बुधवार, 31 जनवरी 2018

बाबा गेपरनाथ

बाबा गेपरनाथ की महिमा
गेपरनाथ महादेव मन्दिर में शिवलिंग पर अपने आप जलाभिषेक होता है |
यहाँ जो भी बाबा का दर्शन करता है उसकी हर मनोकामना पूरी हो जाती है |
शिवरात्रि में जो बाबा का दर्शन करता है उसकी हर मनोकामना बाबा पूरी करते हैं |
कोटा से 22 किलोमीटर दूर चम्बल नदी पर
यह एक मनोरम स्थान है। चम्बल के किनारे नदी से कोई आधा से एक किलोमीटर दूर एक सड़क कोटा से रावतभाटा जाती है। रतकाँकरा गांव के पास इसी सड़क से कोई आधाकिलोमीटर चम्बल की ओर चलने पर यकायक गहराई में एक घाटी नजर आती है। जिस में तीन सौ फीट नीचे एक झरना, झरने के गिरने से बना प्राकृतिक कुंड है। वहीं एक प्राचीन शिव मंदिर है। बरसात में यह स्थान मनोरम हो उठता है और हर अवकाश के दिन वहाँ दिन भर कम से कम दो से तीन हजार लोग पिकनिक मनाने पहुँचते हैं। पानी कुंड से निकल कर चम्बल की और बहता है और बीच में तीन-चार झरने और बनाता है मगर वहाँ तक पहुँचना दुर्गम है। दुस्साहस कर के ही वहाँ जाया जा सकता है।
ऊपर भूमि से नीचे कुंड, झरने और मंदिर तक पहुँचने के लिए सीधे उतार पर तंग सीढ़ियाँ हैं चार-सौ के लगभग । हालांकि वहाँ नीचे रात रहने में खास परेशानी नहीं है यदि बरसात न हो वैसे बरसात नहीं के बराबर है। मगर हो गई तो सब को भीगना ही पड़ेगा। मंदिर में स्थान नहीं है। क्यों कि मंदिर पर भी लगातार पानी गिरता रहता है। सब के सब खुली चट्टानों पर हैं।

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

माँ सीता की रसोई और हनुमान जी का भोजन

घटना उस समय की है जब श्री राम और देवी सीता वनवास की अवधि पूरी करके अयोध्या लौट चुके हैं| अन्य सब लोग तो श्री राम के राज्याभिषेक के उपरांत अपने अपने राज्यों को लौट गए, किंतु हनुमान जी ने श्री राम प्रबु के चरणों में रहने को ही जीवन का लक्ष्य माना|

एक दिन देवी सीता के मन में आया कि हनुमान ने लंका में आकर मुझे खोज निकाला और फिर युद्ध में भी श्री राम को अनुपम सहायता की, अब भी अपने घर से दूर रह कर हमारी सेवा करते हैं, तो मुझे भी उनके सम्मान में कुछ करना चाहिए| यह विचार कर उन्होंने हनुमान को अपनी रसोई से भोजन के लिए आमंत्रित कर डाला| माँ स्बयम पका कर खिलाएँगी आज अपने पुत्र हनुमान को|

सुबह से माता रसोई में व्यस्त हैं| हर प्रकार से हनुमान जी की पसंद के भोजन पकाए जा रहे हैं| एक थाल में मोतीचूर के लड्डू सजे हैं, तो दुसरे में जलेबियाँ| पूड़ी और कचोरी और बूंदी भी पकाए जा रहे हैं| आज किसी को भोजन की आज्ञा नहीं जब तक कि हनुमान न खा लें| प्रभु राम, भरता लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न सभी प्रतीक्षा में हैं कि कब हनुमान भोजन के लिए आयें और कब हमारी भी पेट पूजा हो|

दोपहर हुई और  निमंत्रण के समय अन्य्सार पवनपुत्र का आगमन हुआ| बड़े शौक से आ कर माता की चरण वन्दना की और अनुमति पाकर आसन पर विराजे| माँ परोसने लगी और पुत्र खाने लगा| लायो माता लायो पूड़ी दो, कचोरी दो, लड्डू दो| हनुमान मांग मांग कर खा रहे हैं और माता रीझ कर खिला रही हैं| थाल के थाल सफाचट होते जा रहे हैं| पर हनुमान की तृप्ति नहीं हुई| माता ने जितना पकाया था सब समाप्त, किंतु अभी पेट कहाँ भरा लल्ला का?

माता सीता पुनः भागी रसोई की ओर, पुनः चूल्हा जलाया, पकाना आरम्भ किया, उधर हनुमान पुकार रहे हैं, माता बहुत स्वादिष्ट भोजन है, और दीजिये, अभी पेट नहीं भरा| माता पकाती जा रही हैं, हनुमान खाते जा रहे हैं| भण्डार का सारा अन्न समाप्त| माता पर धर्मसंकट आन पडा है, क्या करें? भागी गयीं श्री राम प्रभु से सहायता की गुहार करने| प्रभु आप ही कुछ कीजिये, और भंडार का प्रबंध कीजिये, ये हनुमान तो सब चट किये जा रहा है|

श्री राम सुन कर हंस दीये, बोले, सीते, तुमने मेरे भक्त को अब तक नहीं पहचाना| उसका पेट इन सबसे नहीं भरने वाला, उसे कुछ और चाहिए| देवी ने पूछा, क्या है वो वस्तु जो मेरे हनुमान लल्ला को तृप्ति देगी? रामजी बोले चलो मेरे संग, मंदिर में ले गए, वहां तुलसी माँ विराजित है| एक पत्ता हाथ में लिया, आँख बंद करके उसमें अपने स्नेह, अपने आशीष, अपनी कृपा का समावेश किया, और देवी को पकड़ा दिया, जायो देवी अपने पुत्र को संतुष्ट करो|

माता भी समझ चुकी अब तो अपने पुत्र की इच्छा को| सौम्य मुस्कान लिए लौटीं रसोई की और, बोलीं, पुत्र हाथ बढायो और वो ग्रहण करो जिसकी इच्छा मन में लिए तुम मेरा पूरा भण्डार निपटा गए| हनुमान जी ने हाथ बढाया और अभिमंत्रित तुलसीदल ग्रहण किया| मुंह में रखते ही चित्त प्रसन्न, और आत्मा तृप्त| आसन से उठ खड़े हुए, बोले माँ, आनंद आ गया| आपने पहले ही दे दिया होता तो इतना परिश्रम न करना पड़ता आपको|

माता हंस पडी, बोलीं, पुत्र तुम्हारी महिमा केवल तुम्हारे प्रभु जानते हैं| वो भगवान् और तुम उनके भक्त, मैं माता तो बीच में यूं ही आ गयी| हनुमान ने चरणों में प्रणाम किया, बोले, माँ आप बीच में हो तो ही प्रसाद मिला है आज मुझे, आपके श्री कर से| माता के नयनों में आनंद के अश्रु चमक आये, और मुख से अपार आशीष अपने हनुमान लल्ला के लिए|

क्या है ब्रह्मचर्य ?

 वेदव्यास जी ने कहा है:
ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः

ʹविषय-इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले सुख का संयमपूर्वक त्याग करना ब्रह्मचर्य है।ʹ

शक्ति, प्रभाव और सभी क्षेत्रों में सफलता की कुंजी – ब्रह्मचर्य

राजा जनक शुकदेव जी से बोलेः तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण वा विभो।

ʹबाल्यावस्था में विद्यार्थी को तपस्या, गुरु की सेवा, ब्रह्मचर्य का पालन एवं वेदाध्ययन करना चाहिए।ʹ (महाभारत, मोक्षधर्म पर्वः 326.15)

ब्रह्मचर्य का ऊँचे-में-ऊँचा अर्थ हैः ब्रह्म में विचरण करना। ʹजो मैं हूँ वही ब्रह्म है और जो ब्रह्म है वही मैं हूँ....ʹ ऐसा अनुभव जिसे हो जाये वही ब्रह्मचारी है।

ʹव्रतों में ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट है।ʹ (अथर्ववेद)

ʹअब्रह्मचर्य घोर प्रमादरूप पाप है।ʹ (दश वैकालिक सूत्रः 6.17)

अतः चलचित्र और विकारी वातावरण से अपने को बचायें। पितामह भीष्म, हनुमानजी और गणेशजी का चिंतन करने से रक्षण होता है।

"मैं विद्यार्थियों और युवकों से यही कहता हूँ कि वे ब्रह्मचर्य और बल की उपासना करें। बिना शक्ति व बुद्धि के, अधिकारों की रक्षा और प्राप्ति नहीं हो सकती। देश की स्वतंत्रता वीरों पर ही निर्भर है।" – लोकमान्य तिलक

 ◼ब्रह्मचर्य रक्षा का मंत्र◼

 ૐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाये मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा।

 रोज दूध में निहारकर 21 बार इस मंत्र का जप करें और दूध पी लें। इससे ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है।
*🌺जय राम जी की🌺*

सनातन धर्म के अकाट्य मन्त्र

1---अच्युताय नम:, अनन्ताय नम: गोविदाय नम:----इस मन्त्र का निरंतर जाप करने से हर प्रकार के रोगों का नाश होता है, तब तक रोगों से मुक्ति न मिले, श्रद्धा-पूर्वक जपना ही चाहिए l सतत जाप करने से असाध्य रोगों का भी नाश हो जाता है l
2---गच्छ गौतम शीघ्रं त्वं ग्रामेषु नगरेषु च l
   आसनं भोजनं यानं सर्वं मे परिकल्पय ll
इस मन्त्र का जाप करने से सभी तरह से साधन सुलभ होकर यात्रा सुखद होती है l
3---सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष l
जन्मेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर  ll
आस्तीकवचनं स्मृत्वा य: सर्पो न निवर्तते l
शतधा भिद्यते मूर्धीन शिंशपावृक्षको यथा ll
जब कभी सर्प दिखाई दे, उस समय इस मन्त्र को जोर-जोर से सर्प के सामने कहने से सर्प बिना किसीको काटे लौट जाता है l रात्री में सोते समय इस मन्त्र को कहा जा सकता है, वैसे इसे कंठस्थ कर लेना चाहिए l

लिङ्गाष्टकं

शिव मंत्र स्तुति
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ब्रह्ममुरारी सुरार्चित लिंगं, बुद्धी विवरधन कारण लिंगं।
संचित पाप विनाशन लिंगं, दिनकर कोटी प्रभाकर लिंगं।
तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।1।
देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करुणाकर लिङ्गम्। 
रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।2।

सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम्। 
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।3।
कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फनिपतिवेष्टित शोभित लिङ्गम्। 
दक्षसुयज्ञ विनाशन लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।4।

कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम्।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम।5।
देवगणार्चित सेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम्।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्।6।

अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम्। 
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्।7।
सुरगुरुसुरवरपूजित लिङ्गम् सुरवनपुष्प सदार्चित लिङ्गम्।
परात्परं परमात्मक लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।8।

लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ। 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।9।

ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! 
ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय !ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !

