शुचिता
मन की शुचिता साधको एवं देवों की प्राथमिकता ही नहीं परम आवश्यकता भी है -शरीर एवं मन की शुचिता से, 1. एकाग्रता 2. ,इन्द्रियों पर नियंत्रण 3. एवं आत्म दर्शन जैसी मणियों की उपलब्धि होती है !
महऋषि पतंजलि के अष्टांग साधना मे " नियम " एक अंग है ! " शौच" इस साधना का प्रथम उपांग है !ऋषियों ने शौच की क्रिया साधकों के लिए शरीर एवं मन की शुद्धि एवं पवित्रता को बनाये रखने के उद्देश्य से हमारी दिनचर्या में निहित की है !
इसके निम्न लाभ है -------
1. शरीर एवं मन की शुद्धि
२. " एकाग्रता " प्राप्त करने हेतु अन्य विषयों से संपर्क समाप्त करना एवं भौतिक वस्तुओं से ध्यान हटाना
3. एक विषय के प्रति " संवेदनशील" एवं "गम्भीर" होने में शौच सहायक है !
4. अध्यात्म के प्रति रूचि एवं गंभीर होना
5. विचारों को संवेदी , शुद्धतम ,परिष्कृत एवं स्पष्ट बनांना
6. इन्द्रियों को वश में करना
7-- भौतिक वस्तुओं से ध्यान हटाना !
सोचत स्व-अंग जुगुप्सा परैः असंसर्गः 2,४० -- महऋषि पतंजलि
सत्त्व शुद्धि सौमनस्य एकाग्र इन्द्रिय-जाया आत्मा दर्शन योग्यत्वानि च !२.४१
महऋषि ने मनोविकारों की शुद्धि , मन की एकाग्रता एवं ईश्वर दर्शन के लिए शुचिता जैसे नियम के पालन का आदेश दिया है जो ब्रह्मचारियों , तपस्वियों अथवा विधार्थियों के लिए परम आवश्यक है ! इस प्रक्रिया को आरम्भ कर जीवन में अनेक सिद्धियां( सफलताएं) प्राप्त की जा सकती है !
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