, 27 अगस्त 2017

राधाजन्माष्टमी

श्रीकृष्ण भक्ति के अवतार देवर्षि नारद ने एक बार भगवान सदाशिव के श्री चरणों में प्रणाम करके पूछा ‘‘हे महाभाग ! मैं आपका दास हूं। बतलाइए, श्री राधादेवी लक्ष्मी हैं या देवपत्नी। महालक्ष्मी हैं या सरस्वती हैं? क्या वे अंतरंग विद्या हैं या वैष्णवी प्रकृति हैं? कहिए, वे वेदकन्या हैं, देवकन्या हैं अथवा मुनिकन्या हैं?’’श् सदाशिव बोले - ‘‘हे मुनिवर ! अन्य किसी लक्ष्मी की बात क्या कहें, कोटि-कोटि महालक्ष्मी उनके चरण कमल की शोभा के सामने तुच्छ कही जाती हैं। हे नारद जी ! एक मुंह से मैं अधिक क्या कहूं? मैं तो श्री राधा के रूप, लावण्य और गुण आदि का वर्णन करने मे अपने को असमर्थ पाता हूं। उनके रूप आदि की महिमा कहने में भी लज्जित हो रहा हूं। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा समर्थ नहीं है जो उनके रूपादि का वर्णन करके पार पा सके। उनकी रूपमाधुरी जगत को मोहने वाले श्रीकृष्ण को भी मोहित करने वाली है। यदि अनंत मुख से चाहूं तो भी उनका वर्णन करने की मुझमें क्षमता नहीं है।’’

नारदजी बोले - ‘‘हे प्रभो श्री राधिकाजी के जन्म का माहात्म्य सब प्रकार से श्रेष्ठ है। हे भक्तवत्सल ! उसको मैं सुनना चाहता हूं।’’ हे महाभाग ! सब व्रतों में श्रेष्ठ व्रत श्री राधाष्टमी के विषय में मुझको सुनाइए। श्री राधाजी का ध्यान कैसे किया जाता है? उनकी पूजा अथवा स्तुति किस प्रकार होती है? यह सब सुझसे कहिए। हे सदाशिव! उनकी चर्या, पूजा विधान तथा अर्चन विशेष सब कुछ मैं सुनना चाहता हूं। आप बतलाने की कृपा करें।’’

शिवजी बोले - ‘‘वृषभानुपुरी के राजा वृषभानु महान उदार थे। वे महान कुल में उत्पन्न हुए तथा सब शास्त्रों के ज्ञाता थे। अणिमा-महिमा आदि आठों प्रकार की सिद्धियों से युक्त, श्रीमान्, धनी और उदारचेत्ता थे। वे संयमी, कुलीन, सद्विचार से युक्त तथा श्री कृष्ण के आराधक थे। उनकी भार्या श्रीमती श्रीकीर्तिदा थीं। वे रूप-यौवन से संपन्न थीं और महान राजकुल में उत्पन्न हुई थीं। महालक्ष्मी के समान भव्य रूप वाली और परम सुंदरी थीं। वे सर्वविद्याओं और गुणों से युक्त, कृष्णस्वरूपा तथा महापतिव्रता थीं। उनके ही गर्भ में शुभदा भाद्रपद की शुक्लाष्टमी को मध्याह्न काल में श्रीवृन्दावनेश्वरी श्री राधिकाजी प्रकट हुईं। हे महाभाग ! अब मुझसे श्री राधाजन्म- महोत्सव में जो भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर्तव्य हैं, उन्हें सुनिए।

सदा श्रीराधाजन्माष्टमी के दिन व्रत रखकर उनकी पूजा करनी चाहिए। श्री राधाकृष्ण के मंदिर में ध्वजा, पुष्पमाल्य, वस्त्र, पताका, तोरणादि नाना प्रकार के मंगल द्रव्यों से यथाविधि पूजा करनी चाहिए। स्तुतिपूर्वक सुवासित गंध, पुष्प, धूपादि से सुगंधित करके उस मंदिर के बीच में पांच रंग के चूर्ण से मंडप बनाकर उसके भीतर षोडश दल के आकार का कमलयंत्र बनाएं। उस कमल के मध्य में दिव्यासन पर श्री राधाकृष्ण की युगलमूर्ति पश्चिमाभिमुख स्थापित करके ध्यान, पाद्य-अघ्र्यादि से क्रमपूर्वक भलीभांति उपासना करके भक्तों के साथ अपनी शक्ति के अनुसार पूजा की सामग्री लेकर भक्तिपूर्वक सदा संयतचित्त होकर उनकी पूजा करें।

श्रीराधा-माधव-युगल का ध्यान संपादित करें
हेमेन्दीवरकान्तिमंजुलतरं श्रीमज्जगन्मोहनं नित्याभिर्ललितादिभिः परिवृतं सन्नीलपीताम्बरम्।नानाभूषणभूषणांगमधुरं कैशोररूपं युगंगान्धर्वाजनमव्ययं सुललितं नित्यं शरण्यं भजे।। जिनकी स्वर्ण और नील कमल के समान अति सुंदर कांति है, जो जगत को मोहित करने वाली श्री से संपन्न हैं, नित्य ललिता आदि सखियों से परिवृत्त हैं, सुंदर नील और पीत वस्त्र धारण किए हुए हैं तथा जिनके नाना प्रकार के आभूषणों से आभूषित अंगों की कांति अति मधुर है, उन अव्यय, सुललित, युगलकिशोररूप श्री राधाकृष्ण के हम नित्य शरणापन्न हैं।’ इस प्रकार युगलमूर्ति का ध्यान करके शालग्राम में अथवा मूर्ति में पुनः सम्यक् रूप से अर्चना करें।

भगवान को निवेदन किए गए गंध, पुष्प-माल्य तथा चंदन आदि से समागत कृष्ण भक्तों की आराधना करें। श्री राधाजी की भक्ति में दत्तचित्त होकर उनके लिए प्रस्तुत नैवेद्य, गंध, पुष्प-माल्य तथा चंदन आदि के द्वारा दिन में महोत्सव करें। पूजा करके दिन के अंत में भक्तों के साथ आनंदपूर्वक चरणोदक लेकर महाप्रसाद ग्रहण करें। फिर श्री राधाकृष्ण का स्मरण करते हुए रात में जागरण करें। चांदी और सोने की सुसंस्कृत मूर्ति रखकर उसकी पूजा करें। दूसरी कोई वार्ता न करते हुए नारी तथा बंधु-बांधवों के साथ पुराणादि से प्रयत्नपूर्वक इष्टदेवता श्री राधाकृष्ण के कथा-कीर्तन का श्रवण करें।

जो मनुष्य भक्तिपूर्वक श्री राधाजन्माष्टमी का यह शुभानुष्ठान करता है, उसके विषय में सब देवतागण कहते हैं कि ‘यही मनुष्य भूतल में राधाभक्त है।’ इस अष्टमी को दिन रात एक-एक पहर पर विधिूपर्वक श्री राधामाधव की पूजा करें। श्री राधाकृष्ण में अनुरक्त रसिकजनों के साथ आलाप करते हुए बारंबार श्री राधाकृष्ण को याद करें। इस प्रकार महोत्सव करके परम आनंदित होकर अंत में विधिपूर्वक साष्टांग प्रणाम करें। जो पुरुष अथवा नारी राधाभक्तिपरायण होकर श्री राधाजन्म महोत्सव करता है, वह श्री राधाकृष्ण के सान्निध्य में श्रीवृंदावन में वास करता है। वह राधाभक्तिपरायण होकर व्रजवासी बनता है। श्री राधाजन्म- महोत्सव का गुण-कीर्तन करने से मनुष्य भव-बंधन से मुक्त हो जाता है। ‘राधा’ नाम की तथा राधा जन्माष्टमी-व्रत की महिमा जो मनुष्य राधा-राधा कहता है तथा स्मरण करता है, वह सब तीर्थों के संस्कार से युक्त होकर सब प्रकार की विद्याओं में कुषल बनता है। जो राधा-राधा कहता है, राधा-राधा कहकर पूजा करता है, राधा-राधा में जिसकी निष्ठा है, वह महाभाग श्रीवृन्दावन में श्री राधा का सहचर होता है। इस विश्वब्रह्मांड में यह पृथ्वी धन्य है, पृथ्वी पर वृन्दावनपुरी धन्य है। वृन्दावन में सती श्री राधा जी धन्य हैं, जिनका ध्यान बड़े-बड़े मुनिवर करते हैं। जो ब्रह्मा आदि देवताओं की परमाराध्या हैं, जिनकी सेवा देवता करते रहते हैं, उन श्री राधिकाजी को जो भजता है, मैं उसको भजता हूं। हे महाभाग ! उनके उत्तम मंत्र का जप करो और रात-दिन राधा-राधा बोलते हुए नाम कीर्तन करो। जो मनुष्य कृष्ण के साथ राधा का (राधेकृष्ण) नाम-कीर्तन करता है, उसके माहात्म्य का वर्णन मैं नहीं कर सकता और न उसका पार पा सकता हूं। राधा-नाम-स्मरण कदापि निष्फल नहीं जाता, यह सब तीर्थों का फल प्रदान करता है। श्री राधाजी सर्वतीर्थमयी हैं तथा ऐश्वर्यमयी हैं। श्री राधा भक्त के घर से कभी लक्ष्मी विमुख नहीं होतीं। हे नारद ! उसके घर श्री राधाजी के साथ श्री कृष्ण वास करते हैं। श्री राधाकृष्ण जिनके इष्ट देवता हैं, उनके लिए यह श्रेष्ठ व्रत है। उनके घर में श्रीहरि देह से, मन से कदापि पृथक् नहीं होते। यह सब सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी ने प्रणत होकर यथोक्त रीति से श्री राधाष्टमी में यजन-पूजन किया! जो मनुष्य इस लोक में राधाजन्माष्टमी -व्रत की यह कथा श्रवण करता है, वह सुखी, मानी, धनी और सर्वगुणसंपन्न हो जाता है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक श्री राधा का मंत्र जप अथवा नाम स्मरण करता है, वह धर्मार्थी हो तो धर्म प्राप्त करता है, अर्थार्थी हो तो धन पाता है, कामार्थी पूर्णकामी हो जाता है और मोक्षार्थी को मोक्ष प्राप्त करता है। कृष्णभक्त वैष्णव सर्वदा अनन्यशरण होकर जब श्री राधा की भक्ति प्राप्त करता है तो सुखी, विवेकी और निष्काम हो जाता है।

हनुमान चालीसा अर्थ सहित



॥ दोहा ॥

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन कुमार।
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस विकार॥
भावार्थ : मैं सदगुरु के चरण कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके, श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ जो (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी) चारों फलों को देने वाला है। मैं स्वयं को अज्ञानी और निर्बल जानकर, पवन-पुत्र श्री हनुमान जी का स्मरण करता हूँ जो मुझे बल, सद्‍बुद्धि और ज्ञान प्रदान करेंगे और मेरे दुखों व दोषों का नाश करेंगे।

॥ चौपाई ॥

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥ (१)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपकी जय हो, आप ज्ञान और गुण के सागर हैं, हे कपीश्वर! आपकी जय हो, आपका यश तीनों लोकों (स्वर्ग-लोक, पृथ्वी-लोक, पाताल-लोक) में फ़ैला हुआ है। (१)

राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥ (२)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप श्री राम जी के दूत हैं, आप अपार शक्ति के भण्डार है, आप माता अंजनि के पुत्र है और आप पवन देव के पुत्र नाम से जाने जाते हैं। (२)

महावीर विक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी॥ (३)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप महान वीर है, आप विशेष पराक्रमी हैं, आपका वज्र के समान अंग है, आप दुर्बुद्धि को दूर करते हैं और सुबुद्धि प्रदान करते हैं। (३)

कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा॥ (४)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपका स्वर्ण के समान रंग हैं, आपका सुन्दर वेश हैं, आपके कानों में कुंडल हैं और आप घुंघराले बालों से सुशोभित हैं। (४)

हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै॥ (५)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप हाथ में गदा और ध्वजा धारण करते हैं, आपके कंधे पर धागों का जनेऊ शोभायमान है। (५)

शंकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन॥ (६)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप शिव जी के अवतार और केसरी के पुत्र हैं, आपके पराक्रम का और आपके यश का सारा संसार गुणगान करता है। (६)

विद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥ (७)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप प्रकाण्ड विद्वान, आप गुणवान और अत्यंत कार्यकुशल हैं, आप राम जी के कार्य करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। (७)

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लषन सीता मन बसिया॥ (८)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपको प्रभु श्रीराम जी के चरित्र सुनने में आनन्द-रस मिलता हैं और राम, सीता और लक्ष्मण आपके ह्रदय में वसते हैं। (८)

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। विकट रूप धरि लंक जरावा॥ (९)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपने अपना छोटा रूप धारण करके सीता माँ को दिखाया, और विकराल रूप धारण करके लंका को जलाया। (९)

भीम रूप धरि असुर सँहारे। रामचंद्र के काज सँवारे॥ (१०)
भावार्थ : हे हनुमान जी! भयंकर रूप धारण करके राक्षसों का विनाश किया और प्रभु श्रीराम के सभी कार्य सिद्ध किये। (१०)

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥ (११)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की, प्रभु श्रीराम ने आपको हर्षित होकर हृदय से लगा लिया। (११)

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥ (१२)
भावार्थ : हे हनुमान जी! प्रभु श्रीराम ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत के समान प्रिय भाई हो। (१२)

सहस बदन तुम्हरो जस गावै। अस कहि श्रीपति कंठ लगावै॥ (१३)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपका यश हजारों मुखों से गाने योग्य है, ऐसा कहकर सीता जी के पति प्रभु श्रीराम ने आपको गले से लगा लिया। (१३)

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥ (१४)
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोविद कहि सके कहाँ ते॥ (१५)
भावार्थ : हे हनुमान जी! सनक कुमारों (सनक, सनन्दन, सनातन, सनत) सहित सभी ऋषि, ब्रह्मा जी सहित सभी देवता, मुनि नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी, यमराज जी, कुबेर जी, सभी दिशाओं के रक्षक, कवि और विद्वान आदि भी आपके यश का पूर्ण रूप से वर्णन नहीं कर सकते हैं। (१४,१५)

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राजपद दीन्हा॥ (१६)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपने सुग्रीव जी पर उपकार किया, प्रभु श्रीराम से मिलाकर उनको राज्य दिलाया। (१६)

तुम्हरो मंत्र विभीषन माना। लंकेश्वर भए सब जग जाना॥ (१७)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपके उपदेश का पालन करके विभीषण जी लंका के राजा बने समस्त संसार यह जानता है। (१७)

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥ (१८)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपने हजारों योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को मीठा फल समझ कर निगल लिया। (१८)

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥ (१९)
भावार्थ : हे हनुमान जी! प्रभु श्रीराम की अंगूठी को मुख में रखकर आप समुद्र को पार किया, यह आपके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। (१९)

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥ (२०)
भावार्थ : हे हनुमान जी! इस संसार के सभी कठिन कार्य आपकी कृपा से सहज और सुलभ हो जाते हैं। (२०)

राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥ (२१)
भावार्थ : हे हनुमान जी! प्रभु श्रीराम के द्वार की आप सुरक्षा करते हैं, आपके आदेश के बिना वहाँ कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता है। (२१)

सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डरना॥ (२२)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपकी शरण ग्रहण करके सभी सुखी हो जाते हैं, जब आप रक्षक हैं तब किससे डरने की आवश्यकता है। (२२)

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हाँक तें काँपै॥ (२३)
भावार्थ : हे हनुमान जी! अपनी महान शक्ति को आप ही सँभाल सकते हैं, आपकी गर्जना से तीनों लोक काँपने लगते हैं। (२३)

भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै॥ (२४)
भावार्थ : हे हनुमान जी! भूत-पिशाच आदि दुष्ट आत्माऎं उनके पास नहीं आते है,जो आपके नाम का गुणगान करते हैं। (२४)

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा॥ (२५)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपके महान नाम का निरंतर जप करने वालों के सभी रोगों का नाश हो जाता है और सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं। (२५)

संकट तें हनुमान छुडावैं। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥ (२६)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप सभी संकटों से उनकी रक्षा करते हैं जो मन से, शरीर से और वाणी से सदा स्मरण करते है। (२६)

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥ (२७)
भावार्थ : हे हनुमान जी! सभी से श्रेष्ठ प्रभु श्रीराम तपस्वी राजा हैं, आपने उनके भी सभी कार्यों को सहज कर दिया। (२७)

और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै॥ (२८)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप की कृपा से मन की सभी इच्छायें पूर्ण होती हैं, और तुरन्त अकल्पनीय फल प्राप्त हो जाते हैं। (२८)

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥ (२९)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपके यश का प्रकाश चारों युगों (सतयुग, त्रैतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग) में रहता है, जिससे सम्पूर्ण संसार प्रकाशित होता है। (२९)

साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥ (३०)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप सज्जनों की रक्षा करते है, दुर्जनों का विनाश करते है इस कारण आप प्रभु श्रीराम के प्यारे हैं। (३०)

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥ (३१)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आप आठों सिद्धियाँ और नौ प्रकार की सम्पत्ति को दे सकते हैं, ऐसा वरदान आपको माता सीता से प्राप्त है। (३१)

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा॥ (३२)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपके पास प्रभु श्रीराम के नाम की औषधी है, जिससे आप सदा प्रभु श्रीराम की शरण में रहते हैं। (३२)

तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै॥ (३३)
भावार्थ : हे हनुमान जी! आपके स्मरण से मनुष्य प्रभु श्रीराम को प्राप्त करके जन्म- जन्मान्तर के सभी कष्ट भूल जाते हैं। (३३)

अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि - भक्त कहाई॥ (३४)
भावार्थ : हे हनुमान जी! जो मनुष्य अंत समय में आपका स्मरण करते है वह वैकुण्ठ में जन्म लेकर भगवान का भक्त कहलाता है। (३४)

और देवता चित न धरई। हनुमत से हि सर्व सुख करई॥ (३५)
भावार्थ : हे हनुमान जी! मनुष्य को अन्य देवताओं की पूजा करने की आवश्यकता नही रहती है, आपके स्मरण से ही सभी सुखों की प्राप्ति हो जाती है। (३५)

संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥ (३६)
भावार्थ : हे हनुमान जी! जो आपकी वीरता का गुणगान करता है उनके सभी विपत्तियों का नाश हो जाता है और सभी कष्ट मिट जाते है। (३६)

जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरुदेव की नाई॥ (३७)
भावार्थ : हे हनुमान जी! भक्तों की रक्षा करने वाले आपकी की जय हो, जय हो, जय हो, आप मुझ पर गुरु की तरह कृपा करें। (३७)

जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महा सुख होई॥ (३८)
भावार्थ : जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा, वह जन्म-मृत्यु के बंधन से छूटकर परम-आनन्द को प्राप्त करेगा। (३८)

जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ (३९)
भावार्थ : जो मनुष्य इस हनुमान चालीसा को पढे़गा है उसको श्री शंकर भगवान की कृपा से निश्चय ही सफ़लता प्राप्त होगी। (३९)

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा॥ (४०)
भावार्थ : श्री तुलसीदास जी कहते हैं, मैं सदा श्रीराम का सेवक हूँ, हे स्वामी! आप मेरे हृदय में निवास कीजिये। (४०)

॥ दोहा ॥

पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप।
राम लषन सीता सहित ह्रदय बसहु सुर भूप॥
भावार्थ : हे पवनपुत्र, संकटमोचन, आनन्द स्वरूप श्री हनुमान जी आप श्रीराम जी, सीता जी और लक्ष्मण जीके साथ मेरे हृदय में निवास कीजिये।

श्री शिवाष्टकं

॥ अथ श्री शिवाष्टकं ॥

प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथनाथं सदानन्दभाजाम् ।
भवद्भव्यभूतेश्वरं भूतनाथं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ १॥

गले रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकालकालं गणेशाधिपालम् ।
जटाजूटभङ्गोत्तरङ्गैर्विशालं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ २॥

मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महामण्डल भस्मभूषधरंतम् ।
अनादिह्यपारं महामोहहारं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ३॥

तटाधो निवासं महाट्टाट्टहासं महापापनाशं सदासुप्रकाशम् ।
गिरीशं गणेशं महेशं सुरेशं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ४॥

गिरिन्द्रात्मजासंग्रहीतार्धदेहं गिरौ संस्थितं सर्वदा सन्नगेहम् ।
परब्रह्मब्रह्मादिभिर्वन्ध्यमानं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ५॥

कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भोजनम्राय कामं ददानम् ।
बलीवर्दयानं सुराणां प्रधानं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ६॥

शरच्चन्द्रगात्रं गुणानन्द पात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम् ।
अपर्णाकलत्रं चरित्रं विचित्रं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ७॥

हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वेदसारं सदा निर्विकारम् ।
श्मशाने वदन्तं मनोजं दहन्तं शिवं शङ्करं शम्भुमीशानमीडे ॥ ८॥

स्तवं यः प्रभाते नरः शूलपाणे पठेत् सर्वदा भर्गभावानुरक्तः ।
स पुत्रं धनं धान्यमित्रं कलत्रं विचित्रं समासाद्य मोक्षं प्रयाति ॥ ९॥

