माता सरस्वती

माता सरस्वती 


श्वेत पद्म पर आसीना, शुभ्र हंसवाहिनी, तुषार धवल कान्ति, शुभ्रवसना, स्फटिक माला धारिणी, वीणा मण्डित करा, श्रुति हस्ता वे भगवती भारती प्रसन्न हों, जिनकी कृपा मनुष्य में कला, विद्या, ज्ञान तथा प्रतिभा का प्रकाश करती है। वही समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री हैं। " यश" उन्हीं की धवल अंग ज्योत्स्ना है। वे "सत्त्वरूपा ", श्रुतिरूपा, आनन्दरूपा हैं। विश्व में सुख, सौन्दर्य का वही सृजन करती हैं।

सरस्वती देवी ,,,अनादि शक्ति भगवान ब्रह्मा के कार्य की सहयोगिनी हैं। उन्हीं की कृपा से प्राणी कार्य के लिये ज्ञान प्राप्त करता है।  वे हंसवाहिनी हैं। वे वीणा वादिनी है ! महाकवि कालिदास ने उन्हें प्रसन्न किया था। कहा जाता है की माता की प्रसनत्ता से ही सामान्य बुद्धि  कालिदास महाकवि बने थे !
प्रतिभा की उन अधिष्ठात्री के चरित तो सर्वत्र प्रत्यक्ष हैं। समस्त वाड्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा विज्ञान उन्हीं का वरदान है। मनुष्य उन जगन्माता की अहैतु की दया से प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग करके अपना नाश कर लेता है और उनको भी दुखी करता है। ज्ञान-प्रतिमा भगवती सरस्वती के वरदान का सदुपयोग है अपने ज्ञान, प्रतिभा और विचार को भगवान में लगा देना। वह वरदान सफल हो जाता है। मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। भगवती प्रसन्न होती हैं।

भगवती सरस्वती के दिव्य रूप को न समझकर उनके मंजु प्रकाश के क्षुद्रांश में भ्रमित  मनुष्य उस प्रकाश का दुरुपयोग करने लगा है। अतः  माता  के दिव्य रूप को इस प्रकार समझे ---
माता  का एक नाम " वाणी" है --- चूँकि माता सत्वरूपा है अतः वाणी की हिंसा यानि असत्य भाषण , गाली गलौज एवं अभद्र भाषा का प्रयोग माता की  अवमानना है ! माता प्रसन्न होती है तो अगले जन्मों में शिक्षा ,यश एवं विद्वत्ता  का वरदान देती है जबकि अप्रसन्न होने पर मानव इन सबसे हीं जानवर के समक्ष  ही रहता है !
माता सत्व रूपा है -- विद्या का दान अथवा दान देकर दूसरों को विद्या प्राप्ति में सहयोग करने से देविक कर्म संपन्न  होता है जो माता  के सत्वरूप के कारण प्रसन्नत्ता की अनुभूति बनता है और ऐसे व्यक्ति पर माता की कृपा शिक्षा के रूप में अवतरित होती  है !जबकि शिक्षा प्राप्ति को व्यवसाय  बनाने वाले एवं इसे महंगा करने वाले इस पुण्य से वंचित हो जाते है !
भगवती शारदा के मन्दिर हैं, उपासना-पद्धति है, उनकी उपासना से सिद्ध महाकवि एवं विद्वानों के जीवन में आनंद की प्राप्ति होती  हैं। यह सब होकर भी उनकी कृपा और उपासना का फल केवल यश नहीं। यश तो उनकी कृपा का उच्छिष्ट है। फल तो है परमतत्त्व को प्राप्त कर लेना। इसी फल के लिये श्रुतियाँ उन वाग्देवी की स्तुति करती हैं।

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