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भगवान् शिवजी

भगवान् शिवजी पंचदेवों में प्रधान, अनादि सिद्ध परमेश्वर, एवम् निगमागम सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं, वेदों ने अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्वपंच का स्रष्टा, पालक एवम् संहारक कहकर उनका गुणगान किया है, श्रुतियों ने सदा शिवजी को स्वयम्भू, शान्त, प्रपंचातीत, परात्पर, परमतत्त्व, ईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है, शिव का अर्थ ही है- "कल्याणस्वरूप" और "कल्याणप्रदाता" भगवान् शिवजी देवों के भी देव हैं।

भगवान् शिवजी वैसे तो परिवार के देवता कहे गयें है, लेकिन फिर भी श्मशान में निवास करते हैं, भगवान् शिवजी के सांसारिक होते हुए भी श्मशान में निवास करने के पीछे जीवन मंत्र का एक गूढ़ सूत्र छिपा है, संसार मोह-माया का प्रतीक है जबकि श्मशान वैराग्य का, भगवान् शिवजी कहते हैं कि संसार में रहते हुये अपने कर्तव्य पूरे करो, लेकिन मोह-माया से दूर रहो।

क्योंकि ये संसार तो नश्वर है, एक न एक दिन ये सबकुछ नष्ट होने वाला है, इसलिये संसार में रहते हुए भी किसी से मोह मत रखो और अपने कर्तव्य पूरे करते हुए वैरागी की तरह आचरण करो, शिवजी को संहार का देवता कहा गया है, अर्थात जब मनुष्य अपनी सभी मर्यादाओं को तोड़ने लगता है तब शिवजी उसका संहार कर देते हैं, जिन्हें अपने पाप कर्मों का फल भोगना बचा रहता है वे ही प्रेतयोनि को प्राप्त होते हैं।

चूंकि शिवजी संहार के देवता हैं, इसलिये इनको दंड भी वे ही देते हैं, इसलिये शिवजी को भूत-प्रेतों का देवता भी कहा जाता है, दरअसल यह जो भूत-प्रेत है वह कुछ और नहीं बल्कि सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है, भगवान् शिवजी का यह संदेश है कि हर तरह के जीव जिससे सब घृणा करते हैं या भय करते हैं,  वे भी शिवजी के समीप पहुंच सकते हैं, केवल शर्त है कि वे अपना सर्वस्व भगवान् शिवजी को समर्पित कर दें।

भगवान् शिवजी जितने रहस्यमयी हैं, उनके वस्त्र व आभूषण भी उतने ही विचित्र हैं, सांसारिक लोग जिनसे दूर भागते हैं, भगवान् शिवजी उसे ही अपने साथ रखते हैं, भगवान शिवजी एकमात्र ऐसे देवता हैं जो गले में नाग धारण करते हैं, देखा जाए तो नाग बहुत ही खतरनाक प्राणी है, लेकिन वह बिना कारण किसी को नहीं काटता, नाग पारिस्थितिक तंत्र का महत्वपूर्ण जीव है, जाने-अंजाने में ये मनुष्यों की सहायता ही करता है।

कुछ लोग डर कर या अपने निजी स्वार्थ के लिए नागों को मार देते हैं, जीवन मंत्र के दृष्टिकोण से देखा जाये तो भगवान् शिवजी नाग को गले में धारण कर ये संदेश देते हैं, कि जीवन चक्र में हर प्राणी का अपना विशेष योगदान है, इसलिये बिना वजह किसी प्राणी की हत्या न करें, त्रिशूल भगवान् शिवजी का प्रमुख अस्त्र है, यदि त्रिशूल का प्रतीक चित्र देखें तो उसमें तीन नुकीले सिरे दिखते हैं, यूं तो यह अस्त्र संहार का प्रतीक है पर वास्तव में यह बहुत ही गूढ़ बात बताता है।

संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां होती हैं- सत, रज और तम, सत मतलब सात्विक, रज मतलब सांसारिक और तम मतलब तामसी अर्थात निशाचरी प्रवृति, हर मनुष्य में ये तीनों प्रवृत्तियां पायीं जाती हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी मात्रा में अंतर होता है, त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव यह संदेश देते हैं कि इन गुणों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो, यह त्रिशूल तभी उठाया जाये जब कोई मुश्किल आये, तभी इन तीन गुणों का आवश्यकता अनुसार उपयोग हो।

देवताओं और दानवों द्वारा किये गयें समुद्र मंथन से निकला विष भगवान् शंकरजी ने अपने कंठ में धारण किया था, विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुयें, समुद्र मंथन का अर्थ है? अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना, मन में असंख्य विचार और भावनाएं होती हैं, उन्हें मथ कर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना, हम जब अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही निकलेंगे।

यही विष हैं, विष बुराइयों का प्रतीक है, शिवजी ने उसे अपने कंठ में धारण किया, उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, शिव का विष पीना हमें यह संदेश देता है कि हमें बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिये, बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिये, शिवजी द्वारा विष पीना यह भी सीख देता है कि यदि कोई बुराई पैदा हो रही हो तो हम उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने दें।

भगवान् शंकरजी का वाहन नंदी यानी बैल है, बैल बहुत ही मेहनती जीव होता है, वह शक्तिशाली होने के बावजूद शान्त एवम भोला होता है, वैसे ही भगवान् शिवजी भी परमयोगी एवं शक्तिशाली होते हुये भी परम शान्त एवम् इतने भोले हैं कि उनका एक नाम भोलेनाथ भी जगत में प्रसिद्ध है, भगवान् शंकरजी ने जिस तरह कामदेव को भस्म कर उस पर विजय प्राप्त की थी, उसी तरह उनका वाहन भी कामी नही होता,उसका काम पर पुरा नियंत्रण  होता हैं

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