संतवाणी

परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही तो मानवजन्म मिला है,नहीं तो पशुमें और मनुष्यमें क्या फर्क हुआ ?

खादते मोदते नित्यं  शुनकः  शूकरः  खरः ।

तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी ॥

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सूकर कूकर ऊँट खर,   बड़  पशुअन  में चार ।

तुलसी हरि की भगति बिनु, ऐसे ही नर नार ॥

    (स्वामी रामसुखदास जी महाराज)

भगवान शिव के सामने ही क्यों होती हे नंदी की प्रतिमा?

पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की।
भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।"
भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहाँ पर नंदी का निवास होगा वहाँ उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है।
शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का प्रतीक है। नंदी का एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर होनी चाहिये। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी यह संकेत देता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही सामान्य भाषा में मन का स्वच्छ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाते हुए मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।
धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि जब शिव अवतार नंदी का रावण ने अपमान किया तो नंदी ने उसके सर्वनाश को घोषणा कर दी थी। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था तो वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर रुका था। वहाँ शिव के पार्षद नंदी के कुरूप स्वरूप को देखकर रावण ने उसका उपहास किया। नंदी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि मेरे जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हँस रहा है। उसी पशु स्वरूप के जीव तेरे विनाश का कारण बनेंगे।
नंदी का एक रूप सबको आनंदित करने वाला बी है। सबको आनंदित करने के कारण ही भगवान शिव के इस अवतार का नाम नंदी पड़ा। शास्त्रों में इसका उल्लेख इस प्रकार है-
त्वायाहं नंन्दितो यस्मान्नदीनान्म सुरेश्वर।
तस्मात् त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम।।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ६/४५

अर्थात नंदी के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद मुनि ने कहा तुमने प्रगट होकर मुझे आनंदित किया है। अत: मैं आनंदमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं।
नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी स्थल में गोदावरी तट के पास एक ऐसा शिवमंदिर है जिसमें नंदी नहीं है। अपनी तरह का यह एक अकेला शिवमंदिर है। पुराणों में कहा गया है कि कपालेश्वर महादेव मंदिर नामक इस स्थल पर किसी समय में भगवान शिवजी ने निवास किया था। यहाँ नंदी के अभाव की कहानी भी बड़ी रोचक है। यह उस समय की बात है जब ब्रह्मदेव के पाँच मुख थे। चार मुख वेदोच्चारण करते थे, और पाँचवाँ निंदा करता था। उस निंदा से संतप्त शिवजी ने उस मुख को काट डाला। इस घटना के कारण शिव जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। उस पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवजी ब्रह्मांड में हर जगह घूमे लेकिन उन्हें मुक्ति का उपाय नहीं मिला। एक दिन जब वे सोमेश्वर में बैठे थे, तब एक बछड़े द्वारा उन्हें इस पाप से मुक्ति का उपाय बताया गया। कथा में बताया गया है कि यह बछड़ा नंदी था। वह शिव जी के साथ गोदावरी के रामकुंड तक गया और कुंड में स्नान करने को कहा। स्नान के बाद शिव जी ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो सके। नंदी के कारण ही शिवजी की ब्रह्म हत्या से मुक्ति हुई थी। इसलिए उन्होंने नंदी को गुरु माना और अपने सामने बैठने को मना किया।
आज भी माना जाता है कि पुरातन काल में इस टेकरी पर शिवजी की पिंडी थी। अब तक वह एक विशाल मंदिर बन चुकी है। पेशवाओं के कार्यकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। मंदिर की सीढि़याँ उतरते ही सामने गोदावरी नदी बहती नजर आती है। उसी में प्रसिद्ध रामकुंड है। भगवान राम में इसी कुंड में अपने पिता राजा दशरथ के श्राद्ध किए थे। इसके अलावा इस परिसर में काफी मंदिर है। लेकिन इस मंदिर में आज तक कभी नंदी की स्थापना नहीं की गई।

भगवान राम का स्वलोक गमन

एक दिन राम सिंहासन पर विराजमान थे तभी उनकी अंगूठी गिर गई। गिरते ही वह भूमि के एक छेद में चली गई। हनुमान ने यह देखा तो उन्होंने लघु रूप धरा और उस छेद में से अंगूठी निकालने के लिए घुस गए। हनुमान तो ऐसे हैं कि वे किसी भी छिद्र में घुस सकते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो।
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छेद में चलते गए, लेकिन उसका कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा था तभी अचानक वे पाताल लोक में गिर पड़े। पाताल लोक की कई स्त्रियां कोलाहल करने लगीं- 'अरे, देखो-देखो, ऊपर से एक छोटा-सा बंदर गिरा है।' उन्होंने हनुमान को पकड़ा और एक थाली में सजा दिया।
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पाताल लोक में रहने वाले भूतों के राजा को जीव-जंतु खाना पसंद था इसलिए छोटे-से हनुमानजी को बंदर समझकर उनके भोजन की थाली में सजा दिया। थाली पर बैठे हनुमान पसोपेश में थे कि अब क्या करें।
उधर, रामजी हनुमानजी के छिद्र से बाहर निकलने का इंतजार कर रहे थे। तभी महर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे मिलने आए। उन्होंने राम से कहा- 'हम आपसे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बात सुने या उसमें बाधा डाले। क्या आपको यह स्वीकार है?'
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प्रभु श्रीराम ने कहा- 'स्वीकार है।'
इस पर ब्रह्माजी बोले, 'तो फिर एक नियम बनाएं। अगर हमारी वार्ता के समय कोई यहां आएगा तो उसका शिरोच्छेद कर दिया जाएगा।'

प्रभु श्रीराम ने कहा- 'जैसी आपकी इच्छा।'
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अब सवाल यह था कि सबसे विश्वसनीय द्वारपाल कौन होगा, जो किसी को भीतर न आने दे? हनुमानजी तो अंगूठी लेने गए थे। ऐसे में राम ने लक्ष्मण को बुलाया और कहा कि तुम जाओ और किसी को भी भीतर मत आने देना। लक्ष्मणजी को भली-भांति समझाकर राम ने द्वारपाल बना दिया।
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लक्ष्मण द्वार पर खड़े थे, तभी महर्षि विश्वामित्र वहां आए और कहने लगे- 'मुझे राम से शीघ्र मिलना अत्यावश्यक है। बताओ, वे कहां हैं?'
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लक्ष्मण ने कहा- 'आदरणीय ऋषिवर अभी अंदर न जाएं। वे कुछ और लोगों के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण वार्ता कर रहे हैं।'
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विश्‍वामित्र ने कहा- 'ऐसी कौन-सी बात है, जो राम मुझसे छुपाएं?'
विश्वामित्र ने पुन: कहा- 'मुझे अभी, बिलकुल अभी अंदर जाना है।'

लक्ष्मण ने कहा- 'आपको अंदर जाने देने से पहले मुझे उनकी अनुमति लेनी होगी।'
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विश्वामित्र ने कहा- 'तो जाओ और पूछो।'
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तब लक्ष्मण ने कहा- 'मैं तब तक अंदर नहीं जा सकता, जब तक कि राम बाहर नहीं आते। आपको प्रतीक्षा करनी होगी।'
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विश्वामित्र क्रोधित हो गए और कहने लगे- 'अगर तुम अंदर जाकर मेरी उपस्थिति की सूचना नहीं देते हो, तो मैं अपने अभिशाप से अभी पूरी अयोध्या को भस्मीभूत कर दूंगा।'
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लक्ष्मण के समक्ष धर्मसंकट उपस्थित हो गया। वे सोचने लगे कि अगर अभी अंदर जाता हूं तो मैं मरूंगा और अगर नहीं जाता हूं ‍तो यह ऋषि अपने कोप में पूरे राज्य को भस्म कर डालेंगे। फिर लक्ष्मण ने सोचा कि ऐसे में बेहतर है कि मैं ही अकेला मरूं इसलिए वे अंदर चले गए।
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राम ने पूछा- 'क्या बात है?'
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लक्ष्मण ने कहा- 'महर्षि विश्वामित्र आए हैं।'
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राम ने कहा- 'अंदर भेज दो।'
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विश्वामित्र अंदर गए। एकांत वार्ता तब तक समाप्त हो चुकी थी। ब्रह्मा और वशिष्ठ राम से मिलकर यह कहने आए थे कि 'मृत्युलोक में आपका कार्य संपन्न हो चुका है। अब आप अपने राम अवतार रूप को त्यागकर यह शरीर छोड़ दें और पुनः ईश्वर रूप धारण करें।' ब्रह्मा और ‍वशिष्ठ ऋषि को यही कुल मिलाकर उन्हें कहना था।
लेकिन लक्ष्मण ने राम से कहा- 'भ्राताश्री, आपको मेरा शिरोच्छेद कर देना चाहिए।'
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राम ने कहा- 'क्यों? अब हमें कोई और बात नहीं करनी थी, तो मैं तुम्हारा शिरोच्छेद क्यों करूं?'
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लक्ष्मण ने कहा- 'नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते। आप मुझे सिर्फ इसलिए छोड़ नहीं सकते कि मैं आपका भाई हूं। यह राम के नाम पर एक कलंक होगा। मुझे दंड मिलना चाहिए, क्योंकि मैंने आपके एकांत वार्तालाप में विघ्न डाला है। यदि आप दंड नहीं देंगे तो मैं प्राण त्याग दूंगा।'
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लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे जिन पर विष्णु शयन करते हैं। उनका भी समय पूरा हो चुका था। वे सीधे सरयू नदी तक गए और उसके प्रवाह में विलुप्त हो गए। जब लक्ष्मण ने अपना शरीर त्याग दिया तो राम ने अपने सभी अनुयायियों, विभीषण, सुग्रीव और दूसरों को बुलाया और अपने जुड़वां पुत्रों लव और कुश के राज्याभिषेक की व्यवस्था की। इसके बाद राम भी सरयू नदी में प्रवेश कर गए।
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उधर, इस दौरान हनुमान पाताललोक में थे। उन्हें अंततः भूतों के राजा के पास ले जाया गया। उस समय वे लगातार राम का नाम दुहरा रहे थे, 'राम..., राम..., राम...।'
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भूतों के राजा ने पूछा- 'तुम कौन हो?'