॥ इति शिवाष्टकम् ॥

|| विश्वनाथाष्टकम् ||

|| विश्वनाथाष्टकम् ||

गङ्गातरंगरमणीयजटाकलापं
गौरीनिरन्तरविभूषितवामभागम् |
नारायणप्रियमनंगमदापहारं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
वाचामगोचरमनेकगुणस्वरूपं
वागीशविष्णुसुरसेवितपादपीठम् |
वामेनविग्रहवरेणकलत्रवन्तं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
भूताधिपं भुजगभूषणभूषितांगं
व्याघ्राजिनांबरधरं जटिलं त्रिनेत्रम् |
पाशांकुशाभयवरप्रदशूलपाणिं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् |
शीतांशुशोभितकिरीटविराजमानं
भालेक्षणानलविशोषितपंचबाणम् |
नागाधिपारचितभासुरकर्णपूरं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
पंचाननं दुरितमत्तमतङ्गजानां
नागान्तकं दनुजपुंगवपन्नगानाम् |
दावानलं मरणशोकजराटवीनां
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
तेजोमयं सगुणनिर्गुणमद्वितीयं
आनन्दकन्दमपराजितमप्रमेयम् |
नागात्मकं सकलनिष्कलमात्मरूपं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
रागादिदोषरहितं स्वजनानुरागं
वैराग्यशान्तिनिलयं गिरिजासहायम् |
माधुर्यधैर्यसुभगं गरलाभिरामं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
आशां विहाय परिहृत्य परस्य निन्दां
पापे रतिं च सुनिवार्य मनः समाधौ |
आदाय हृत्कमलमध्यगतं परेशं
वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम् ||
वाराणसीपुरपतेः स्तवनं शिवस्य
व्याख्यातमष्टकमिदं पठते मनुष्यः |
विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्तिं
सम्प्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम् ||
विश्वनाथाष्टकमिदं यः पठेच्छिवसन्निधौ |
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ||

|| इति श्रीमहर्षिव्यासप्रणीतं श्रीविश्वनाथाष्टकं संपूर्णम् ||

|| द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||

|| द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||

सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम् |
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये || १||
श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम् |
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् || २||
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् |
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् || ३||
कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय |
सदैवमान्धातृपुरे वसन्तमोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे || ४||
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् |
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि || ५||
याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः |
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये || ६||
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः |
सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे || ७||
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरितीरपवित्रदेशे |
यद्धर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे || ८||
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः |
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि || ९||
यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च |
सदैव भीमादिपदप्रसिद्दं तं शङ्करं भक्तहितं नमामि || १०||
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम् |
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये || ११||
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम् |
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणम् प्रपद्ये || १२||
ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण |
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च ||

|| इति द्वादश ज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रं संपूर्णम् ||

।। दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम् ।।

।। दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम् ।।



।। अथ श्री दुर्गासहस्रनामस्तोत्रम् ।। 

नारद उवाच - 
कुमार गुणगम्भीर देवसेनापते प्रभो ।
सर्वाभीष्टप्रदं पुंसां सर्वपापप्रणाशनम् ।। १।।
गुह्याद्गुह्यतरं स्तोत्रं भक्तिवर्धकमञ्जसा ।
मङ्गलं ग्रहपीडादिशान्तिदं वक्तुमर्हसि ।। २।।


स्कन्द उवाच -
शृणु नारद देवर्षे लोकानुग्रहकाम्यया ।
यत्पृच्छसि परं पुण्यं तत्ते वक्ष्यामि कौतुकात् ।। ३।।
माता मे लोकजननी हिमवन्नगसत्तमात् ।
मेनायां ब्रह्मवादिन्यां प्रादुर्भूता हरप्रिया ।। ४।।
महता तपसाऽऽराध्य शङ्करं लोकशङ्करम् ।
स्वमेव वल्लभं भेजे कलेव हि कलानिधिम् ।। ५।।
नगानामधिराजस्तु हिमवान् विरहातुरः ।
स्वसुतायाः परिक्षीणे वसिष्ठेन प्रबोधितः ।। ६।।
त्रिलोकजननी सेयं प्रसन्ना त्वयि पुण्यतः ।
प्रादुर्भूता सुतात्वेन तद्वियोगं शुभं त्यज ।। ७।।
बहुरूपा च दुर्गेयं बहुनाम्नी सनातनी ।
सनातनस्य जाया सा पुत्रीमोहं त्यजाधुना ।। ८।।
इति प्रबोधितः शैलः तां तुष्टाव परां शिवाम् ।
तदा प्रसन्ना सा दुर्गा पितरं प्राह नन्दिनी ।। ९।।
मत्प्रसादात्परं स्तोत्रं हृदये प्रतिभासताम् ।
तेन नाम्नां सहस्रेण पूजयन् काममाप्नुहि ।। १०।।
इत्युक्त्वान्तर्हितायां तु हृदये स्फुरितं तदा ।
नाम्नां सहस्रं दुर्गायाः पृच्छते मे यदुक्तवान् ।। ११।।
मङ्गलानां मङ्गलं तद् दुर्गानाम सहस्रकम् ।
सर्वाभीष्टप्रदां पुंसां ब्रवीम्यखिलकामदम् ।। १२।।
दुर्गादेवी समाख्याता हिमवानृषिरुच्यते ।
छन्दोनुष्टुप् जपो देव्याः प्रीतये क्रियते सदा ।। १३।।

ऋषिच्छन्दांसि – अस्य श्रीदुर्गास्तोत्रमहामन्त्रस्य । हिमवान् ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । दुर्गाभगवती देवता । श्रीदुर्गाप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
श्रीभगवत्यै दुर्गायै नमः । 




देवीध्यानम् 
ॐ ह्रीं कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शङ्खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम् ।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः ।।
श्री जयदुर्गायै नमः ।

