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राजा जनक

एक बार  राजा निमि ने यज्ञ के निमित्त वशिष्ठ जी का वरण किया तब वशिष्ठजी ने स्वीकारोक्ति देकर और यज्ञ को आरम्भ करा कर कहा कि इन्द्र ने मुझे पहले से वरण किया हुआ है । इसलिए इन्द्र का यज्ञ पूर्ण कराकर ही मै यहाँ आ सँकूगा , तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करना , और वे चले गये । तब बहुत समय बीतने पर निमि ने अन्य ऋत्विजो का वरण करते यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । जब इन्द्र का यज्ञ पूर्ण कराकर वशिष्ठजी वापस आये तो निमि का यज्ञ होता हुआ देखकर अत्यन्त क्रोधित होकर निमि को शाप दे दिया कि तू पाण्डित्य का बहुत गर्व करता है , तेरा शरीर गिर जाए । निमि ने भी वशिष्ठ जी को शाप दिया कि तुम भी धन के लोभ मेँ धर्म की चिन्ता नहीँ करते इसलिए तुम्हारा शरीर भी गिर जाय ।
निमि और वशिष्ठजी दोनो एक दूसरे को शाप देकर अपना शरीर छोड़ दिया । और वशिष्ठ को मित्रावरुण द्वारा उर्वशी के उदर जन्म लेना पड़ा ।
ऋत्विजोँ ने निमि के शरीर को सुगन्धित द्रव्योँ मे रखकर यज्ञ पूर्ण होने तक सुरक्षित रखा और यज्ञ मेँ आये हुए देवताओ से कहा कि यदि आप प्रसन्न है तथा आप मेँ शक्ति है तो राजा के शरीर को पुनर्जीवित कर देँ। देवताओ ने कहा ऐसा ही हो किन्तु राजा ने कहा कि मै शरीर के बन्धन मेँ नहीँ पड़ना चाहता क्योँकि उससे शोक और भय की प्राप्ति होती है । तब देवताओ ने कहा हे राजन , तुम देह धारण के बिना ही देहधारियोँ के नेत्रो पर अपनी इच्छानुसार निवास करोगे । उसके प्रभाव से पलकोँ के खुलने या मुँदने की क्रिया होगी ।।
 ऋषियो ने निमि के शरीर का मंथन कर एक बालक उत्पन्न किया । जो जन्म न लेने के कारण "जनक" और मृतक शरीर से उत्पन्न होने के कारण  "विदेह" देह के मन्थन से प्रकट होने के कारण "मिथिल" नाम से जाना गया ।।

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