हनुमानजी ने कहा- 'मैं हनुमान।'
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भूतराज ने पूछा, 'हनुमान? यहां क्यों आए हो?'
हनुमानजी ने कहा- 'श्रीराम की अंगूठी एक छिद्र में गिर गई थी। मैं उसे निकालने आया हूं।'
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भूतों के राजा हंसने लगे और फिर उन्होंने इधर-उधर देखा और हनुमानजी को अंगूठियों से भरी एक थाली दिखाई। थाली दिखाते हुए कहा- 'तुम अपने राम की अंगूठी उठा लो। मैं नहीं जानता कि कौन-सी अंगूठी तुम्हारे राम की है।'
हनुमान ने सभी अंगूठियों को गौर से देखा और सिर को डुलाते हुए बोले- 'मैं भी नहीं जानता कि इनमें से कौन-सी राम की अंगूठी है, सारी अंगूठियां एक जैसी दिखाई दे रही हैं।'
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भूतों के राजा ने कहा कि इस थाली में जितनी भी अंगूठियां हैं सभी राम की ही हैं, लेकिन तुम्हारे राम की इनमें से कौन-सी है, यह तो तुम्हें ही जानना होगा। इस थाली में जितनी अंगूठियां हैं, उतने ही राम अब तक हो गए हैं।
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और सुनो हनुमान, जब तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठाकर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।'
हनुमान आश्चर्यचकित होकर वापस लौट गए।

शनिवार, 27 जनवरी 2018

*एकादशी दो प्रकार की होती है।*

*(1)सम्पूर्णा     (2) विद्धा*

*सम्पूर्णा:-* जिस तिथि में केवल एकादशी तिथि होती है अन्य किसी तिथि का उसमे मिश्रण नही होता उसे सम्पूर्णा एकादशी कहते है।
*विद्धा एकादशी पुनः दो प्रकार की होती है*

*(1) पूर्वविद्धा (2) परविद्धा*

*पूर्वविद्धा:-* दशमी मिश्रित एकादशी को पूर्वविद्धा एकादशी कहते हैं।यदि एकादशी के दिन अरुणोदय काल (सूरज निकलने से 1घंटा 36 मिनट का समय) में यदि दशमी का नाम मात्र अंश भी रह गया तो ऐसी एकादशी पूर्वविद्धा दोष से दोषयुक्त होने के कारण वर्जनीय है यह एकादशी दैत्यों का बल बढ़ाने वाली है।पुण्यों का नाश करने वाली है।
*पद्मपुराण में वर्णित है।*
*" वासरं दशमीविधं दैत्यानां पुष्टिवर्धनम।*
*मदीयं नास्ति सन्देह: सत्यं सत्यं पितामहः।।*
" दशमी मिश्रित एकादशी दैत्यों के बल बढ़ाने वाली है इसमें कोई भी संदेह नही है।"

*परविद्धा:-* द्वादशी मिश्रित एकादशी को परविद्धा एकादशी कहते हैं!
*" द्वादशी मिश्रिता ग्राह्य सर्वत्र एकादशी तिथि:*
"द्वादशी मिश्रित एकादशी सर्वदा ही ग्रहण करने योग्य है।"
इसलिए भक्तों को परविद्धा एकादशी ही रखनी चाहिए।ऐसी एकादशी का पालन करने से भक्ति में वृद्धि होती है।दशमी मिश्रित एकादशी से तो पुण्य क्षीण होते हैं।

बृहस्पति द्वारा ममतामें गर्भाधानका रहस्य

 पुराणादि सच्छास्त्रों में कई ऐसे अद्भुत  कथानक आते हैं कि सीधा सीधा अक्षरार्थ लेने पर बहुत ही विपरीत व हास्यप्रद होता है।किंतु  इन आर्ष ग्रंथों की शैली व भाषा विलक्षण है। कहीं आध्यात्मिक , तो कहीं आधिभौतिक ,कहीं आधिदैविक व कहीं तीनों या कोई दो प्रकार के अर्थ गुम्फित रहते हैं। अतः इनका ज्ञान आचार्य परंपरा द्वारा अविच्छिन्न परंपरा प्रणाली से ही संभव होता है। कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो,स्वतः इनके मर्मको यथावत् नही समझ सकता। केवल ""राजा हुए रानी हुई पांच दस पुत्र हुए, उसने उसको मारा""इत्यादि बातें ही स्वतः पढ़ी जा सकतीं हैं, उसके निहित भाव नहीं।
      ऐसी ही एक घटना का वर्णन  भागवत जी में किया गया है। जो आपाततः बड़ी ही वीभत्स लगती है----
      अन्तर्वर्त्न्यां  भातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पति:।
      प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत्।(भाग.९-२०-३६)।अर्थ--गर्भवती भाई की पत्नी के साथ बृहस्पति  मैथुन के लिए प्रवृत्त हुए।गर्भस्थ शिशु के द्वारा  निवारण करने पर उसे अंधा होजाने का शाप देकर बाहर ही वीर्य छोंड़ दिया।इत्यादि।
 पूरे श्लोकको  न लिखकर केवल कथानक लिखते हैं---अपने पति द्वारा त्यागे जाने की आशंका से , बाहर छोंडे गए वीर्य से उत्पन्न बालक को छोंड़ना चाहा तब देवताओं ने यह श्लोक पढा--
      मूढ़े भर द्वाजमिमम् भर द्वाजं बृहस्पते!(भाग.९-२०-३८)
हे मूर्खे! दो से उत्पन्न होने वाले इस बालक का भरण पोषण कर।
हे बृहस्पते! आप भी इस द्वाज(दो से उत्पन्न) बालक का भरण पोषण करें। इस प्रकार वे दोनों ही एक दूसरे को कहते हुए वहां से  बालक को छोंड़कर चले गए--इस लिए इस बालक का नाम #भारद्वाज ऐसा प्रशिद्ध हुआ।
      देवताओं के कहने पर भी #ममताने इस बालक को वितथ (व्यर्थ) अनावश्यक व्यभिचारज मानकर छोंड़ दिया।तब इस अनाथ को #मरुत् देवताओं ने प्राप्त करके #भरतवंशमें दे दिया।इतना ही कथानक है।।
      #अब_इसका_यथार्थ_रहस्य_देखने के लिए प्रथम कुछ वैदिक भावों को - देखते हैं--
१- यदस्य वाचो बृहत्यै पतिस्तस्मात् बृहस्पति:(जैमिनि उप.२-२५)
     इस वाणी के श्रेष्ठ पति #बृहस्पति हैं।
२-बृहस्पतिरिव बुद्ध्या (मंत्र.ब्राह्मण-२-४-१४)---बृहस्पति की तरह
     बुद्धि से(युक्त होता है)।।
३--द्वितीयां जायामश्नुते (तैत्तिरीय.१-३-१०-३)--दूसरी स्त्री को
     प्राप्त करता है।
४- तामन्तर्हितां रेतः सिग्भ्यामुपदधाति(शत.ब्रा.-७-४२-२४)--उस
     अन्तर्हिता(गर्भिणीममता को ) वीर्य सेंचन के लिए
     उपधान(निकट प्राप्त)करता है।
५--भारद्वाजं वै बृहत् (ऐतरेय.--८-३)--बृहत् ही #भारद्वाज है।
६--यद्वै रेतसो योनिमतिरिच्यतेमुया तद् भवति(शत.ब्रा. 
     ६-३-३-२६)--जो वीर्य योनि से अतरिक्त बाहर पड़ा वह उस
      (सगर्भा ममता)के कारण होता है।
७--दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगे(ऋग्वेद -अ.२--अनु.३-
     मं.१)---दशम युग सृष्टि के आरंभ से दो चतुर्युगी व्यतीत हो कर
     आगे आने वाले त्रेता में #ममताका_पुत्र_दीर्घतमा नामक ऋषि
      मंत्रद्रष्टा हुआ।।
       अब इन वैदिक वचनों को ध्यान पूर्वक समझने पर यह स्पष्ट  होजाता है कि भागवत जी में कही हुई बातें अक्षरशः #वेदप्रतिपादित ही हैं।जिसे वेद वचनों की  आध्यात्मिक अर्थ द्वारा संगति लगाई जाती है उसी प्रकार---
       
        #अब_इस_कथानकका_यथार्थ_भाव_लिखते_हैं। :---

वाणी ही #बृहती कही जाती है--वाग्वै बृहती(शत.१४-४-१-२२)।
#पति पालन करने वाले रक्षक को कहाजाता है--पतिः पालयिता (निरुक्तम् --१०-२१)।
इस कथानकमें--पुरुष का #मन ही #बृहस्पति है।क्योंकि--यन्मनसानुमनुते तद्वाचा वदति " इस श्रुति के अनुसार मनमें उठने वाले भाव को ही वाणी द्वारा बोला जाता है। अतः #मन ही वाणीका पति #बृहस्पति है।बृहत्या:पतिः बृहस्पतिः।।
     इस बृहस्पति मन का ज्येष्ठ भ्राता  #जीवात्मा ही  #उतथ्य है।
#तथ्य का अर्थ "#सत्य" है।#उ" वितर्कका द्योतक है।(निपात द्योतक ही होते हैं)।इस प्रकार #उतथ्य का अर्थ है--जिसकी सत्यता में वितर्क(विवाद)हो।। यह जीव जीव रूपमें सत्य है या नहीं,?यही ब्रह्मको जानकर ब्रह्म होजाता है या नहीं,? यही कर्ता भोक्ता  आदि है या नहीं?इत्यादि प्रकार के विवाद  जीव के विषय में हमेशा से चलते आये हैं।द्वैताद्वैत विशिष्टाद्वैत आदि  सारे वाद इसी के ही आधारित हैं।
#ममता का अर्थ  मोह आसक्ति (अविद्या)माया  आदि तो प्रशिद्ध ही है।
    #दीर्घतमागहन अंधकार ही है। यही अज्ञान या मोह भी है।
#वीर्य--का अर्थ  #सामर्थ्य , विवेक है।
#भारद्वाज का अर्थ  #ज्ञान है
इस प्रकार  कथानंक का अर्थ होगा---
       जीवात्मा रूप #उतथ्य की पत्नी #ममता  (ममत्वसे भरी हुई वृत्ति अविद्या)के गर्भमें  मोहरूपी #दीर्घतमा  थे।
       मन रूपी #बृहस्पति ने इस मोहरूपा वृत्ति #ममता में अपने सामर्थ्य  #वीर्य का  संचार करना चाहा।किन्तु  ममता के गर्भ में  मोह घुसा बैठा है  अतः वह मानसी सामर्थ्य (विवेक)का प्रवेश सर्वथा असंभव है। "अधः तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते"(अविद्या से ग्रस्त लोग घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं) इस प्रकार वेद में यही भाव स्पष्ट हुआ है।
         बहुत प्रयत्न करने पर भी ममता के गर्भ में पल रहा मोह मानसिक बल (विवेक )का प्रवेश नहीं होने देता है। यदि वह मन रूप बृहस्पति जैसे तैसे भी ममता #वृत्ति के निकट  डाल देता है तो , उससे  #आत्मज्ञान रूप #भारद्वाज उत्पन्न होता है।।क्योंकि आत्मज्ञान  मन और वृत्ति दोनों के संघर्ष  से ही उत्पन्न होता है, इसी लिए  वह #भारद्वाज कहा जाता है।
      उत्पन्न हुए आत्मज्ञान का  #भरण_पोषण  यम नियमादि  मरुत् देवता ही करते हैं।यही  देवताओंद्वारा #भारद्वाज का भरण पोषण  रक्षण है।,
     इस प्रकार इस कथानक में  मन वाणी ममता वृत्तियों के संघर्षण द्वारा #ज्ञानोत्पति व यम नियमादि द्वारा उसके रक्षण की सुंदर प्रक्रिया कही गई है।श्रीराम !