ॐ शिवाऽथोमा रमा शक्तिरनन्ता निष्कलाऽमला ।
शान्ता माहेश्वरी नित्या शाश्वता परमा क्षमा ।। १।।
अचिन्त्या केवलानन्ता शिवात्मा परमात्मिका ।
अनादिरव्यया शुद्धा सर्वज्ञा सर्वगाऽचला ।। २।।
एकानेकविभागस्था मायातीता सुनिर्मला ।
महामाहेश्वरी सत्या महादेवी निरञ्जना ।। ३।।
काष्ठा सर्वान्तरस्थाऽपि चिच्छक्तिश्चात्रिलालिता ।
सर्वा सर्वात्मिका विश्वा ज्योतीरूपाऽक्षराऽमृता ।। ४।।
शान्ता प्रतिष्ठा सर्वेशा निवृत्तिरमृतप्रदा ।
व्योममूर्तिर्व्योमसंस्था व्योमधाराऽच्युताऽतुला ।। ५।।
अनादिनिधनाऽमोघा कारणात्मकलाकुला ।
ऋतुप्रथमजाऽनाभिरमृतात्मसमाश्रया ।। ६।।
प्राणेश्वरप्रिया नम्या महामहिषघातिनी ।
प्राणेश्वरी प्राणरूपा प्रधानपुरुषेश्वरी ।। ७।।
सर्वशक्तिकलाऽकामा महिषेष्टविनाशिनी ।
सर्वकार्यनियन्त्री च सर्वभूतेश्वरेश्वरी ।। ८।।
अङ्गदादिधरा चैव तथा मुकुटधारिणी ।
सनातनी महानन्दाऽऽकाशयोनिस्तथेच्यते ।। ९।।
चित्प्रकाशस्वरूपा च महायोगेश्वरेश्वरी ।
महामाया सदुष्पारा मूलप्रकृतिरीशिका ।। १०।।
संसारयोनिः सकला सर्वशक्तिसमुद्भवा ।
संसारपारा दुर्वारा दुर्निरीक्षा दुरासदा ।। ११।।
प्राणशक्तिश्च सेव्या च योगिनी परमाकला ।
महाविभूतिर्दुर्दर्शा मूलप्रकृतिसम्भवा ।। १२।।
अनाद्यनन्तविभवा परार्था पुरुषारणिः ।
सर्गस्थित्यन्तकृच्चैव सुदुर्वाच्या दुरत्यया ।। १३।।
शब्दगम्या शब्दमाया शब्दाख्यानन्दविग्रहा ।
प्रधानपुरुषातीता प्रधानपुरुषात्मिका ।। १४।।
पुराणी चिन्मया पुंसामिष्टदा पुष्टिरूपिणी ।
पूतान्तरस्था कूटस्था महापुरुषसंज्ञिता ।। १५।।
जन्ममृत्युजरातीता सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
वाञ्छाप्रदाऽनवच्छिन्नप्रधानानुप्रवेशिनी ।। १६।।
क्षेत्रज्ञाऽचिन्त्यशक्तिस्तु प्रोच्यतेऽव्यक्तलक्षणा ।
मलापवर्जिताऽऽनादिमाया त्रितयतत्त्विका ।। १७।।
प्रीतिश्च प्रकृतिश्चैव गुहावासा तथोच्यते ।
महामाया नगोत्पन्ना तामसी च ध्रुवा तथा ।। १८।।
व्यक्ताऽव्यक्तात्मिका कृष्णा रक्ता शुक्ला ह्यकारणा ।
प्रोच्यते कार्यजननी नित्यप्रसवधर्मिणी ।। १९।।
सर्गप्रलयमुक्ता च सृष्टिस्थित्यन्तधर्मिणी ।
ब्रह्मगर्भा चतुर्विंशस्वरूपा पद्मवासिनी ।। २०।।
अच्युताह्लादिका विद्युद्ब्रह्मयोनिर्महालया ।
महालक्ष्मी समुद्भावभावितात्मामहेश्वरी ।। २१।।
महाविमानमध्यस्था महानिद्रा सकौतुका ।
सर्वार्थधारिणी सूक्ष्मा ह्यविद्धा परमार्थदा ।। २२।।
अनन्तरूपाऽनन्तार्था तथा पुरुषमोहिनी ।
अनेकानेकहस्ता च कालत्रयविवर्जिता ।। २३।।
ब्रह्मजन्मा हरप्रीता मतिर्ब्रह्मशिवात्मिका ।
ब्रह्मेशविष्णुसम्पूज्या ब्रह्माख्या ब्रह्मसंज्ञिता ।। २४।।
व्यक्ता प्रथमजा ब्राह्मी महारात्रीः प्रकीर्तिता ।
ज्ञानस्वरूपा वैराग्यरूपा ह्यैश्वर्यरूपिणी ।। २५।।
धर्मात्मिका ब्रह्ममूर्तिः प्रतिश्रुतपुमर्थिका ।
अपांयोनिः स्वयम्भूता मानसी तत्त्वसम्भवा ।। २६।।
ईश्वरस्य प्रिया प्रोक्ता शङ्करार्धशरीरिणी ।
भवानी चैव रुद्राणी महालक्ष्मीस्तथाऽम्बिका ।। २७।।
महेश्वरसमुत्पन्ना भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी ।
सर्वेश्वरी सर्ववन्द्या नित्यमुक्ता सुमानसा ।। २८।।
महेन्द्रोपेन्द्रनमिता शाङ्करीशानुवर्तिनी ।
ईश्वरार्धासनगता माहेश्वरपतिव्रता ।। २९।।
संसारशोषिणी चैव पार्वती हिमवत्सुता ।
परमानन्ददात्री च गुणाग्र्या योगदा तथा ।। ३०।।
ज्ञानमूर्तिश्च सावित्री लक्ष्मीः श्रीः कमला तथा ।
अनन्तगुणगम्भीरा ह्युरोनीलमणिप्रभा ।। ३१।।
सरोजनिलया गङ्गा योगिध्येयाऽसुरार्दिनी ।
सरस्वती सर्वविद्या जगज्ज्येष्ठा सुमङ्गला ।। ३२।।
वाग्देवी वरदा वर्या कीर्तिः सर्वार्थसाधिका ।
वागीश्वरी ब्रह्मविद्या महाविद्या सुशोभना ।। ३३।।
ग्राह्यविद्या वेदविद्या धर्मविद्याऽऽत्मभाविता ।
स्वाहा विश्वम्भरा सिद्धिः साध्या मेधा धृतिः कृतिः ।। ३४।।
सुनीतिः संकृतिश्चैव कीर्तिता नरवाहिनी ।
पूजाविभाविनी सौम्या भोग्यभाग् भोगदायिनी ।। ३५।।
शोभावती शाङ्करी च लोला मालाविभूषिता ।
परमेष्ठिप्रिया चैव त्रिलोकीसुन्दरी माता ।। ३६।।
नन्दा सन्ध्या कामधात्री महादेवी सुसात्त्विका ।
महामहिषदर्पघ्नी पद्ममालाऽघहारिणी ।। ३७।।
विचित्रमुकुटा रामा कामदाता प्रकीर्तिता ।
पिताम्बरधरा दिव्यविभूषण विभूषिता ।। ३८।।
दिव्याख्या सोमवदना जगत्संसृष्टिवर्जिता ।
निर्यन्त्रा यन्त्रवाहस्था नन्दिनी रुद्रकालिका ।। ३९।।
आदित्यवर्णा कौमारी मयूरवरवाहिनी ।
पद्मासनगता गौरी महाकाली सुरार्चिता ।। ४०।।
अदितिर्नियता रौद्री पद्मगर्भा विवाहना ।
विरूपाक्षा केशिवाहा गुहापुरनिवासिनी ।। ४१।।
महाफलाऽनवद्याङ्गी कामरूपा सरिद्वरा ।
भास्वद्रूपा मुक्तिदात्री प्रणतक्लेशभञ्जना ।। ४२।।
कौशिकी गोमिनी रात्रिस्त्रिदशारिविनाशिनी ।
बहुरूपा सुरूपा च विरूपा रूपवर्जिता ।। ४३।।
भक्तार्तिशमना भव्या भवभावविनाशिनी ।
सर्वज्ञानपरीताङ्गी सर्वासुरविमर्दिका ।। ४४।।
पिकस्वनी सामगीता भवाङ्कनिलया प्रिया ।
दीक्षा विद्याधरी दीप्ता महेन्द्राहितपातिनी ।। ४५।।
सर्वदेवमया दक्षा समुद्रान्तरवासिनी ।
अकलङ्का निराधारा नित्यसिद्धा निरामया ।। ४६।।
कामधेनुबृहद्गर्भा धीमती मौननाशिनी ।
निःसङ्कल्पा निरातङ्का विनया विनयप्रदा ।। ४७।।
ज्वालामाला सहस्राढ्या देवदेवी मनोमया ।
सुभगा सुविशुद्धा च वसुदेवसमुद्भवा ।। ४८।।
महेन्द्रोपेन्द्रभगिनी भक्तिगम्या परावरा ।
ज्ञानज्ञेया परातीता वेदान्तविषया मतिः ।। ४९।।
दक्षिणा दाहिका दह्या सर्वभूतहृदिस्थिता ।
योगमाया विभागज्ञा महामोहा गरीयसी ।। ५०।।
सन्ध्या सर्वसमुद्भूता ब्रह्मवृक्षाश्रियाऽदितिः ।
बीजाङ्कुरसमुद्भूता महाशक्तिर्महामतिः ।। ५१।।
ख्यातिः प्रज्ञावती संज्ञा महाभोगीन्द्रशायिनी ।
हींकृतिः शङ्करी शान्तिर्गन्धर्वगणसेविता ।। ५२।।
वैश्वानरी महाशूला देवसेना भवप्रिया ।
महारात्री परानन्दा शची दुःस्वप्ननाशिनी ।। ५३।।
ईड्या जया जगद्धात्री दुर्विज्ञेया सुरूपिणी ।
गुहाम्बिका गणोत्पन्ना महापीठा मरुत्सुता ।। ५४।।
हव्यवाहा भवानन्दा जगद्योनिः प्रकीर्तिता ।
जगन्माता जगन्मृत्युर्जरातीता च बुद्धिदा ।। ५५।।
सिद्धिदात्री रत्नगर्भा रत्नगर्भाश्रया परा ।
दैत्यहन्त्री स्वेष्टदात्री मङ्गलैकसुविग्रहा ।। ५६।।
पुरुषान्तर्गता चैव समाधिस्था तपस्विनी ।
दिविस्थिता त्रिणेत्रा च सर्वेन्द्रियमनाधृतिः ।। ५७।।
सर्वभूतहृदिस्था च तथा संसारतारिणी ।
वेद्या ब्रह्मविवेद्या च महालीला प्रकीर्तिता ।। ५८।।
ब्राह्मणिबृहती ब्राह्मी ब्रह्मभूताऽघहारिणी ।
हिरण्मयी महादात्री संसारपरिवर्तिका ।। ५९।।
सुमालिनी सुरूपा च भास्विनी धारिणी तथा ।
उन्मूलिनी सर्वसभा सर्वप्रत्ययसाक्षिणी ।। ६०।।
सुसौम्या चन्द्रवदना ताण्डवासक्तमानसा ।
सत्त्वशुद्धिकरी शुद्धा मलत्रयविनाशिनी ।। ६१।।
जगत्त्त्रयी जगन्मूर्तिस्त्रिमूर्तिरमृताश्रया ।
विमानस्था विशोका च शोकनाशिन्यनाहता ।। ६२।।
हेमकुण्डलिनी काली पद्मवासा सनातनी ।
सदाकीर्तिः सर्वभूतशया देवी सतांप्रिया ।। ६३।।
ब्रह्ममूर्तिकला चैव कृत्तिका कञ्जमालिनी ।
व्योमकेशा क्रियाशक्तिरिच्छाशक्तिः परागतिः ।। ६४।।
क्षोभिका खण्डिकाभेद्या भेदाभेदविवर्जिता ।
अभिन्ना भिन्नसंस्थाना वशिनी वंशधारिणी ।। ६५।।
गुह्यशक्तिर्गुह्यतत्त्वा सर्वदा सर्वतोमुखी ।
भगिनी च निराधारा निराहारा प्रकीर्तिता ।। ६६।।
निरङ्कुशपदोद्भूता चक्रहस्ता विशोधिका ।
स्रग्विणी पद्मसम्भेदकारिणी परिकीर्तिता ।। ६७।।
परावरविधानज्ञा महापुरुषपूर्वजा ।
परावरज्ञा विद्या च विद्युज्जिह्वा जिताश्रया ।। ६८।।
विद्यामयी सहस्राक्षी सहस्रवदनात्मजा ।
सहस्ररश्मिःसत्वस्था महेश्वरपदाश्रया ।। ६९।।
ज्वालिनी सन्मया व्याप्ता चिन्मया पद्मभेदिका ।
महाश्रया महामन्त्रा महादेवमनोरमा ।। ७०।।
व्योमलक्ष्मीः सिंहरथा चेकितानाऽमितप्रभा ।
विश्वेश्वरी भगवती सकला कालहारिणी ।। ७१।।
सर्ववेद्या सर्वभद्रा गुह्या दूढा गुहारणी ।
प्रलया योगधात्री च गङ्गा विश्वेश्वरी तथा ।। ७२।।
कामदा कनका कान्ता कञ्जगर्भप्रभा तथा ।
पुण्यदा कालकेशा च भोक्त्त्री पुष्करिणी तथा ।। ७३।।
सुरेश्वरी भूतिदात्री भूतिभूषा प्रकीर्तिता ।
पञ्चब्रह्मसमुत्पन्ना परमार्थाऽर्थविग्रहा ।। ७४।।
वर्णोदया भानुमूर्तिर्वाग्विज्ञेया मनोजवा ।
मनोहरा महोरस्का तामसी वेदरूपिणी ।। ७५।।
वेदशक्तिर्वेदमाता वेदविद्याप्रकाशिनी ।
योगेश्वरेश्वरी माया महाशक्तिर्महामयी ।। ७६।।
विश्वान्तःस्था वियन्मूर्तिर्भार्गवी सुरसुन्दरी ।
सुरभिर्नन्दिनी विद्या नन्दगोपतनूद्भवा ।। ७७।।
भारती परमानन्दा परावरविभेदिका ।
सर्वप्रहरणोपेता काम्या कामेश्वरेश्वरी ।। ७८।।
अनन्तानन्दविभवा हृल्लेखा कनकप्रभा ।
कूष्माण्डा धनरत्नाढ्या सुगन्धा गन्धदायिनी ।। ७९।।
त्रिविक्रमपदोद्भूता चतुरास्या शिवोदया ।
सुदुर्लभा धनाध्यक्षा धन्या पिङ्गललोचना ।। ८०।।
शान्ता प्रभास्वरूपा च पङ्कजायतलोचना ।
इन्द्राक्षी हृदयान्तःस्था शिवा माता च सत्क्रिया ।। ८१।।
गिरिजा च सुगूढा च नित्यपुष्टा निरन्तरा ।
दुर्गा कात्यायनी चण्डी चन्द्रिका कान्तविग्रहा ।। ८२।।
हिरण्यवर्णा जगती जगद्यन्त्रप्रवर्तिका ।
मन्दराद्रिनिवासा च शारदा स्वर्णमालिनी ।। ८३।।
रत्नमाला रत्नगर्भा व्युष्टिर्विश्वप्रमाथिनी ।
पद्मानन्दा पद्मनिभा नित्यपुष्टा कृतोद्भवा ।। ८४।।
नारायणी दुष्टशिक्षा सूर्यमाता वृषप्रिया ।
महेन्द्रभगिनी सत्या सत्यभाषा सुकोमला ।। ८५।।
वामा च पञ्चतपसां वरदात्री प्रकीर्तिता ।
वाच्यवर्णेश्वरी विद्या दुर्जया दुरतिक्रमा ।। ८६।।
कालरात्रिर्महावेगा वीरभद्रप्रिया हिता ।
भद्रकाली जगन्माता भक्तानां भद्रदायिनी ।। ८७।।
कराला पिङ्गलाकारा कामभेत्त्री महामनाः ।
यशस्विनी यशोदा च षडध्वपरिवर्तिका ।। ८८।।
शङ्खिनी पद्मिनी संख्या सांख्ययोगप्रवर्तिका ।
चैत्रादिर्वत्सरारूढा जगत्सम्पूरणीन्द्रजा ।। ८९।।
शुम्भघ्नी खेचराराध्या कम्बुग्रीवा बलीडिता ।
खगारूढा महैश्वर्या सुपद्मनिलया तथा ।। ९०।।
विरक्ता गरुडस्था च जगतीहृद्गुहाश्रया ।
शुम्भादिमथना भक्तहृद्गह्वरनिवासिनी ।। ९१।।
जगत्त्त्रयारणी सिद्धसङ्कल्पा कामदा तथा ।
सर्वविज्ञानदात्री चानल्पकल्मषहारिणी ।। ९२।।
सकलोपनिषद्गम्या दुष्टदुष्प्रेक्ष्यसत्तमा ।
सद्वृता लोकसंव्याप्ता तुष्टिः पुष्टिः क्रियावती ।। ९३।।
विश्वामरेश्वरी चैव भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ।
शिवाधृता लोहिताक्षी सर्पमालाविभूषणा ।। ९४।।
निरानन्दा त्रिशूलासिधनुर्बाणादिधारिणी ।
अशेषध्येयमूर्तिश्च देवतानां च देवता ।। ९५।।
वराम्बिका गिरेः पुत्री निशुम्भविनिपातिनी ।
सुवर्णा स्वर्णलसिताऽनन्तवर्णा सदाधृता ।। ९६।।
शाङ्करी शान्तहृदया अहोरात्रविधायिका ।
विश्वगोप्त्री गूढरूपा गुणपूर्णा च गार्ग्यजा ।। ९७।।
गौरी शाकम्भरी सत्यसन्धा सन्ध्यात्रयीधृता ।
सर्वपापविनिर्मुक्ता सर्वबन्धविवर्जिता ।। ९८।।
सांख्ययोगसमाख्याता अप्रमेया मुनीडिता ।
विशुद्धसुकुलोद्भूता बिन्दुनादसमादृता ।। ९९।।
शम्भुवामाङ्कगा चैव शशितुल्यनिभानना ।
वनमालाविराजन्ती अनन्तशयनादृता ।। १००।।
नरनारायणोद्भूता नारसिंही प्रकीर्तिता ।
दैत्यप्रमाथिनी शङ्खचक्रपद्मगदाधरा ।। १०१।।
सङ्कर्षणसमुत्पन्ना अम्बिका सज्जनाश्रया ।
सुवृता सुन्दरी चैव धर्मकामार्थदायिनी ।। १०२।।
मोक्षदा भक्तिनिलया पुराणपुरुषादृता ।
महाविभूतिदाऽऽराध्या सरोजनिलयाऽसमा ।। १०३।।
अष्टादशभुजाऽनादिर्नीलोत्पलदलाक्षिणी ।
सर्वशक्तिसमारूढा धर्माधर्मविवर्जिता ।। १०४।।
वैराग्यज्ञाननिरता निरालोका निरिन्द्रिया ।
विचित्रगहनाधारा शाश्वतस्थानवासिनी ।। १०५।।
ज्ञानेश्वरी पीतचेला वेदवेदाङ्गपारगा ।
मनस्विनी मन्युमाता महामन्युसमुद्भवा ।। १०६।।
अमन्युरमृतास्वादा पुरन्दरपरिष्टुता ।
अशोच्या भिन्नविषया हिरण्यरजतप्रिया ।। १०७।।
हिरण्यजननी भीमा हेमाभरणभूषिता ।
विभ्राजमाना दुर्ज्ञेया ज्योतिष्टोमफलप्रदा ।। १०८।।
महानिद्रासमुत्पत्तिरनिद्रा सत्यदेवता ।
दीर्घा ककुद्मिनी पिङ्गजटाधारा मनोज्ञधीः ।। १०९।।
महाश्रया रमोत्पन्ना तमःपारे प्रतिष्ठिता ।
त्रितत्त्वमाता त्रिविधा सुसूक्ष्मा पद्मसंश्रया ।। ११०।।
शान्त्यतीतकलाऽतीतविकारा श्वेतचेलिका ।
चित्रमाया शिवज्ञानस्वरूपा दैत्यमाथिनी ।। १११।।
काश्यपी कालसर्पाभवेणिका शास्त्रयोनिका ।
त्रयीमूर्तिः क्रियामूर्तिश्चतुर्वर्गा च दर्शिनी ।। ११२।।
नारायणी नरोत्पन्ना कौमुदी कान्तिधारिणी ।
कौशिकी ललिता लीला परावरविभाविनी ।। ११३।।
वरेण्याऽद्भुतमहात्म्या वडवा वामलोचना ।
सुभद्रा चेतनाराध्या शान्तिदा शान्तिवर्धिनी ।। ११४।।
जयादिशक्तिजननी शक्तिचक्रप्रवर्तिका ।
त्रिशक्तिजननी जन्या षट्सूत्रपरिवर्णिता ।। ११५।।
सुधौतकर्मणाऽऽराध्या युगान्तदहनात्मिका ।
सङ्कर्षिणी जगद्धात्री कामयोनिः किरीटिनी ।। ११६।।
ऐन्द्री त्रैलोक्यनमिता वैष्णवी परमेश्वरी ।
प्रद्युम्नजननी बिम्बसमोष्ठी पद्मलोचना ।। ११७।।
मदोत्कटा हंसगतिः प्रचण्डा चण्डविक्रमा ।
वृषाधीशा परात्मा च विन्ध्या पर्वतवासिनी ।। ११८।।
हिमवन्मेरुनिलया कैलासपुरवासिनी ।
चाणूरहन्त्री नीतिज्ञा कामरूपा त्रयीतनुः ।। ११९।।
व्रतस्नाता धर्मशीला सिंहासननिवासिनी ।
वीरभद्रादृता वीरा महाकालसमुद्भवा ।। १२०।।
विद्याधरार्चिता सिद्धसाध्याराधितपादुका ।
श्रद्धात्मिका पावनी च मोहिनी अचलात्मिका ।। १२१।।
महाद्भुता वारिजाक्षी सिंहवाहनगामिनी ।
मनीषिणी सुधावाणी वीणावादनतत्परा ।। १२२।।
श्वेतवाहनिषेव्या च लसन्मतिररुन्धती ।
हिरण्याक्षी तथा चैव महानन्दप्रदायिनी ।। १२३।।
वसुप्रभा सुमाल्याप्तकन्धरा पङ्कजानना ।
परावरा वरारोहा सहस्रनयनार्चिता ।। १२४।।
श्रीरूपा श्रीमती श्रेष्ठा शिवनाम्नी शिवप्रिया ।
श्रीप्रदा श्रितकल्याणा श्रीधरार्धशरीरिणी ।। १२५।।
श्रीकलाऽनन्तदृष्टिश्च ह्यक्षुद्राऽऽरातिसूदनी ।
रक्तबीजनिहन्त्री च दैत्यसङ्गविमर्दिनी ।। १२६।।
सिंहारूढा सिंहिकास्या दैत्यशोणितपायिनी ।
सुकीर्तिसहिताच्छिन्नसंशया रसवेदिनी ।। १२७।।
गुणाभिरामा नागारिवाहना निर्जरार्चिता ।
नित्योदिता स्वयंज्योतिः स्वर्णकाया प्रकीर्तिता ।। १२८।।
वज्रदण्डाङ्किता चैव तथाऽमृतसञ्जीविनी ।
वज्रच्छन्ना देवदेवी वरवज्रस्वविग्रहा ।। १२९।।
माङ्गल्या मङ्गलात्मा च मालिनी माल्यधारिणी ।
गन्धर्वी तरुणी चान्द्री खड्गायुधधरा तथा ।। १३०।।
सौदामिनी प्रजानन्दा तथा प्रोक्ता भृगूद्भवा ।
एकानङ्गा च शास्त्रार्थकुशला धर्मचारिणी ।। १३१।।
धर्मसर्वस्ववाहा च धर्माधर्मविनिश्चया ।
धर्मशक्तिर्धर्ममया धार्मिकानां शिवप्रदा ।। १३२।।
विधर्मा विश्वधर्मज्ञा धर्मार्थान्तरविग्रहा ।
धर्मवर्ष्मा धर्मपूर्वा धर्मपारङ्गतान्तरा ।। १३३।।
धर्मोपदेष्ट्री धर्मात्मा धर्मगम्या धराधरा ।
कपालिनी शाकलिनी कलाकलितविग्रहा ।। १३४।।
सर्वशक्तिविमुक्ता च कर्णिकारधराऽक्षरा।
कंसप्राणहरा चैव युगधर्मधरा तथा ।। १३५।।
युगप्रवर्तिका प्रोक्ता त्रिसन्ध्या ध्येयविग्रहा ।
स्वर्गापवर्गदात्री च तथा प्रत्यक्षदेवता ।। १३६।।
आदित्या दिव्यगन्धा च दिवाकरनिभप्रभा ।
पद्मासनगता प्रोक्ता खड्गबाणशरासना ।। १३७।।
शिष्टा विशिष्टा शिष्टेष्टा शिष्टश्रेष्ठप्रपूजिता ।
शतरूपा शतावर्ता वितता रासमोदिनी ।। १३८।।
सूर्येन्दुनेत्रा प्रद्युम्नजननी सुष्ठुमायिनी ।
सूर्यान्तरस्थिता चैव सत्प्रतिष्ठतविग्रहा ।। १३९।।
निवृत्ता प्रोच्यते ज्ञानपारगा पर्वतात्मजा ।
कात्यायनी चण्डिका च चण्डी हैमवती तथा ।। १४०।।
दाक्षायणी सती चैव भवानी सर्वमङ्गला ।
धूम्रलोचनहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ।। १४१।।
योगनिद्रा योगभद्रा समुद्रतनया तथा ।
देवप्रियङ्करी शुद्धा भक्तभक्तिप्रवर्धिनी ।। १४२।।
त्रिणेत्रा चन्द्रमुकुटा प्रमथार्चितपादुका ।
अर्जुनाभीष्टदात्री च पाण्डवप्रियकारिणी ।। १४३।।
कुमारलालनासक्ता हरबाहूपधानिका ।
विघ्नेशजननी भक्तविघ्नस्तोमप्रहारिणी ।। १४४।।
सुस्मितेन्दुमुखी नम्या जयाप्रियसखी तथा ।
अनादिनिधना प्रेष्ठा चित्रमाल्यानुलेपना ।। १४५।।
कोटिचन्द्रप्रतीकाशा कूटजालप्रमाथिनी ।
कृत्याप्रहारिणी चैव मारणोच्चाटनी तथा ।। १४६।।
सुरासुरप्रवन्द्याङ्घ्रिर्मोहघ्नी ज्ञानदायिनी ।
षड्वैरिनिग्रहकरी वैरिविद्राविणी तथा ।। १४७।।
भूतसेव्या भूतदात्री भूतपीडाविमर्दिका ।
नारदस्तुतचारित्रा वरदेशा वरप्रदा ।। १४८।।
वामदेवस्तुता चैव कामदा सोमशेखरा ।
दिक्पालसेविता भव्या भामिनी भावदायिनी ।। १४९।।
स्त्रीसौभाग्यप्रदात्री च भोगदा रोगनाशिनी ।
व्योमगा भूमिगा चैव मुनिपूज्यपदाम्बुजा ।
वनदुर्गा च दुर्बोधा महादुर्गा प्रकीर्तिता ।। १५०।।



