शिव की महिमा उनके नामों में छिपी है:
शिव शब्द की व्युत्पत्ति है-श्ति+पापम्-शो+वन् अर्थात् शिव वह है,जो पाप नष्ट करता है। अत: शिव मंगल, शुभ तथा सौभाग्यसूचक देव हैं। शिव परम कारुणिक भी हैं और उनमें अनुग्रह, प्रसाद तथा तिरोभाव (गोपन) की क्रिया भी पाई जाती है। शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियां विभिन्न क्रियाओं को दर्शाती हैं। शिवपुराण में विश्व के निम्रलिखित पांच कार्य बताए गए हैं-
1. सृष्टि , 2. स्थिति , 3. नाश , 4. तिरोभाव , 5. मोक्ष।
इसलिए उन्हें ‘पंचमुख’ नाम दिया जाता है। उनका एक नाम ‘सदाशिव ’ है जो ब्रह्मा से सृष्टि से रचवाते हैं, विष्णु से उसका पालन करवाते हैं, रुद्र से उसका नाश करवाते हैं। ‘सदाशिव’ पुरानी सृष्टि के चिन्हों को मिटाकर स्वयं को मुक्त कर लेते हैं, फिर सम्पूर्ण प्रक्रिया को दोहराते हैं। इस प्रकार से त्रिमूर्ति के तीनों देव ‘शिव’ की अवधारणा में समाए हुए हैं, जिसे वेदों व पुराणों में भी ओम् (अ,उ,म्)इन तीन ध्वनियों के समूह से अभिव्यक्त किया गया है। कहने का भाव यही है कि तत्व: ब्रह्मा,विष्णु,महेश अलग-अलग नहीं हैं, एक ही सत्ता के विभिन्न कार्यों के प्रतीक हैं ऐसा भी नहीं होता कि ब्रह्मा का काम खत्म होता है, तब विष्णु का शुरू होता है अथवा विष्णु के कार्य के बाद महेश का विनाश-कर्म शुरू होता है। सच बात तो ये है कि ये तीनों प्रक्रियाएं विश्व में तथा व्यक्ति में निरन्तर चलती रहती हैं। शरीर के भीतर कोषों के चयापचयों की प्रक्रिया चलती रहती है, तो विश्वभर में सृजन- विध्वंस विभिन्न रूपों में चलता रहता है।
‘शिव’ अपने भक्तों का कल्याण करते हैं। वे आशुतोष हैं, जल्दी से प्रसन्न हो जाते है और वरदान देने में उदार हैं। संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान के मूल प्रवर्तक हैं शिव। वे विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक माने जाते हैं। नटराज के रूप में डमरू बजाते, नृत्य करते शिव के चित्र, मूर्तियां प्रसिद्ध ही हैं। उनके डमरू की ध्वनि से संस्कृत भाषा की ‘वर्णमाला’ जन्मीं। तभी उन नियमों की संज्ञा ‘माहेश्वर सूत्राणि’ है। वे नाट्यों की उत्पत्ति के कारण भी माने जाते हैं। 108 प्रकार के नाट्य जिनमें लास्य एवं तांडव दोनों सम्मिलित हैं-उनस ही उत्पन्न हुए हैं। ‘लास्य’ सृष्टि का नृत्य है, जो उल्लास को अभिव्यक्ति देता है। तांडव विध्वंस या प्रलय का नृत्य है।
भूतपति-सम्पूर्ण जीवधारियों के स्वामी के रूप में शिव ‘भूतपति’ , ‘भूतनाथ’ कहलाते हैं
पशुपति- सब प्राणधारियों के पति का प्रतीक नाम है।
उमापति- क्योंकि उमा उनकी पत्नि हैं तो माया उनकी अनन्त शक्ति है।
महादेव- सभी देवों में श्रेष्ठ होने के कारण महादेव कहलाते हैं।
योगिराज- योग के संस्थापक होने के कारण योगिराज नाम पडा।
जगद्गुरू- संसार के सभी गुरुओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
लिंगराज- अमूर्त रूप लिंग है जो प्रतीक है उनके निश्चल ज्ञान और तेज का।
अद्र्धनारीश्वर- सम्पूर्ण विश्व में दाम्पत्य सम्बन्धों की सुन्दर कल्पना कहीं देखने को मिलती। अद्र्धनारीश्वर विग्रह में आधा शरीर पुरुष एवं आधा स्त्री का होने के कारण अद्र्धनारीश्वर नाम का सम्बोधन मिला।