नास्ति  कापि  अनुचित्ति: मनागपि।।

श्री नृसिंह स्तवः गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय

प्रहलाद ह्रदयाहलादं भक्ता विधाविदारण।
शरदिन्दु रुचि बन्दे पारिन्द् बदनं हरि ॥१॥

नमस्ते नृसिंहाय प्रहलादाहलाद-दायिने।
हिरन्यकशिपोर्ब‍क्षः शिलाटंक नखालये ॥२॥

इतो नृसिंहो परतोनृसिंहो, यतो-यतो यामिततो नृसिंह।
बर्हिनृसिंहो ह्र्दये नृसिंहो, नृसिंह मादि शरणं प्रपधे ॥३॥

तव करकमलवरे नखम् अद् भुत श्रृग्ङं। दलित हिरण्यकशिपुतनुभृग्ङंम्। केशव धृत नरहरिरुप, जय जगदीश हरे ॥४॥

वागीशायस्य बदने लर्क्ष्मीयस्य च बक्षसि।
यस्यास्ते ह्र्देय संविततं नृसिंहमहं भजे ॥५॥

श्री नृसिंह जय नृसिंह जय जय नृसिंह।
प्रहलादेश जय पदमामुख पदम भृग्ह्र्म ॥६॥

सच्चा इंसान

रामानुजाचार्य प्राचीन काल में हुए एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उनका जन्म मद्रास नगर के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था।
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बाल्यकाल में इन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा गया। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी।
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शिक्षा समाप्त होने पर वे बोले-‘पुत्र, मैं तुम्हें एक मंत्र की दीक्षा दे रहा हूँ। इस मंत्र के सुनने से भी स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।’
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रामानुज ने श्रद्धाभाव से मंत्र की दीक्षा दी। वह मंत्र था-‘ऊँ नमो नारायणाय’।
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आश्रम छोड़ने से पहले गुरु ने एक बार फिर चेतावनी दी-‘रामानुज, ध्यान रहे यह मंत्र किसी अयोग्य व्यक्ति के कानों में न पड़े।’
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रामानुज ने मन ही मन सोचा-‘इस मंत्र की शक्ति कितनी अपार है। यदि इसे केवल सुनने भर से ही स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है तो क्यों न मैं सभी को यह मंत्र सिखा दूँ।’
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रामानुज के हृदय में मनुष्यमात्र के कल्याण की भावना छिपी थी। इसके लिए उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा भी भंग कर दी।
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उन्होंने संपूर्ण प्रदेश में उक्त मंत्र का जाप आरंभ करवा दिया। सभी व्यक्ति वह मंत्र जपने लगे।
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गुरु जी को पता लगा कि उन्हें बहुत क्रोध आया।
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रामानुज ने उन्हें शांत करते हुए उत्तर दिया, ‘गुरु जी, इस मंत्र के जाप से सभी स्वर्ग को चले जाएँगे। केवल मैं ही नहीं जा पाऊँगा,
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क्योंकि मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया है।
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सिर्फ मैं ही नरक में जाऊँगा। यदि मेरे नरक जाने से सभी को स्वर्ग मिलता है, तो इसमें नुकसान ही क्या ?’
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गुरु ने शिष्य का उत्तर सुनकर उसे गले से लगा लिया और बोले- ‘वत्स, तुमने तो मेरी आँखें खोल दीं। तुम नरक कैसे जा सकते हो ?
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सभी का भला सोचने वाला सदा ही सुख पाता है। तुम सच्चे अर्थों में आचार्य हो।’
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रामानुजाचार्य अपने गुरु के चरणों में झुक गए।

लोगों को भी भी उनकी भाँति सच्चे और सही मायने में इंसान बनना चाहिए।
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सच्चा इंसान वह नहीं होता, जो केवल अपने बारे में सोचे, इंसान वहीं है, जो दूसरों का भला करता है।
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।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।

।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।


ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।।

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।।

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।।

अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।।

सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।।

अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रोन्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।।

कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।।

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।।


।। इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम्।।

श्री गंगा स्त्रोत्र

देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे ।
शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥ १ ॥

भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥

हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥

तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥

कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥

तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥

पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥

रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥

अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ १० ॥

वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ ११ ॥

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२ ॥

येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ १३ ॥

गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ १४ ॥

मृत्य्वष्टकम्

     ।। मार्कण्डेय उवाच ।।

नारायणं सहस्राक्षं पद्मनाभं पुरातनम् ।
प्रणतोऽस्मि हृषीकेशं किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। १

गोविन्दं पुण्डरीकाक्षमनन्तमजमव्ययम् ।
केशवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। २

वासुदेवं जगद्योनिं भानुवर्णमतीन्द्रियम् ।
दामोदरं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ३

शङ्खचक्रधरं देवं छन्नरुपिणमव्ययम् (छन्दोरुपिणमव्ययम्) ।
अधोक्षजं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ४

वाराहं वामनं विष्णुं नरसिंहं जनार्दनम् ।
माधवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ५

पुरुषं पुष्करं पुण्यं क्षेमबीजं जगत्पतिम् ।
लोकनाथं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ६

भूतात्मानं महात्मानं जगद्योनिमयोनिजम् (यज्ञयोनिमयोनिजम्) ।
विश्वरुपं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ७

सहस्रशीर्षसं देवं व्यक्ताऽव्यक्तं सनातनम् ।
महायोगं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ८

।।फल-श्रुति।।

इत्युदीरितमाकर्ण्य स्तोत्रं तस्य महात्मनः ।
अपयातस्ततो मृत्युर्विष्णुदूतैश्च पीडितः ।। ९

इत्येन विजितो मृत्युर्मार्कण्डेयेन धीमता ।
प्रसन्ने पुण्डरीकाक्षे नृसिंहं नास्ति दुर्लभम् ।। १०

मृ्त्य्वष्टकमिदं (मृत्युञ्जयमिदं) पुण्यं मृत्युप्रशमनं शुभम् ।
मार्कण्डेयहितार्थाय स्वयं विष्णुरुवाच ह ।। ११

य इदं पठते भक्त्या त्रिकालं नियतः शुचिः ।
नाकाले तस्य मृत्युः स्यान्नरस्याच्युतचेतसः ।। १२

हृत्पद्ममध्ये पुरुषं पुरातनं (पुराणम्) नारायणं शाश्वतमादिदेवम् ।
संचिन्त्य सूर्यादपि राजमानं मृत्युं स योगी जितवांस्तदैव ।। १३

।।श्रीनरसिंह पुराणे अन्तर्गत मार्कण्डेयमृत्युञ्जयो नाम (मृत्य्वष्टकं नाम) स्तोत्र।।

मंगला गौरी स्तोत्रं

ॐ रक्ष-रक्ष जगन्माते देवि मङ्गल चण्डिके ।

हारिके विपदार्राशे हर्षमंगल कारिके ॥

हर्षमंगल दक्षे च हर्षमंगल दायिके ।

शुभेमंगल दक्षे च शुभेमंगल चंडिके ॥

मंगले मंगलार्हे च सर्वमंगल मंगले ।

सता मंगल दे देवि सर्वेषां मंगलालये ॥

पूज्ये मंगलवारे च मंगलाभिष्ट देवते ।

पूज्ये मंगल भूपस्य मनुवंशस्य संततम् ॥

मंगला धिस्ठात देवि मंगलाञ्च मंगले।

संसार मंगलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् ॥

देव्याश्च मंगलंस्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः।

प्रति मंगलवारे च पूज्ये मंगल सुख-प्रदे ॥



तन्मंगलं भवेतस्य न भवेन्तद्-मंगलम् ।

वर्धते पुत्र-पौत्रश्च मंगलञ्च दिने-दिने ॥

मामरक्ष रक्ष-रक्ष ॐ मंगल मंगले ।


॥ इति मंगलागौरी स्तोत्रं सम्पूर्णं ॥

॥ श्री कालभैरवाष्टकं ॥

॥ श्री कालभैरवाष्टकं ॥


देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् ।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥
भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥
शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥
भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥
धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् ।
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥
अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥
भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥
॥ फल श्रुति ॥
कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥

इति श्रीमशंकराचार्यविरचितं श्री कालभैरवाष्टकं संपूर्णम् ॥

|| द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||

|| द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||


सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम् |
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये || १||
श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम् |
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् || २||
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् |
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् || ३||
कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय |
सदैवमान्धातृपुरे वसन्तमोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे || ४||
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् |
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि || ५||
याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः |
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये || ६||
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः |
सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे || ७||
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरितीरपवित्रदेशे |
यद्धर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे || ८||
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः |
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि || ९||
यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च |
सदैव भीमादिपदप्रसिद्दं तं शङ्करं भक्तहितं नमामि || १०||
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम् |
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये || ११||
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम् |
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणम् प्रपद्ये || १२||
ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण |
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च ||

|| इति द्वादश ज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रं संपूर्णम् ||