फलश्रुतिः 
इतीदं कीर्तिदं भद्र दुर्गानामसहस्रकम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं तस्य लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् ।। १।।
ग्रहभूतपिशाचादिपीडा नश्यत्यसंशयम् ।
बालग्रहादिपीडायाः शान्तिर्भवति कीर्तनात् ।। २।।
मारिकादिमहारोगे पठतां सौख्यदं नृणाम् ।
व्यवहारे च जयदं शत्रुबाधानिवारकम् ।। ३।।
दम्पत्योः कलहे प्राप्ते मिथः प्रेमाभिवर्धकम् ।
आयुरारोग्यदं पुंसां सर्वसम्पत्प्रदायकम् ।। ४।।
विद्याभिवर्धकं नित्यं पठतामर्थसाधकम् ।
शुभदं शुभकार्येषु पठतां शृणुतामपि ।। ५।।
यः पूजयति दुर्गां तां दुर्गानामसहस्रकैः ।
पुष्पैः कुङ्कुमसम्मिश्रैः स तु यत्काङ्क्षते हृदि ।। ६।।
तत्सर्वं समवाप्नोति नास्ति नास्त्यत्र संशयः ।
यन्मुखे ध्रियते नित्यं दुर्गानामसहस्रकम् ।। ७।।
किं तस्येतरमन्त्रौघैः कार्यं धन्यतमस्य हि ।
दुर्गानामसहस्रस्य पुस्तकं यद्गृहे भवेत् ।। ८।।
न तत्र ग्रहभूतादिबाधा स्यान्मङ्गलास्पदे ।
तद्गृहं पुण्यदं क्षेत्रं देवीसान्निध्यकारकम् ।। ९।।
एतस्य स्तोत्रमुख्यस्य पाठकः श्रेष्ठमन्त्रवित् ।
देवतायाः प्रसादेन सर्वपूज्यः सुखी भवेत् ।। १०।।
इत्येतन्नगराजेन कीर्तितं मुनिसत्तम ।
गुह्याद्गुह्यतरं स्तोत्रं त्वयि स्नेहात् प्रकीर्तितम् ।। ११।।
भक्ताय श्रद्धधानाय केवलं कीर्त्यतामिदम् ।
हृदि धारय नित्यं त्वं देव्यनुग्रहसाधकम् ।। १२।। ।।