शिव शब्द की व्युत्पत्ति है-श्ति+पापम्-शो+वन् अर्थात् शिव वह है,जो पाप नष्ट करता है। अत: शिव मंगल, शुभ तथा सौभाग्यसूचक देव हैं। शिव परम कारुणिक भी हैं और उनमें अनुग्रह, प्रसाद तथा तिरोभाव (गोपन) की क्रिया भी पाई जाती है। शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियां विभिन्न क्रियाओं को दर्शाती हैं। शिवपुराण में विश्व के निम्रलिखित पांच कार्य बताए गए हैं-
1. सृष्टि , 2. स्थिति , 3. नाश , 4. तिरोभाव , 5. मोक्ष।
इसलिए उन्हें ‘पंचमुख’ नाम दिया जाता है। उनका एक नाम ‘सदाशिव ’ है जो ब्रह्मा से सृष्टि से रचवाते हैं, विष्णु से उसका पालन करवाते हैं, रुद्र से उसका नाश करवाते हैं। ‘सदाशिव’ पुरानी सृष्टि के चिन्हों को मिटाकर स्वयं को मुक्त कर लेते हैं, फिर सम्पूर्ण प्रक्रिया को दोहराते हैं। इस प्रकार से त्रिमूर्ति के तीनों देव ‘शिव’ की अवधारणा में समाए हुए हैं, जिसे वेदों व पुराणों में भी ओम् (अ,उ,म्)इन तीन ध्वनियों के समूह से अभिव्यक्त किया गया है। कहने का भाव यही है कि तत्व: ब्रह्मा,विष्णु,महेश अलग-अलग नहीं हैं, एक ही सत्ता के विभिन्न कार्यों के प्रतीक हैं ऐसा भी नहीं होता कि ब्रह्मा का काम खत्म होता है, तब विष्णु का शुरू होता है अथवा विष्णु के कार्य के बाद महेश का विनाश-कर्म शुरू होता है। सच बात तो ये है कि ये तीनों प्रक्रियाएं विश्व में तथा व्यक्ति में निरन्तर चलती रहती हैं। शरीर के भीतर कोषों के चयापचयों की प्रक्रिया चलती रहती है, तो विश्वभर में सृजन- विध्वंस विभिन्न रूपों में चलता रहता है।
‘शिव’ अपने भक्तों का कल्याण करते हैं। वे आशुतोष हैं, जल्दी से प्रसन्न हो जाते है और वरदान देने में उदार हैं। संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान के मूल प्रवर्तक हैं शिव। वे विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक माने जाते हैं। नटराज के रूप में डमरू बजाते, नृत्य करते शिव के चित्र, मूर्तियां प्रसिद्ध ही हैं। उनके डमरू की ध्वनि से संस्कृत भाषा की ‘वर्णमाला’ जन्मीं। तभी उन नियमों की संज्ञा ‘माहेश्वर सूत्राणि’ है। वे नाट्यों की उत्पत्ति के कारण भी माने जाते हैं। 108 प्रकार के नाट्य जिनमें लास्य एवं तांडव दोनों सम्मिलित हैं-उनस ही उत्पन्न हुए हैं। ‘लास्य’ सृष्टि का नृत्य है, जो उल्लास को अभिव्यक्ति देता है। तांडव विध्वंस या प्रलय का नृत्य है।
भूतपति-सम्पूर्ण जीवधारियों के स्वामी के रूप में शिव ‘भूतपति’ , ‘भूतनाथ’ कहलाते हैं
पशुपति- सब प्राणधारियों के पति का प्रतीक नाम है।
उमापति- क्योंकि उमा उनकी पत्नि हैं तो माया उनकी अनन्त शक्ति है।
महादेव- सभी देवों में श्रेष्ठ होने के कारण महादेव कहलाते हैं।
योगिराज- योग के संस्थापक होने के कारण योगिराज नाम पडा।
जगद्गुरू- संसार के सभी गुरुओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
लिंगराज- अमूर्त रूप लिंग है जो प्रतीक है उनके निश्चल ज्ञान और तेज का।
अद्र्धनारीश्वर- सम्पूर्ण विश्व में दाम्पत्य सम्बन्धों की सुन्दर कल्पना कहीं देखने को मिलती। अद्र्धनारीश्वर विग्रह में आधा शरीर पुरुष एवं आधा स्त्री का होने के कारण अद्र्धनारीश्वर नाम का सम्बोधन मिला।
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