॥ अथ चन्द्रशेखराष्टकम् ॥

॥ अथ चन्द्रशेखराष्टकम् ॥


चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् ।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ १॥
रत्नसानुशरासनं रजतादिशृङ्गनिकेतनं
सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् ।
क्षिप्रदघपुरत्रयं त्रिदिवालयैभिवन्दितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २॥
पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजदूयशोभितं
भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रह।म् ।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशनं भवमव्ययं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ३॥
मत्त्वारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीमनोहरं
पङ्कजासनपद्मलोचनपुजिताङ्घ्रिसरोरुहम् ।
देवसिन्धुतरङ्गसीकर सिक्तशुभ्रजटाधरं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ४॥
यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं
शैलराजसुता परिष्कृत चारुवामकलेवरम् ।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ५॥
कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वरकुण्डलं वृषवाहनं
नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् ।
अन्धकान्धकामा श्रिता मरपादपं शमनान्तकं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ६॥
भषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं
दक्षयज्ञर्विनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ।
भुक्तिमुक्तफलप्रदं सकलाघसङ्घनिवर्हनं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ७॥
भक्त वत्सलमचिञ्तं निधिमक्षयं हरिदम्वरं
सर्वभूतपतिं परात्पर प्रमेयमनुत्तमम् ।
सोमवारिज भूहुताशनसोमपानिलखाकृतिं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ८॥
विश्वसृष्टिविधालिनं पुनरेव पालनतत्परं
संहरन्तमपि प्रपञ्चम शेषलोकनिवासिनम् ।
क्रिडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथ समन्वितं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेकर चन्द्रशेकर रक्षमाम् ॥ ९॥
मृत्युभीतमृकण्डसूनुकृतस्तव शिव सन्निधौ
यत्र कुत्र च पठेन्नहि तस्य मृत्युभयं भवेत् ।
पूर्णमायुररोगितामखिलाथ सम्पदमादरं
चन्द्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्तिमयत्नतः ॥ १०॥

॥ इति चन्द्रशेखराष्टकम् ॥

|| दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं ||

|| दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं ||


विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कणामृताय शशिशेखरधारणाय |
कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || १||
गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय |
गंगाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || २||
भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय |
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ३||
चर्मम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय |
मंझीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ४||
पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय |
आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ५||
भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय |
नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ६||
रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय |
पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ७||
मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय |
मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ८||
वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणं |सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम् |
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात् || ९||

|| इति श्रीवसिष्ठविरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

सुदर्शन चक्र

प्राचीनकाल के समय की बात है, दैत्य और दानव प्रबल और शक्तिशाली होकर सभी मनुष्यों और ऋषिगणों को पीड़ा देने लगे और धर्म का लोप करने लगे |
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इससे परेशान होकर सभी ऋषि और देवगण भगवान विष्णु के पास पहुंचे | विष्णु भगवान ने पूछा — देवताओं !! इस समय आपके आने का क्या कारण है ? में आप लोगों के किस काम आ सकता हूँ । नि: संकोच होकर आप अपनी समस्या बताइये
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देवताओं ने कहा – ‘हे देव रक्षक हरि’! हम लोग दैत्यों के अत्याचार से अत्यंत दुखी हैं | शुक्राचार्य की दुआ और तपस्य से वें बहुत ही प्रबल हो गए हैं । हम सभी देवतां और ऋषि उन पराक्रमी दैत्यों के सामने विवश होकर उनसे परास्त हो गए हैं |
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स्वर्ग पर भी उन अत्त्यचारी दैत्यों का राज्य हो गया है । इस समय आप ही हमारे रक्षक हैं | इसलिए हम आपकी शरण में आये हैं | हे देवेश ! आप हमारी रक्षा करें”|
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भगवान विष्णु ने कहा- ऋषिगणों हम सभी के रक्षक भगवान शिव हैं | उन्हीं की कृपा से में धर्म की स्थापना तथा असुरों का विनाश करता हूँ |
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आप लोगों का दुख दूर करने के लिए में भी शिव महेश्वर की उपासना करूँगा | और मुझे पूरा विश्वास है की शिव शंकर जरुर प्रसन्न होंगे और आप लोगों का दुःख दूर करने के लिए कोई न कोई उपाय अवश्य ढूंढ लेंगे |
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विष्णु भगवन ऋषिगणों और देवताओं से ऐसा कहकर शिवा की भक्ति करने के लिए कैलाश पर्वत चले गए | वंहा पहुंचकर वो विधिपूर्वक भगवान शिव की तपस्या करने लगे |
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श्री विष्णु भगवान नित्य कई हज़ार नामों से शिवा की स्तुति करते तथा प्रत्त्येक नामोच्चारण के साथ एक- एक कमल पुष्प आपने अराध्या को अर्पित करते | इस प्रकार भगवान विष्णु की यह उपासना कई वर्षों तक निर्बाध चलती रही |
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एक दिन भगवान शिवा परमात्मा ने श्री  विष्णु भक्ति की परीक्षा लेनी चाही | भगवान विष्णु हर बार की तरह एक सहस्त्र कमल पुष्प शिवजी को अर्पित करने के लिए लेकर आये | तब भगवान शिवा ने उसमे से एक कमल पुष्प कहीं छिपा दिया |
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शिव माया के द्वारा इस घटना का पता भगवान विष्णु को भी नहीं लगा | उन्होंने गिनती में एक पूष्प कम  पाकर उसकी खोज आरम्भ कर दी | श्री विष्णु ने पुरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर लिया परन्तु उन्हें कहीं वह पुष्प नहीं मिला
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तदन्तर दृढ वृत्त का पालन करने वाले श्री विष्णु ने आपने एक कमलवत नेत्र ही उस कमल पुष्प के स्थान पर अर्पित कर दिया
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श्री भगवान विष्णु के इस त्याग से महेश्वर तत्काल प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर बोले– विष्णु !- में तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ | इच्छा अनुसार वार मांग सकते हो| में तुम्हारी प्रत्येक कामना पूरी करूँगा | तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ भी अदेय नहीं है |
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श्री विष्णु ने कहा- ‘हे नाथ ! आपसे में क्या कहूँ ? आप तोह स्वयं अन्तर्यामी हैं | ब्रह्माण्ड की कोई भी बात आपसे छिपी नहीं है | आप सब कुछ जानते हैं। फिर भी अगर आप मेरे मुख से सुनना चाहते है तो सुनिए |
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प्रभु ! दैत्यों ने समूचे संसार को प्रताड़ित और दुखी किया हुआ है | धर्म की मर्यादा और विश्वास को नष्ट करने में लगे हैं और कर चुके हैं । धर्म की मर्यादा नष्ट हो चुकी है
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अतः धर्म की स्थापना और ऋषिगणों और देवताओं के संरक्षण के लिए दैत्यों का वध आवश्यक है | मेरे अस्त्र शास्त्र उन दैत्यों के विनाश में असमर्थ हैं | इसलिए में आपकी शरण में आया हूँ
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भगवान विष्णु की स्तुति सुनकर तब देवाधिदेव महादेव नें उन्हें आपना सुदर्शन चक्र दिया | उस चक्र के द्वारा श्री हरी भगवान विष्णु ने बिना किसी श्रम के समस्त प्रबल दैत्यों का संहार कर डाला |
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सम्पूर्ण जगत का संकट समाप्त हो गया | देवता और ऋषिगण सब ही सुखी हो गए | इस प्रकार भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र के रूप में एक दिव्य आयुध की प्राप्ति भी हो गयी |

                     जय जय श्री राधे राधे जी

|| वैद्यनाथाष्टकम्||

|| वैद्यनाथाष्टकम्||


श्रीरामसौमित्रिजटायुवेद षडाननादित्य कुजार्चिताय |
श्रीनीलकण्ठाय दयामयाय श्रीवैद्यनाथाय नमःशिवाय || १||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

गङ्गाप्रवाहेन्दु जटाधराय त्रिलोचनाय स्मर कालहन्त्रे |
समस्त देवैरभिपूजिताय श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || २||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

भक्तःप्रियाय त्रिपुरान्तकाय पिनाकिने दुष्टहराय नित्यम् |
प्रत्यक्षलीलाय मनुष्यलोके श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ३||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

प्रभूतवातादि समस्तरोग प्रनाशकर्त्रे मुनिवन्दिताय |
प्रभाकरेन्द्वग्नि विलोचनाय श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ४||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

वाक् श्रोत्र नेत्राङ्घ्रि विहीनजन्तोः वाक्श्रोत्रनेत्रांघ्रिसुखप्रदाय |
कुष्ठादिसर्वोन्नतरोगहन्त्रे श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ५||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

वेदान्तवेद्याय जगन्मयाय योगीश्वरद्येय पदाम्बुजाय |
त्रिमूर्तिरूपाय सहस्रनाम्ने श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ६||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

स्वतीर्थमृद्भस्मभृताङ्गभाजां पिशाचदुःखार्तिभयापहाय |
आत्मस्वरूपाय शरीरभाजां श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ७||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय स्रक्गन्ध भस्माद्यभिशोभिताय |
सुपुत्रदारादि सुभाग्यदाय श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ८||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||

वालाम्बिकेश वैद्येश भवरोगहरेति च |
जपेन्नामत्रयं नित्यं महारोगनिवारणम् || ९||

शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव |
शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव ||


|| इति श्री वैद्यनाथाष्टकम् ||

श्री रामचरित मानस

श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदासद्वारा १६वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। इस ग्रन्थ को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण मण्डलों द्वारा शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है।

श्री रामचरित मानस के नायक राम हैं जिनको एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।

त्रेता युग में हुए ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित और हिन्दी की ही एक लोकप्रिय भाषा अवधी में रचित रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया।

संत महात्मा समझाते हैं -कलयुग दोषों का खज़ाना है । पर इसकी एक महिमा यह है कि केवल राम नाम के जाप से ही व्यक्ति की सारी आसक्तियाँ खत्म हो जाती हैं । श्री गोस्वामी जी महाराज जी समझाते हैं कि  राम सबको राम बनाना ही जानते हैं। वह कृपा के भंडार है।  इसलिए उनके गुणों, उनकी विशेषताओं को जानने के लिए आइए आज से श्री  रामचरितमानस का अध्ययन किया जाए।

श्री रामचरित मानस प्रथम सोपान
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
बालकाण्ड
🔸🔸🔹🔸🔸
 अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों ,छंदों और मंगलों की करने वाली *सरस्वती जी और गणेश जी* की मैं वंदना करता हूं।।

*श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप* श्री पार्वती जी और शंकर जी की मैं वंदना करता हूं, जिनके बिना सिद्ध जन अपने अंतकरण में स्थित *ईश्वर को नहीं देख सकते* ।

ज्ञानमय, नित्य, *शंकर रूपी गुरु की* मैं वंदना करता हूं, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चंद्रमा भी सर्वत्र वंदित होता है ।

श्री सीताराम जी के गुण समूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले , विशुद्ध विज्ञान संपन्न कवीश्वर *श्री वाल्मीकि जी* और कपीश्वर *श्री हनुमान जी* की मैं वंदना करता हूं ।।