इति श्रीस्कान्दपुराणे स्कन्दनारदसंवादे दुर्गासहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

व्रत करने की विधि

व्रत करने की विधि


व्रत को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें तथा भोग विलास से भी दूर रहें । प्रात:  लकड़ी का दातुन तथा पेस्ट का उपयोग न करें; नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और उँगली से कंठ शुद्ध कर लें । वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी वर्जित है, अत: स्वयं गिरे हुए पत्ते का सेवन करे । यदि यह सम्भव न हो तो पानी से बारह कुल्ले कर लें । फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर पूजा  पाठ करें या पुरोहितादि से कथा सत्संग आदि श्रवण करें । प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि: ‘आज मैं चोर, पाखण्डी और दुराचारी मनुष्य से बात नहीं करुँगा और न ही किसीका दिल दुखाऊँगा । गौ, ब्राह्मण आदि को फलाहार व अन्नादि देकर प्रसन्न करुँगा । रात्रि को जागरण कर कीर्तन करुँगा , इष्ट मंत्र अथवा गुरुमंत्र का जाप करुँगा, राम, कृष्ण , नारायण इत्यादि ईश्वर के नामों  को कण्ठ का भूषण बनाऊँगा ।’ – ऐसी प्रतिज्ञा करके भगवान का स्मरण कर प्रार्थना करें कि : ‘हे त्रिलोकपति ! मेरी लाज आपके हाथ है, अत: मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करें ।’ मौन, जप, शास्त्र पठन , कीर्तन, रात्रि जागरण  व्रत में विशेष लाभ पँहुचाते हैं।
व्रत के दिन अशुद्ध द्रव्य से बने पेय न पीयें । कोल्ड ड्रिंक्स, एसिड आदि डाले हुए फलों के डिब्बाबंद रस को न पीयें । दो बार भोजन न करें । आइसक्रीम व तली हुई चीजें न खायें । फल अथवा घर में निकाला हुआ फल का रस अथवा थोड़े दूध या जल पर रहना विशेष लाभदायक है । व्रत के दिनों में काँसे के बर्तन, मांस, प्याज, लहसुन, मसूर, उड़द, चने, कोदो (एक प्रकार का धान), शाक, शहद, तेल और अत्यम्बुपान (अधिक जल का सेवन) – इनका सेवन न करें । व्रत के दिन हविष्यान्न (जौ, गेहूँ, मूँग, सेंधा नमक, कालीमिर्च, शर्करा और गोघृत आदि) का एक बार भोजन करें।
फलाहारी को गोभी, गाजर, शलजम, पालक, कुलफा का साग इत्यादि सेवन नहीं करना चाहिए । आम, अंगूर, केला, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करना चाहिए ।
जुआ, निद्रा, पान, दातुन, परायी निन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा झूठ, कपटादि अन्य कुकर्मों से नितान्त दूर रहना चाहिए । बैल की पीठ पर सवारी न करें ।
भूलवश किसी निन्दक से बात हो जाय तो इस दोष को दूर करने के लिए भगवान सूर्य के दर्शन तथा धूप दीप से श्रीहरि की पूजा कर क्षमा माँग लेनी चाहिए । व्रत के दिन घर में झाडू नहीं लगायें, इससे चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है । इस दिन बाल नहीं कटायें । मधुर बोलें, अधिक न बोलें, अधिक बोलने से न बोलने योग्य वचन भी निकल जाते हैं । सत्य भाषण करना चाहिए । इस दिन यथाशक्ति अन्नदान करें किन्तु स्वयं किसीका दिया हुआ अन्न कदापि ग्रहण न करें । प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करनी चाहिए ।
व्रत के दिन किसी सम्बन्धी की मृत्यु हो जाय तो उस दिन व्रत रखकर उसका फल संकल्प करके मृतक को देना चाहिए और श्रीगंगाजी में पुष्प (अस्थि) प्रवाहित करने पर भी  व्रत रखकर व्रत फल प्राणी के निमित्त दे देना चाहिए । प्राणिमात्र को अन्तर्यामी का अवतार समझकर किसीसे छल कपट नहीं करना चाहिए । अपना अपमान करने या कटु वचन बोलनेवाले पर भूलकर भी क्रोध नहीं करें । सन्तोष का फल सर्वदा मधुर होता है । मन में दया रखनी चाहिए ।

व्रत खोलने की विधि :
व्रत को खोलते समय  सेवापूजा की जगह पर बैठकर भुने हुए सात चनों के चौदह टुकड़े करके अपने सिर के पीछे फेंकना चाहिए । ‘मेरे सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हुए’ – यह भावना करके सात अंजलि जल पीना और चने के सात दाने खाकर व्रत खोलना चाहिए । व्रत के दिन ब्राह्मणों को मिष्टान्न, दक्षिणादि से प्रसन्न कर उनकी परिक्रमा कर लेनी चाहिए । इस विधि से व्रत करनेवाला उत्तम फल को प्राप्त करता है ।

SHIV-GEETA शिव गीता

शिव गीता


 शिवजी द्वारा श्री रामचंद्र जी को शिव गीता का उपदेश 
श्रीरामचन्द्र बोले - हे भगवन् ! आपने मोक्षमार्ग सम्पूर्ण वर्णन किया अब इसका अधिकारि कहिये । इसमें मुझको बड़ा संदेह है । आप विस्तारपूर्वक वर्णन किजिये ॥१॥

श्रीभगवानुवाच ।

श्रीभगवान बोले - हे राम! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, ब्रह्मचारी, गृहस्थ तथा बिना यज्ञोपवीत हुआ ब्राह्मण ॥२॥

वानप्रस्थ, जिसकी स्त्री मृतक होगई हो, संन्यासी, पाशुपत व्रत करनेहारे इसके अधिकारी है और बहुत कहने से क्या है जिसके अन्तःकरणमें शिवजीके पूजनकी प्रबल भक्ति हो ॥३॥

वही इसमें अधिकारी है और जिसका चित्त दूसरी ओर लगा हुआ है वह इसमें अधिकारी नही तथा मुर्ख अंधे बहरे मूक शौचाचाररहित, स्नान संध्यादि विहित कर्मोंसे रहित ॥४॥

अज्ञोंका उपहास करनेवाले, भक्तिहीन, विभूति रुद्राक्षधारी, पाशुपतव्रतवालोंसे द्वेष करनेवाले चिह्नधारी इनमेंसे किसीकाभी इस शास्त्रमें अधिकार नही है ॥५॥

जो मुझसे ब्रह्मके उपदेश करनेवाले गुरुसे पाशुपतके व्रत धारण करनेवालोंसे वा विष्णुसे द्वेष करता है, उसका करोड जन्ममें भी उद्धार नही होता, आज कलके उन पुरुषोंको इस श्लोकके ऊपर विचार करना चाहिये, जो अज्ञानवश एक दुसरेसे द्रोह करते है । वह सब एकही रूप है । शिव तथा विष्णुमें कोइ भी भेद नही है, भेद माननेवालोंकी गति नही होती इसमें प्रमाण (स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेंद्रः सोअक्षरः परमः स्वराट्‌) अर्थात वही परमात्मा शिव हरि इन्द्र अक्षर परम स्वराट है (एक रूपं बहुधा यः करोति) वही एक अनेक रूपको धारण करता है और चाहे अनेक प्रकारके यज्ञादिककर्ममें तत्पर हो, और शिवज्ञानसे रहित हो तो शिवकी भक्ति न होनेका कारण वह संसारसे मुक्त नही होता ॥६॥७॥

जो वेदबाह्य धर्मोमें केवल फलकी इच्छा करके आसक्त होते है, उन्हे केवल दृष्टमात्र फलकी प्राप्ति होती है वे मोक्ष शास्त्रके अधिकारी नही है ॥८॥

काशी, द्वारका, श्रीशैल पर्वत, व्याघ्रपुर, इन क्षेत्रोंमे शरीर त्यागनेसे इस पुरुषको मेरी कृपासे तारक ब्रह्मकी प्राप्ति होती है ॥९॥

जिसके हाथ पैर और सम्पूर्ण इन्द्रिय, तथा मन वशमें है विद्या तप और कीर्ति विद्यमान है, वही तीर्थका फल प्राप्त करते है विकारी मनवाले तीर्थका फल प्राप्त नही कर सकते ॥१०॥

जिस ब्राह्मणका यज्ञोपवीत नही हुआ है उसे अधिकार है परन्तु वह वेदका उच्चारण नही कर सकता केवल माता पिताके श्राद्धकर्ममें उच्चारण कर सकता है ॥११॥

जबतक ब्राह्मणका उपनयन नही होता, तबतक वह शूद्रकी ही समान है, नाम संकीर्तन और ध्यानमें तो सब ही अधिकारी है ॥१२॥

शिवजीमीं तादात्म्य ध्यानसे अर्थात (शिवोऽहं इस प्रकार अन्तःकरनकी एक वृत्ति करनेसे यह प्राणी संसारके पार हो जाता है जिस प्रकार ध्यान तप वेदाध्ययन तथा दूसरे कर्म है यह ध्यान करनेके सहस्त्र भागकी भी तो समान नही हो सकते ॥१३॥

जाति, आश्रम, अंग, देश, काल किंवा आसनादि साधन, यह कोईभी ध्यानयोगकी समान नही है ॥१४॥

चलते फिरते बैठते उठते बोलते शयन करते, अथवा दूसरे कार्योमें भी युक्त हो, और उनके अनेक पातकोंसे युक्त हो, वह भी ध्यान करनेसे मुक्त होजाता है ॥१५॥

इस ध्यानयोगके करनेसे नाश नही होता, नित्यनैमित्तिक कर्मकी समान इसमें प्रत्यवाय नही है, यह थोडासा अनुष्ठान क्रियाभी प्राणीको महाभयसे रक्षा करता है ॥१६॥