 उत्पत्ति , स्थिति (पालन) और संहार करने वाली , क्लेशों की हरने वाली तथा संपूर्ण कल्याणों  की करने वाली श्री रामचंद्र जी की प्रियतमा श्री सीता जी को मैं नमस्कार करता हूं ।।  जिनकी माया के वशीभूत संपूर्ण विश्व  , ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भांति यह सारा दृश्य जगत सत्य प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका है, उन समस्त कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ  *राम कहाने वाले* भगवान श्री हरि कि मैं वंदना करता हूं ।

 अनेक पुराण, वेद और शास्त्र से सम्मत तथा  जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यंत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथ जी की कथा को तुलसीदास अपने अंतकरण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है ।  जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं जो गुणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं वही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों की धाम *श्री गणेश जी* मुझ पर कृपा करें ।।

 जिनकी कृपा से गूंगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लंगड़ा लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे *कलयुग के सब पापों को जला डालने वाले* दयालु भगवान मुझ पर *दया* करें ।।

जो नील कमल के समान श्याम वर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं वह भगवान नारायण *मेरे हृदय में निवास करें* ।।

जिनका कुंद के पुष्प और चंद्रमा के समान गौर शरीर है , जो पार्वती जी के प्रियतम और दया के धाम हैं और *जिनका दीनों पर स्नेह है*,  कामदेव का मर्दन करने वाले शंकर जी मुझ पर कृपा करें।।

मैं *गुरु महाराज जी के चरण कमल की वंदना* करता हूं जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन *महामोह रूपी घने अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं* ।।

मैं गुरु महाराज जी के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूं जो सुंदर स्वाद , सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है । वह अमर मूल संजीवनी जड़ी का सुंदर चूर्ण है ,जो *संपूर्ण भव रोगों के परिवार को नष्ट* करने वाला है ।। वह रज सुकृति रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनंद की जननी है भक्त के *मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली* और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है ।।

 श्री गुरु महाराज के चरण- नखों  की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है जिसके स्मरण करते ही हृदय में *दिव्य दृष्टि उत्पन्न* हो जाती है वह प्रकाश *अज्ञान रुपी अंधकार का नाश करने* वाला है वह जिनके हृदय में आ जाता है *उसके बड़े भाग्य हैं* ।।
उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसाररूपी रात्रि के दोष मिट जाते हैं एवं रामचरित रूपी मणि और माणिक्य , गुप्त और प्रकट जहां जो जिस खान में है सब दिखाई पड़ने लगते हैं ।।

जैसे सिद्धाञ्जन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों , वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक  से ही बहुत ही खाने देखते हैं  ,  श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत- अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है । उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं *संसार रूपी बंधन से छुड़ाने वाले* श्री राम चरित्र का वर्णन करता हूं ।।

||श्री गणाधिपति पञ्चरत्न स्तोत्रम् ||

||श्री गणाधिपति पञ्चरत्न स्तोत्रम् ||


ॐ सरागिलोकदुर्लभं विरागिलोकपूजितं
सुरासुरैर्नमस्कृतं जरापमृत्युनाशकम् .
गिरा गुरुं श्रिया हरिं जयन्ति यत्पदार्चकाः
नमामि तं गणाधिपं कृपापयः पयोनिधिम् .. १..

गिरीन्द्रजामुखाम्बुज प्रमोददान भास्करं
करीन्द्रवक्त्रमानताघसङ्घवारणोद्यतम् .
सरीसृपेश बद्धकुक्षिमाश्रयामि सन्ततं
शरीरकान्ति निर्जिताब्जबन्धुबालसन्ततिम् .. २..

शुकादिमौनिवन्दितं गकारवाच्यमक्षरं
प्रकाममिष्टदायिनं सकामनम्रपङ्क्तये .
चकासतं चतुर्भुजैः विकासिपद्मपूजितं
प्रकाशितात्मतत्वकं नमाम्यहं गणाधिपम् .. ३..

नराधिपत्वदायकं स्वरादिलोकनायकं
ज्वरादिरोगवारकं निराकृतासुरव्रजम् .
कराम्बुजोल्लसत्सृणिं विकारशून्यमानसैः
हृदासदाविभावितं मुदा नमामि विघ्नपम् .. ४..

श्रमापनोदनक्षमं समाहितान्तरात्मनां
सुमादिभिः सदार्चितं क्षमानिधिं गणाधिपम् .
रमाधवादिपूजितं यमान्तकात्मसम्भवं
शमादिषड्गुणप्रदं नमामि तं विभूतये .. ५..

गणाधिपस्य पञ्चकं नृणामभीष्टदायकं
प्रणामपूर्वकं जनाः पठन्ति ये मुदायुताः .
भवन्ति ते विदां पुरः प्रगीतवैभवाजवात्
चिरायुषोऽधिकः श्रियस्सुसूनवो न संशयः .. ॐ ..

||इति श्री गणाधिपति पञ्चरत्न स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ||

श्री अर्द्धनारीश्वर स्तोत्र

चाम्बेये गौरार्थ शरीराकायै
कर्पूर गौरार्थ शरीरकाय
तम्मिल्लकायै च जटाधराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

चपंगी फूल सा हरित पार्वतिदेविको अपने अर्द्ध शरीर को जिसने दिया है कर्पूर रंग -सा जटाधारी शिव को मेरा नमस्कार.

कस्तूरिका कुंकुम चर्चितायै
चितारजः पुंज विचर्चिताय
कृतस्मारायै विकृतस्मराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

कस्तूरी -कुंकुम धारण कर अति सुन्दर लगनेवाली पार्वती देवी को जिसने अपने अर्द्ध देह दिया हैं,उस शिव को नमस्कार.अपने सम्पूर्ण शरीर पर विभूति मलकर दर्शन देनेवाले शिव को नमस्कार.मन्मथ के विकार नाशक शिव को नमकार.


जणत क्वणत कंगण नूपुरायै
पादाप्ज राजत पणी नूपुराय .
हेमांगदायै च पुजंगदाय
नमः शिवायै च नमः शिवाय

कंकन -नूपुर आदि आभूषण पहने पार्वती देवी को पंकज पाद के परमेश्वर ने अपने अर्द्ध शरीर दिया है. स्वर्णिम वर्ण के उस शिव को नमस्कार.

विशाल नीलोत्पल लोचनायै
विकासी पंकेरुह लोचनाय .
समेक्षणायै विशामेक्षनाय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

विशालाक्षी पार्वती देवी को अपने अर्ध शरीर दिए त्रिनेत्र परमेश्वर को नमस्कार .


मंदार माला कलितालकायै
कपालमालंगित सुन्दराय
दिव्याम्बरायै  च दिगम्बराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

मंदार पुष्प माला पहनी अति रूपवती दिव्य वस्त्र धारिणी पार्वती देवी को कपाल मालाधारी शिव ने अपने अर्द्ध शरीर दिया है.उस परमेश्वर को नमस्कार.


अम्बोधर -श्यामल कुंतालायै
तडित्प्रभा ताम्ब्र जटाधराय
निरीश्वराय निखिलेश्वराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

श्याम बालों से ज्वलित पार्वतिदेवी को लाल जटाधारी परमेश्वर ने अपने अर्द्ध शरीर दिया है.उस परमेश्वर को नमसकार है


प्रपंच सृष्टयुन्मुख लास्य्कायै
समस्त संहारक तांडवाय.
जगज्जनन्यै जग देहपितरे
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

प्रपंच स्रुष्टिकर्त्री शोभित सुन्दर नाट्य कलाकारिण जगत जननी पार्वती देवी को अखिल लोक के साहार के अघोर तांडव नृत्य के परमेश्वर ने अपने अर्द्ध तन दिया है.उस परमेश्वर को मेरा नमस्कार.



प्रदीप्त रत्नोज्ज्वल कंठलायै
स्पुरन महापन्नग भूषणाय
शिवान वितायै च शिवान विधाय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .

प्रकाशपूर्ण रत्न कुंडल पहनी पार्वती देवी के साथ नागाभरण भूषित शिव मिश्रित हैं. उस परमेश्वर को मेरा नमस्कार.

एतत्पट तष्ठ्क मिष्ट्तम यो
भक्त्या स मान्यो पुवी दीर्घजीवी .
प्राप्नोति सौभाग्य मनंतकालम
भूयात सदा तस्य समस्त सिद्धिः

यह अष्ठक सभी इच्छा पूर्ती करने वाला है. इस को जो भक्ति सहित पढेंगे उनको सकल सौभाग्य प्राप्त होंगे और सभी सिद्धियाँ भी.

पत्नी

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।। (108/18)
अर्थात-जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो प्रियवादिनी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है।-
गृह कार्य में दक्ष-गृह कार्य यानी घर के काम, जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना, बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना, घर आए अतिथियों का मान-सम्मान करना, कम संसाधनों में ही गृहस्थी चलाना आदि कार्यों में निपुण होती है, उसे ही गृह कार्य में दक्ष माना जाता है। ये गुण जिस पत्नी में होते हैं, वह अपने पति की प्रिय होती है।
प्रियवादिनी-पत्नी को अपने पति से सदैव संयमित भाषा में ही बात करना चाहिए। संयमित भाषा यानी धीरे-धीरे व प्रेमपूर्वक। पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है व उसके मनोरथ पूरा करता है। पति के अलावा पत्नी को घर के अन्य सदस्यों जैसे- सास-ससुर, देवर-देवरानी, जेठ-जेठानी, ननद आदि से भी प्रेमपूर्वक ही बात करनी चाहिए।
पतिपरायणा-जो पत्नी अपने पति को ही सर्वस्व मानती है तथा सदैव उसी के आदेश का पालन करती है, उसे ही धर्म ग्रंथों में पतिव्रता कहा गया है। पतिव्रता पत्नी सदैव अपने पति की सेवा में लगी रहती है, भूल कर भी कभी पति का दिल दुखाने वाली बात नहीं कहती। यदि पति को कोई दुख की बात बतानी हो तो भी वह पूर्ण संयमित होकर कहती है। वही वास्तविक रूप में पत्नी कहलाने योग्य है।
गरुड़ पुराण के अनुसार जो पत्नी प्रतिदिन स्नान कर पति के लिए सजती-संवरती है, कम खाती है, कम बोलती है तथा सभी मंगल चिह्नों से युक्त है। जो निरंतर अपने धर्म का पालन करती है तथा अपने पति का प्रिय करती है, उसे ही सच्चे अर्थों में पत्नी मानना चाहिए। जिसकी पत्नी में यह सभी गुण हों, उसे स्वयं को देवराज इंद्र ही समझना चाहिए।
गरुड़ पुराण के अनुसार जिस मनुष्य की पत्नी विरूप नेत्रों वाली (सौंदर्य हीन आंखों वाली), पाप करने वाली, कलह प्रिय यानी विवाद करने वाली तथा विवाद में बढ़-चढ़कर बोलने वाली है, वह पति के लिए वास्तव में वृद्धावस्था ही है। जिसकी पत्नी दूसरों पुरुष का आश्रय लेने वाली है, दूसरे के घर में रहने की आकांक्षा रखती है, बुरे काम करती है तथा निर्लज्ज है, वह अपने पति के लिए साक्षात वृद्धावस्था स्वरूप ही है।
न दानेन न मानेन नार्जवेन न सेवया।
न शस्त्रेण न शास्त्रेण सर्वथा विषमा: स्त्रिय:।।
अर्थात-जो स्त्रियां स्वभाव से ही धर्म विरुद्ध आचरण करने वाली एवं पति के प्रतिकूल व्यवहार रखना वाली हैं, वे स्त्रियां न धन आदि के दान, न सम्मान, न सरल व्यवहार, न सेवाभाव, न शस्त्र भय और न शास्त्रों के उपदेश से ही अनुकूल की जा सकती है। वे तो सदा प्रतिकूल ही रहती है।
गरुड़ पुराण के अनुसार जो स्त्री सांप के कंठ में स्थित विष के समान है, जो सदैव गुस्से में रहने वाली है, जिसके नेत्र भयानक लाल रंग के दूसरों को डराने वाले हैं, जो बाघ के समान भयानक है, जो कौए के समान चिल्लाने वाली है, अपने पति से प्रेम न रखने वाली है, दूसरों पुरुषों की ओर आकर्षित होने वाली है, वह स्त्री पति के लिए सदैव दुख का कारण बनती है।

श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र

श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र (हिन्दी अनुवाद सहित)
मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी,
प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकुंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥१।।

भावार्थ–समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली व प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुखकमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्दकिशोर श्रीकृष्ण की चिरसंगिनी हृदयेश्वरि हैं, हे जगज्जननी श्रीराधिके ! आप मुझे कब अपने कृपाकटाक्ष का पात्र बनाओगी?

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते,
प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ्र कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥२।।

भावार्थ–आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, मूंगे, अग्नि तथा लाल पल्लवों के समान अरुण कान्तियुक्त कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान देने वाली तथा अभयदान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आपके हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की आलय (भंडार), स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपने कृपाकटाक्ष का अधिकारी बनाओगी?

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां,
सुविभ्रमं ससम्भ्रमं  दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥३।।

भावार्थ–रासक्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्रीनन्दनन्दन को निरन्तर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी ! आप मुझे कब अपने कृपाकटाक्ष का पात्र बनाओगी?

तड़ित्सुवर्णचम्पक प्रदीप्तगौरविग्रहे,
मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्डले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥४।।

भावार्थ–आप बिजली, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा से दीप्तिमान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरदपूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोरशिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपने कृपाकटाक्ष का अधिकारी बनाओगी?

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमण्डिते,
प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपण्डिते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥५।।

भावार्थ–आप अपने चिरयौवन के आनन्द में मग्न रहने वाली हैं, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला में पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेमक्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ करोगी?

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते,
प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुम्भिकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूर्णपूर्णसौख्यसागरे,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥६।।

भावार्थ–आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगों वाली हैं, आपके पयोधर स्वर्णकलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी?

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोर्लते,
लताग्रलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलन्मिलन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥७।।

भावार्थ–जल की लहरों से हिलते हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं, ऐसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुकिशोरी ! आप मुझे कब अपने कृपा अवलोकन द्वारा मायाजाल से छुड़ाओगी?

सुवर्णमालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे,
त्रिसूत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥८।।

भावार्थ–आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित हैं तथा तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, जिसमें तीन रंग के रत्नों का भूषण लटक रहा है। रत्नों से देदीप्यमान किरणें निकल रही हैं। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे सर्वेश्वरि कीरतिनन्दनी ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से देखकर अपने चरणकमलों के दर्शन का अधिकारी बनाओगी?

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण,
प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥९।।

भावार्थ–आपका कटिमण्डल फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, मणिमय किंकणी में रत्नों से जड़े हुए स्वर्णफूल लटक रहे हैं जिससे बहुत मधुर झंकार हो रही है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं। हे राधे महारानी ! आप मुझ पर कृपा करके कब संसार सागर से पार लगाओगी?

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्,
समाजराजहंसवंश निक्वणातिगौरवे।
विलोलहेमवल्लरी विडम्बिचारूचंक्रमे,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्।।१०।।

भावार्थ–अनेकों वेदमंत्रो के समान झनकार करने वाले स्वर्णमय नूपुर चरणों में ऐसे प्रतीत होते हैं मानो मनोहर राजहसों की पंक्ति गुंजायमान हो रही हो। चलते हुए आपके अंगों की छवि ऐसी लगती है जैसे स्वर्णलता लहरा रही हो, हे जगदीश्वरी श्रीराधे ! क्या कभी मैं आपके चरणकमलों का दास हो सकूंगा?

अनन्तकोटिविष्णुलोक नम्रपद्मजार्चिते,
हिमाद्रिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिद्धिवृद्धिदिग्ध सत्पदांगुलीनखे,
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥११।।

भावार्थ–अनंत कोटि वैकुण्ठों की स्वामिनी श्रीलक्ष्मीजी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वतीजी, इन्द्राणीजी और सरस्वतीजी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी वात्सल्यरस भरी दृष्टि से देखोगी?

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी,
त्रिवेदभारतीश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी,
ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥१२।।

भावार्थ–आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों (ऋक्, यजु और साम) की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप अयोध्या के प्रमोद वन की स्वामिनी अर्थात् सीताजी भी आप ही हैं। हे राधिके ! कब मुझे कृपाकर अपनी शरण में स्वीकार कर पराभक्ति प्रदान करोगी? हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारम्बार नमन है।

इतीदमद्भुतस्तवं निशम्य भानुनन्दिनी,
करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तदैव संचित-त्रिरूपकर्मनाशनं,
लभेत्तदाव्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्।।१३।।

भावार्थ–हे वृषभानुनन्दिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा।
स्तोत्र पाठ करने की विधि व फलश्रुति
राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धया,
एकादश्यां त्रयोदश्यां य: पठेत्साधक: सुधी।
यं यं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति साधक:,
राधाकृपाकटाक्षेण भक्ति: स्यात् प्रेमलक्षणा।।१४।।

भावार्थ–पूर्णिमा के दिन, शुक्लपक्ष की अष्टमी या दशमी को तथा दोनों पक्षों की एकादशी और त्रयोदशी को जो शुद्ध बुद्धि वाला भक्त इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह जो भावना करेगा वही प्राप्त होगा, अन्यथा निष्काम भावना से पाठ करने पर श्रीराधाजी की दयादृष्टि से पराभक्ति प्राप्त होगी।

उरुमात्रे नाभिमात्रे हृन्मात्रे कंठमात्रके,
राधाकुण्ड-जले स्थित्वा य: पठेत्साधक:शतम्।।
तस्य सर्वार्थसिद्धि:स्यात् वांछितार्थ फलंलभेत्,
ऐश्वर्यं च लभेत्साक्षात्दृशा पश्यतिराधिकाम्।।१५।।

भावार्थ–इस स्तोत्र के विधिपूर्वक व श्रद्धा से पाठ करने पर श्रीराधा-कृष्ण का साक्षात्कार होता है। इसकी विधि इस प्रकार है–गोवर्धन में श्रीराधाकुण्ड के जल में जंघाओं तक या नाभिपर्यन्त या छाती तक या कण्ठ तक जल में खड़े होकर इस स्तोत्र का १०० बार पाठ करे। इस प्रकार कुछ दिन पाठ करने पर सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं। ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। भक्तों को इन्हीं से साक्षात् श्रीराधाजी का दर्शन होता है।

तेन सा तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम्।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत्प्रियं श्यामसुन्दरम्।।
नित्य लीला प्रवेशं च ददाति श्रीब्रजाधिप:।
अत: परतरं प्राप्यं वैष्णवानां न विद्यते।।१६।।

भावार्थ–श्रीराधाजी प्रकट होकर प्रसन्नतापूर्वक वरदान देती हैं अथवा अपने चरणों का महावर (जावक) भक्त के मस्तक पर लगा देती हैं। वरदान में केवल ‘अपनी प्रिय वस्तु दो’ यही मांगना चाहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण प्रकट होकर दर्शन देते है और प्रसन्न होकर श्रीव्रजराजकुमार नित्य लीलाओं में प्रवेश प्रदान करते हैं। इससे बढ़कर वैष्णवों के लिए कोई भी वस्तु नहीं है।

किसी-किसी को राधाकुण्ड के जल में १०० पाठ करने पर एक ही दिन में दर्शन हो जाता है। किसी-को कुछ समय लग जाता है इसलिए जब तक दर्शन न हों, पाठ करते रहें। किसी को घर में ही नित्य १०० पाठ करने से कुछ ही दिनों में इष्ट प्राप्ति हो जाती है।

"किसी को छोटा कहना अपराध है"

को बड़? "छोट कहत अपराधू"।
सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।।

गोस्वामी जी नाम वंदना प्रकरण में स्वयं राम जी और उनके नाम में तुलना कर कहना चाहते हैं कि इनमें कौन बड़ा है। वे कहते हैं कि श्रीराम जी और उनके नाम में कौन बड़ा है , ये तो सरलता से कह सकता हूं लेकिन किसी को छोटा कहना अपराध होगा।
"को बड़"? - स्पष्ट है कि राम से बढ़कर राम जी के नाम है।
परंतु
"छोट कहत अपराधू" - संत सज्जन किसी को छोट अर्थात निम्न नहीं कह सकते हैं।
 भरत जी को देखिए...
"मो समान को पातकी"?
"मैं जन नीचू"
"महि सकल अनरथ कर मूला"
हनुमानजी को देखिए... प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलइ अहारा।।
अस "मैं अधम" सखा सुनु मोहु पर रघुबीर।
किन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।

गोस्वामी जी... मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर...
अतः हमें अपने व्यवहारिक जीवन में "छोट कहत अपराधू" अर्थात किसी को छोटा नहीं समझना चाहिए लेकिन ये भी ध्यान रहे कि दीनता हीनता में न बदले।

गोस्वामी जी कहते हैं कि श्रीराम जी और उनके नाम में कौन बड़ा और कौन छोटा (कनिष्ठ) कहना अपराध है लेकिन  आगे वे इसे स्पष्ट करने में चूकते भी नहीं कि...मोरें मत बड़ नाम दुहू ते।
सगुण साकार और निर्गुण निराकार दोनों से बड़ा उनका नाम है।
अर्थात
 "को बड़"?
बड़ा कौन?
इसे स्पष्ट करने के बाद भी वे छोटा कहने से बचते हैं।
श्रेष्ठता के अभिमान में डूबे हुए हम मंदबुद्धि  के लिए (अहंकार अति दुखद डमरूआ) ये "छोट कहत अपराधू" संजीवनी बूटी है....