अतिआश्चर्य अथवा भय और शोक प्राप्त हुआ हो वा छींकने अथवा और कोई रोगमें जो किस बहानेसेभी मेरा उच्चारण करता है वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है ॥१७॥

महापापीभी यदि देहान्तमें मेरा स्मरण करे तो (नमः शिवाय) इस पंचाक्षरी विद्याका उच्चारण करे तो निःसंदेह उसकी मुक्ती हो जाती है ॥१८॥

जो अपने आत्मासे ही आत्माको देखते सब संसारको शिवरूप देखते है उनको क्षेत्र तीर्थ वा दूसरे कर्मोके करनेसे क्या लाभ है उन्हे करनेकी आवश्यकता नही ॥१९॥

विभूति और रुद्राक्ष सदा सबको धारण करना चाहिये, शिवभक्ति करनेवाले योगी हो अथवा न हो सब रुद्राक्ष धारण करे जिन्हे शिवभक्ति प्राप्त होनेकी इच्छा हो ॥२०॥

जो अग्निहोत्रकी भस्म और रुद्राक्षको धारण करता है, वह महापापी होगा तौ भी निःसन्देह मुक्त हो जायेगा ॥२१॥

और शिव उपासनाके कर्म करै अथवा न करै जो केवल शिवका नामभी जपता है वह सदा मुक्तस्वरूप है ॥२२॥

अन्तकालमें जो रुद्राक्ष और विभूतिको धारण करता है, उसे चाहे महापाप भी लगे हो नरोंमे नीचभी हो किसी प्रकारसे भी यमके दूत उसे स्पर्श करनेको समर्थ नही होते ॥२३॥२४॥

जो कोई बेलवृक्षके जडकी मिट्टी शरीरमें लगाता है उसके निकट यमदूत किसी प्रकार से नही आ सकते ॥२५॥

श्रीराम उवाच ।

श्रीरामचन्द्र बोले- हे भगवन् किन मूर्तियोंमें पूजन करनेसे आप प्रसन्न होते हो, यह जाननेकी मुझे बड़ी इच्छा है, सो आप कृपाकर कहिये ॥२६॥

श्रीभगवान बोले - मृत्तिका, गोबर, भस्म, चंदन, वालुका, काष्ठ, पाषाण, लोहखण्ड, केशरादि रंग, कांसी ,खर्पर (जस्त) पीतल ॥२७॥

तांबा, रुपा, सुवर्ण, अथवा अनेक प्रकारके रत्न पारा अथवा कपूर ॥२८॥

इनमें जो अपनेको प्राप्त हो सके और जो इष्ट हो उससे शिवलिंगकी मूर्ति निर्माण करे, इस प्रकार प्रीतिसे मेरी उपासना करे तो कोटिगुणा फल होता है ॥२९॥

गृहस्थी पुरुशोंको उचित है कि, मृत्तिका काष्ठ लोह कांसी अथवा पाषाणकी प्रतिमा करे, उसमें पूजन करनेसे गृहस्थियोंको सदा आनंद की प्राप्ति होती है ॥३०॥

मृत्तिकाकी प्रतिमा पूजन करनेसे आयु, काष्ठकी प्रतिमा पूजन करनेसे सम्पत्ति, कांस्यकी पूजन करनेसे कुलवृद्धि, लोहकी प्रतिमा पूजन करनेसे धर्मबुद्धि, पाषाणकी प्रतिमा पूजन करनेसे पुत्र प्राप्ति क्रमसे होती है, बिल्ववृक्षके नीचे अथवा उसके फलमें जो मेरी आराधना करता है ॥३१॥

इस लोकमें महालक्ष्मीको प्राप्त होकर अन्तमें शिवलोकको प्राप्त होता है और बिल्ववृक्षके नीचे बैठकर जो विधिपूर्वक मंत्रो को जपे ॥३२॥

तो एकही दिनमे उस जप करनेवालेको पुरश्चरणका फल मिलता है, और जो मनुष्य बेलके वनमें कुटी बनाकर नित्य प्रति निवास करे ॥३३॥

उसके जपमात्रसे ही सब मंत्र सिद्ध हो जाते है, पर्वत के ऊपर नदी के किनारे, बिल्वके नीचे शिवालयमे ॥३४॥

अग्निहोत्रकी शालामें विष्णुके मंदिरमें जो मंत्रका जप करता है, दानव यक्ष राक्षस इसके जपमें विघ्न नही कर सकते ॥३५॥

उसे कोई पास स्पर्श नई कर सकता, वह शिवके सायुज्य लोकको प्राप्त होता है, पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश ॥३६॥

पर्वत किम्वा अपनी आत्माहीमें जो मनुष्य मेरा पूजन करता है, एक लवमात्रकी पूजा करनेसे उसे सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है ॥३७॥

हे राम अपने आत्मामें जो पूजन करता है, उसकी बराबरी दूसरी पूजा नही आत्मामें पूजन करनेहारा चाण्डालभी मेरे लोकको प्राप्त होता है । सम्पूर्ण शुभकर्म आत्माहीको अर्पण करना, उसी का विचार करना, पापाचरण न करना, यही आत्माकी पूजा है ॥३८॥

ऊर्णावस्त्रके आसनपर पूजा करनेसे मनुष्यको सब कामनाकी प्राप्ति हो जाती है, मृगचर्मके आसनपर पूजा करनेसे मुक्ति और व्याघ्रचर्मपर पूजा करनेसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥३९॥

कुशासनपर बैठकर पूजा करनेसे ज्ञान, पत्रके आसनपर आरोग्यता, पाषाणके आसनपर दुःख और काश्ठके आसनपर पूजा करनेसे अनेक प्रकारके रोग होते है ॥४०॥

वस्त्रपे बैठनेसे लक्ष्मी प्राप्ति और पृथ्वीपर बैठकर जपनेसे मंत्र सिद्ध नही होता, उत्तर वा पूर्वको मुखकर जप और पूजाका प्रारम्भ करना उचित है ॥४१॥

हे रामचन्द्र! सावधान होकर सुनो, अब मालाकी विधि कहता हूँ, स्फटिककी मालासे साम्राज्य प्राप्त होता है पुत्रजीव जियापोतेकी मालासे अत्यन्त धनकी प्राप्ति होती है ॥४२॥

कुशकी ग्रन्थिकी मालासे आत्मज्ञान और रुद्राक्षकी मालासे सम्पूर्ण कार्योकी सिद्धि होती है, प्रवाल (मूंगा) की मालासे सब लोकके वश करने को सामर्थ्य होती है ॥४३॥

आमलेके फलोंकी माला मोक्षकी देनेवाली है, मोतियोंकी माला सम्पूर्ण विद्याओंकी देनेहारी है ॥४४॥

माणिक्यकी माला त्रिलोकीकी स्त्रियोंको वश करनेहारी है नील मरकत मणिकी माला शत्रु को भय देती है ॥४५॥

सोनेकी बनी माला बड़ी शोभाको तथा लक्ष्मीको देती है, चांदीकी मालासे मनेच्छित कन्या प्राप्त होती है ॥४६॥

और एक पारेकी माला जो औषधिद्वारा बनती है, वह सम्पूर्णही कामनाको प्राप्त करती है एक सौ आठ १०८ मणियोंकी माला सबसे उत्तम होती है ॥४७॥

सौ दानेकी उत्तम, पचास दानेकी मध्यम, अथवा ५७ दानेकी भी मध्यम है और सत्ताईस दानेकी माला अधम कहाती है ॥४८॥

पच्चीस दानोंकी भी अधम होती है,जो सौ दानोंकी माला हो तो पचास अक्षर (अ) से (ल) तक उलटे सीधे क्रमसे हो सकते है, अर्थात मेरुतक एकबार गिन सकता है ॥४९॥

इस प्रकारसे स्पष्ट स्थापन करे, और किसीको माला न दिखावे गुप्त जपे ॥५०॥

जो अक्षरोंकी कल्पना करके मालाद्वारा जप किया जाता है, वर्णविन्यास (कल्पना) से एकही बारमें उसका पुरश्चरण हो जाता है ॥५१॥

बायां चरण गुदस्थानपर रक्खे अर्थात एडी लगावे और दाहिना चरण उपस्थके ऊपर रखकर बैठे, यह उत्तम और अतिश्रेष्ठ योनिबंध आसन कहाता है ॥५२॥

जो योनिमुद्राके आसनसे बैठकर सावधान हो जप करता है कोई मंत्र हो अवश्य सिद्धिकी प्राप्ति हो जाती है ॥५३॥

छिन्न, रुद्र, स्तंभित, मिलित, मूर्च्छित, सुप्त, मत्त, हीनवीर्य, दग्ध, त्रस्त, शत्रुपक्षके जाननेवाले यह मंत्र शास्त्रमें मंत्रोके प्रकार लिखे है उनमें इनके लक्षण लिखे है कि इस प्रकारका मंत्र ऐसा होता है ॥५४॥

तथा बालक, यौवन, वृद्ध, मत्त इत्यादि किसी प्रकारका भी दूषित मंत्र क्यो न हो योनिमुद्राके आसनसे जप करे तो सिद्ध हो जाता है ॥५५॥

इसी मुद्रासे वे मंत्र सिद्ध होते है दूसरे प्रकारसे नही होते उस कालसे लेकर मध्याह्न कालतक मंत्रका जप करना कहा है, इससे उपरान्त जपे तो कर्ताका नाश होता है यह सम्पूर्ण काम्यफलोंके पुरश्चरणकी विधि है ॥५६॥५७॥

नित्य नैमित्तिक तपश्चर्याका नियम नही है, चाहे जबतक जितनी इच्छा हो जप करता रहे, उसमे कुछ दोष नही होता ॥५८॥

जो मेरी मूर्तिका ध्यान करता हुआ निष्काम बुद्धिसे रुद्रजप अथवा षडक्षर मंत्र ॐकार सहित जितेन्द्रिय होकर जपता (ॐ नमः शिवाय) यह षडक्षर मंत्र है ॥५९॥

हे राम! अथवा अथर्वशीर्ष वा कैवल्य उपनिषदके जो मन्त्र जपता है वह उसी देहसे स्वयं शिव हो जाता है अर्थात् सायुज्य मुक्तिको प्राप्त होता है ॥६०॥

जो नित्यप्रति शिवगीताको पढता और नित्य जप करता वा श्रवण करता है वह निःसन्देह संसारसे मुक्त हो जाता है ॥६१॥

सूत उवाच ।

सूतजी बोले, हे शौनकादि ऋषियो ! भगवान् शिवजी रामचन्द्रजीसे इस प्रकार उपदेश कर वहां ही अन्तर्धान होगये और आत्मज्ञानके प्राप्त होनेसे रामचन्द्रनेभी अपनेको कृतार्थ माना ॥६२॥

और एकाग्र चित्तसे ध्यान करते है उनके हाथमें मुक्ति स्थित रहती है, इस कारण हे मुनियो! नित्य प्रति सावधान होकर शिवगीताको सुनो ॥६४॥

अनायास मुक्ति हो जायगी इसमें कुछ भी संदेह नही, इसमें शरीरको क्लेश नही, मानसिक क्लेश नही, धनका व्यय नही ॥६५॥

न और किसी प्रकारकी पीडा है, केवल श्रवणसे ही मुक्ति हो जाती है, हे ऋषियो! इस कारण तुम नित्यप्रति शिवगीताका श्रवण करो ॥६६॥

ऋषय ऊचुः ।

ऋषि बोले, हे सूतजी! आजसे तुम्ही हमारे आचार्य पिता और गुरु हो जो कि, आपने हमको अविद्याके पार तार दिया ॥६७॥

जन्म देनेवालेसे ब्रह्मज्ञान देनेवालेको गौरव अधिक है इसकारण हे सूत! सत्यही तुमसे अधिक कोई दूसरा गुरु हमारा नही है ॥६८॥

व्यासजी बोले - ऐसा कहकर सम्पूर्ण ऋषि सायंसंध्या करनेके निमित्त गये, और सूतपुत्रकी बडाई करते गोमती नदीके समीप ध्यान करने लगे शिवपरायण हुए ॥६९॥

इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायायोगशास्त्रे शिवराघवसंवादे गीताधिकारनिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६

एकादशी का माहात्मय

एकादशी  का माहात्मय


सब धर्मों के ज्ञाता, वेद और शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत, सबके हृदय में रमण करनेवाले श्रीविष्णु के तत्त्व को जाननेवाले तथा भगवत्परायण प्रह्लादजी जब सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उस समय उनके समीप स्वधर्म का पालन करनेवाले महर्षि कुछ पूछने के लिए आये ।
महर्षियों ने कहा : प्रह्रादजी ! आप कोई ऐसा साधन बताइये, जिससे ज्ञान, ध्यान और इन्द्रियनिग्रह के बिना ही अनायास भगवान विष्णु का परम पद प्राप्त हो जाता है ।
उनके ऐसा कहने पर संपूर्ण लोकों के हित के लिए उद्यत रहनेवाले विष्णुभक्त महाभाग प्रह्रादजी ने संक्षेप में इस प्रकार कहा : महर्षियों ! जो अठारह पुराणों का सार से भी सारतर तत्त्व है, जिसे कार्तिकेयजी के पूछने पर भगवान शंकर ने उन्हें बताया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनिये ।
महादेवजी कार्तिकेय से बोले : जो कलि में एकादशी की रात में जागरण करते समय वैष्णव शास्त्र का पाठ करता है, उसके कोटि जन्मों के किये हुए चार प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं । जो एकादशी के दिन वैष्णव शास्त्र का उपदेश करता है, उसे मेरा भक्त जानना चाहिए ।
जिसे एकादशी के जागरण में निद्रा नहीं आती तथा जो उत्साहपूर्वक नाचता और गाता है, वह मेरा विशेष भक्त है । मैं उसे उत्तम ज्ञान देता हूँ और भगवान विष्णु मोक्ष प्रदान करते हैं । अत: मेरे भक्त को विशेष रुप से जागरण करना चाहिए । जो भगवान विष्णु से वैर करते हैं, उन्हें पाखण्डी जानना चाहिए । जो एकादशी को जागरण करते और गाते हैं, उन्हें आधे निमेष में अग्निष्टोम तथा अतिरात्र यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है । जो रात्रि जागरण में बारंबार भगवान विष्णु के मुखारविंद का दर्शन करते हैं, उनको भी वही फल प्राप्त होता है । जो मानव द्वादशी तिथि को भगवान विष्णु के आगे जागरण करते हैं, वे यमराज के पाश से मुक्त हो जाते हैं ।
जो द्वादशी को जागरण करते समय गीता शास्त्र से मनोविनोद करते हैं, वे भी यमराज के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । जो प्राणत्याग हो जाने पर भी द्वादशी का जागरण नहीं छोड़ते, वे धन्य और पुण्यात्मा हैं । जिनके वंश के लोग एकादशी की रात में जागरण करते हैं, वे ही धन्य हैं । जिन्होंने एकादशी को जागरण किया हैं, उन्होंने यज्ञ, दान , गयाश्राद्ध और नित्य प्रयागस्नान कर लिया । उन्हें संन्यासियों का पुण्य भी मिल गया और उनके द्वारा इष्टापूर्त कर्मों का भी भलीभाँति पालन हो गया । षडानन ! भगवान विष्णु के भक्त जागरणसहित एकादशी व्रत करते हैं, इसलिए वे मुझे सदा ही विशेष प्रिय हैं । जिसने वर्द्धिनी एकादशी की रात में जागरण किया है, उसने पुन: प्राप्त होनेवाले शरीर को स्वयं ही भस्म कर दिया । जिसने त्रिस्पृशा एकादशी को रात में जागरण किया है, वह भगवान विष्णु के स्वरुप में लीन हो जाता है । जिसने हरिबोधिनी एकादशी की रात में जागरण किया है, उसके स्थूल सूक्ष्म सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । जो द्वादशी की रात में जागरण तथा ताल स्वर के साथ संगीत का आयोजन करता है, उसे महान पुण्य की प्राप्ति होती है । जो एकादशी के दिन ॠषियों द्वारा बनाये हुए दिव्य स्तोत्रों से, ॠग्वेद , यजुर्वेद तथा सामवेद के वैष्णव मन्त्रों से, संस्कृत और प्राकृत के अन्य स्तोत्रों से व गीत वाद्य आदि के द्वारा भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करता है उसे भगवान विष्णु भी परमानन्द प्रदान करते हैं ।
जो एकादशी की रात में भगवान विष्णु के आगे वैष्णव भक्तों के समीप गीता और विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, वह उस परम धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान नारायण विराजमान हैं ।
पुण्यमय भागवत तथा स्कन्दपुराण भगवान विष्णु को प्रिय हैं । मथुरा और व्रज में भगवान विष्णु के बालचरित्र का जो वर्णन किया गया है, उसे जो एकादशी की रात में भगवान केशव का पूजन करके पढ़ता है, उसका पुण्य कितना है, यह मैं भी नहीं जानता । कदाचित् भगवान विष्णु जानते हों । बेटा ! भगवान के समीप गीत, नृत्य तथा स्तोत्रपाठ आदि से जो फल होता है, वही कलि में श्रीहरि के समीप जागरण करते समय ‘विष्णुसहस्रनाम, गीता तथा श्रीमद्भागवत’ का पाठ करने से सहस्र गुना होकर मिलता है ।
जो श्रीहरि के समीप जागरण करते समय रात में दीपक जलाता है, उसका पुण्य सौ कल्पों में भी नष्ट नहीं होता । जो जागरणकाल में मंजरीसहित तुलसीदल से भक्तिपूर्वक श्रीहरि का पूजन करता है, उसका पुन: इस संसार में जन्म नहीं होता । स्नान, चन्दन , लेप, धूप, दीप, नैवेघ और ताम्बूल यह सब जागरणकाल में भगवान को समर्पित किया जाय तो उससे अक्षय पुण्य होता है । कार्तिकेय ! जो भक्त मेरा ध्यान करना चाहता है, वह एकादशी की रात्रि में श्रीहरि के समीप भक्तिपूर्वक जागरण करे । एकादशी के दिन जो लोग जागरण करते हैं उनके शरीर में इन्द्र आदि देवता आकर स्थित होते हैं । जो जागरणकाल में महाभारत का पाठ करते हैं, वे उस परम धाम में जाते हैं जहाँ संन्यासी महात्मा जाया करते हैं । जो उस समय श्रीरामचन्द्रजी का चरित्र, दशकण्ठ वध पढ़ते हैं वे योगवेत्ताओं की गति को प्राप्त होते हैं ।
जिन्होंने श्रीहरि के समीप जागरण किया है, उन्होंने चारों वेदों का स्वाध्याय, देवताओं का पूजन, यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब तीर्थों में स्नान कर लिया । श्रीकृष्ण से बढ़कर कोई देवता नहीं है और एकादशी व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है । जहाँ भागवत शास्त्र है, भगवान विष्णु के लिए जहाँ जागरण किया जाता है और जहाँ शालग्राम शिला स्थित होती है, वहाँ साक्षात् भगवान विष्णु उपस्थित होते हैं ।


एकादशी व्रत के नियम

श्री सनातन जी कहते हैं :-
इस प्रकार कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष में एकादशी का व्रत मोक्षदायक बताया गया है । एकादशी व्रत तीन दिन में साध्य होने वाला बताया गया है । यह सब व्रतों में उत्तम और पापों का नाशक है अतः इसका महान फल जानना चाहिए । नारद ! दोनों पक्षों की एकादशी को मनुष्य निराहार रहे और एकाग्रचित हो नाना प्रकार के पुष्पों  से शुभ एवं विचित्र मंडप बनावे । फिर शास्त्रोक्त विधि से भलीभांति स्नान करके उपवास और इन्द्रिय संयम पूर्वक श्रद्धा और एकाग्रता के साथ नाना प्रकार के पूजन, उपचार, जप, होम, प्रदक्षिणा, स्त्रोत पाठ , दण्डवत  प्रणाम तथा मन को प्रिय लगने वाले जय जैकार के शब्दों से विधिवत श्री विष्णु की पूजा करे तथा रात्री जागरण करे ऐसा करने से मनुष्य विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है एकादसी को उपवास करके श्रेष्ठ मनुष्य तीन दिन के लिए आगे बताये जाने वाले सभी नियमों का पालन करके द्वादशी को भक्तिपूर्वक सनातन वासुदेव की षोडशोपचार से पूजा करे तदनन्तर ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे और उन्हें विदा करने के पश्चात स्वयं भोजन करे ।

इन तीन दिनों में चार समय का भोजन त्याग देना चाहिए । प्रथम और अंतिम दिन में एक एक बार का और बीच के दिन(एकादशी) दोनों समय का भोजन त्याज्य है । अब मैं तुम्हे इन तीन दिन के व्रत में पालन करने योग्य नियम बताता हूँ । काँसे के बर्तन, मांस, मसूर, चना, कोदो (एक प्रकार का धान), शाक, शहद,पराया अन्न, पुनर्भोजन (दो बार भोजन), मैथुन  -दशमी के दिन इन दस वस्तुओं से  वैष्णव पुरुष दूर  रहे । जुआ, निद्रा, पान, दातुन, परायी निन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा झूठ- एकादशी को यह ग्यारह बातें न करे । काँसे के बर्तन, मांस,मदिरा, शहद,तेल,झूट बोलना,व्यायाम करना,परदेस में जाना , पुनर्भोजन (दो बार भोजन), मैथुन, जो स्पर्श योग्य नहीं हैं उनका स्पर्श  एवं  मसूर   -द्वादशी को इन बारह वस्तुओं को न करे ।

विप्रवर इस प्रकार नियम करने वाला पुरुष यदि शक्ति हो तो उपवास करे । यदि शक्ति न हो तो बुद्धिमान पुरुष एक समय भोजन करके रहे, किन्तु रात में भोजन न करे । अथवा अयाचित वस्तु (बिना मांगे मिले हुई वस्तु )- का उपयोग करे । किन्तु ऐसे महत्वपूर्ण व्रत का त्याग न करे ।।

इस विधि से व्रत करनेवाला उत्तम फल को प्राप्त करता है ।

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