सीताराम जय सीताराम....... सीताराम जय सीताराम

बैद्यनाथ महादेव की कथा

बैद्यनाथ महादेव की कथा

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एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये। इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे। प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया। उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा। रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें। शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा। जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया। वह लिंग वहीं अचल हो गया। वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु वह असफल रहा। अन्त में वह निराश हो गया और उस शिवलिंग पर अपने अँगूठे को गड़ाकर (अँगूठे से दबाकर) लंका के लिए ख़ाली हाथ ही चल दिया। इधर ब्रह्मा, विष्णु इन्द्र आदि देवताओं ने वहाँ पहुँच कर उस शिवलिंग की विधिवत पूजा की। उन्होंने शिव जी का दर्शन किया और लिंग की प्रतिष्ठा करके स्तुति की। उसके बाद वे स्वर्गलोक को चले गये।
यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल फल देने वाला है। इस वैद्यनाथ धाम में मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर एक विशाल सरोवर है, जिस पर पक्के घाट बने हुए हैं। भक्तगण इस सरोवर में स्नान करते हैं। यहाँ तीर्थपुरोहितों (पण्डों) के हज़ारों घाट हैं, जिनकी आजीविका मन्दिर से ही चलती है। परम्परा के अनुसार पण्डा लोग एक गहरे कुएँ से जल भरकर ज्योतिर्लिंग को स्नान कराते हैं। अभिषेक के लिए सैकड़ों घड़े जल निकाला जाता हैं। उनकी पूजा काफ़ी लम्बी चलती है। उसके बाद ही आम जनता को दर्शन-पूजन करने का अवसर प्राप्त होता है।
यह ज्योतिर्लिंग रावण के द्वारा दबाये जाने के कारण भूमि में दबा है तथा उसके ऊपरी सिरे में कुछ गड्ढा सा बन गया है। फिर भी इस शिवलिंग मूर्ति की ऊँचाई लगभग ग्यारह अंगुल है। सावन के महीने में यहाँ मेला लगता है और भक्तगण दूर-दूर से काँवर में जल लेकर बाबा वैद्यनाथ धाम (देवघर) आते हैं। वैद्यनाथ धाम में अनेक रोगों से छुटकारा पाने हेतु भी बाबा का दर्शन करने श्रद्धालु आते हैं। ऐसी प्रसिद्धि है कि श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की लगातार आरती-दर्शन करने से लोगों को रोगों से मुक्ति मिलती है।
कोटि रुद्र संहिता के अनुसार
श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है–
राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था। एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।
वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए। ऐसा कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है। कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था। इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया।
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।’ इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– ‘राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो’–

प्रसन्नोभव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम्।
सफलं कुरू मे कामं त्वामहं शरणं गत:।।
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन स:।
प्रत्युवाच विचेतस्क: संकटं परमं गत:।।
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया।
नीयतां स्वगृहे मे हि सदभक्त्या लिंगमुत्तमम्।।
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै।
स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरू।।

भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया। भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई। सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया। एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया।
जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया। उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी से बतायी। देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की। सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया–

तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै।
रावण: स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्।।
तच्छुत्वा सकला देवा: शक्राद्या मुनयस्तथा।
परस्परं समामन्त्र्य शिवसक्तधियोऽमला:।।
तस्मिन् काले सुरा: सर्वे हरिब्रह्मदयो मुने।
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषत:।।
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:।
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा – नत्वा दिवं ययु:।।

इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया। जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।
एक अन्य प्रसंग के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य (सप्त ऋषियों में से एक) की तीन पत्नियाँ थी। पहली से कुबेर, दूसरी से रावण और कुंभकर्ण, तीसरी से विभीषण का जन्म हुआ। रावण ने बल प्राप्ति के निमित्त घोर तपस्या की। शिव ने प्रकट होकर रावण को शिवलिंग अपने नगर तक ले जाने की अनुमति दी। साथ ही कहा कि मार्ग में पृथ्वी पर रख देने पर लिंग वहीं स्थापित हो जाएगा। रावण शिव के दिये दो लिंग 'कांवरी' में लेकर चला। मार्ग मे लघुशंका के कारण, उसने कांवरी किसी 'बैजू' नामक चरवाहे को पकड़ा दी। शिवलिंग इतने भारी हो गए कि उन्हें वहीं पृथ्वी पर रख देना पड़ा। वे वहीं पर स्थापित हो गए। रावण उन्हें अपनी नगरी तक नहीं ले जाया पाया।जो लिंग कांवरी के अगले भाग में था, चन्द्रभाल नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा जो पिछले भाग में था, वैद्यनाथ कहलाया। चरवाहा बैजू प्रतिदिन वैद्यनाथ की पूजा करने लगा। एक दिन उसके घर में उत्सव था। वह भोजन करने के लिए बैठा, तभी स्मरण आया कि शिवलिंग पूजा नहीं की है।] सो वह वैद्यनाथ की पूजा के लिए गया। सब लोग उससे रुष्ट हो गए। शिव और पार्वती ने प्रसन्न होकर उसकी इच्छानुसार वर दिया कि वह नित्य पूजा में लगा रहे तथा उसके नाम के आधार पर वह शिवलिंग भी 'बैजनाथ' कहलाया |
शिव पुराण में कई ऐसे आख्यान हैं जो बताते हैं कि शिव वैद्यों के नाथ हैं। कहा गया है कि शिव ने रौद्र रूप धारण कर अपने ससुर दक्ष का सिर त्रिशुल से अलग कर दिया। बाद में जब काफ़ी विनती हुई तो बाबा बैद्यनाथ ने तीनों लोकों में खोजा पर वह मुंड नहीं मिला। इसके बाद एक बकरे का सिर काट कर दक्ष के धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया। इसी के चलते बकरे की ध्वनि - ब.ब.ब. के उच्चरण से महादेव की पूजा करते हैं। इसे गाल बजा कर उक्त ध्वनि को श्रद्धालु बाबा को खुश करते हैं। पौराणिक कथा है कि कैलाश से लाकर भगवान शंकर को पंडित रावण ने स्थापित किया है। इसी के चलते इसे रावणोश्वर बैद्यनाथ कहा जाता है। यहां के दरबार की कथा काफ़ी निराली है।
।। हरहर महादेव ।।
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रावण अंगद संवाद के कुछ रोचक अंश

 कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥
भावार्थ:- ===अंगद ने कहा-==== तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान्‌ ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥3॥
* सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥
भावार्थ:-==  अंगद  ने आगे कहा === तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमान्‌ ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है॥4॥
*जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥
भावार्थ:-==== (रावण बोला-) =====अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू अपने पिता  को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई!॥5॥
* बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥6॥
भावार्थ:- === अंगद बोलै== अरे  नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। अरे रावण  !"" यह तो बता कि जगत्‌ में कितने रावण हैं?""" मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन-॥6॥
* बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥7॥
भावार्थ:- एक रावण तो बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया॥7॥
* एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा॥8॥
भावार्थ:- फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जन्तु की तरह (समझकर) पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया॥8॥
दोहा :
* एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि कीं काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥24॥
भावार्थ:- एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है- वह (बहुत दिनों तक) बालि की काँख में रहा था। इनमें से तुम कौन से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥24॥
विशेष ,,,, अंगद ने ये कहकर रावण को उसकी कमजोरी का अहसास करवाया !
चौपाई : :
* सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई॥1॥
भावार्थ:-(रावण ने कहा-) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान्‌ रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेवजी जानते हैं, जिन्हें अपने सिर रूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था॥1॥
* सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला॥2॥
भावार्थ:- सिर रूपी कमलों को अपने हाथों से उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजी की पूजा की है। अरे मूर्ख! मेरी भुजाओं का पराक्रम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में वह आज भी चुभ रहा है॥2॥
* जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे॥3॥
भावार्थ:- दिग्गज (दिशाओं के हाथी) मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं। जिनके भयानक दाँत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा, मेरी छाती में कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके), बल्कि मेरी छाती से लगते ही वे मूली की तरह टूट गए॥3॥
* जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥4॥
भावार्थ:- जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवास करने वाले! क्या तूने मुझको कानों से कभी सुना?॥4॥
दोहा :
* तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥25॥
भावार्थ:- उस (महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया॥25॥
चौपाई :
* सुनि अंगद सकोप कह बानी। बोलु संभारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥1॥
भावार्थ:- रावण के ये वचन सुनकर अंगद क्रोध सहित वचन बोले- अरे नीच अभिमानी! सँभलकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओं रूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था,॥1॥
* जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा॥2॥
भावार्थ:- जिनके फरसा रूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए, उन परशुरामजी का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं?॥2॥

ब्राह्मण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण:

ब्राह्मण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण:


अध्यापनमध्ययनम् यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् --मनुस्मृति अध्याय-1
शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्मस्वभावजम् -- गीता अध्याय-18, श्लोक-42
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति विद्यातपोभ्याम् भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति -- मनुस्मृति अध्याय-5

अर्थात् ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में निम्नलिखित 15 कर्म और गुण अवश्य होने चाहिए:

१) वेदादि ग्रन्थ पढना
२) वेदादि ग्रन्थ पढाना
३) यज्ञ करना
४) यज्ञ कराना
५) दान देना
६) दान लेना (किन्तु प्रतिग्रह लेना नीच-कर्म है)
७) शम = मन से बुरे कार्य की इच्छा भी न करनी और उसको अधर्म में कभी प्रवृत्त न होने देना
८) दम = चक्षु और श्रोत्र आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोककर धर्म में चलाना
९) तप = सदा ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना
१०) शौच = शरीर आदि की पवित्रता (पानी से शरीर, ज्ञान से बुद्धि, सत्य से मन, विद्या-तप से जीवात्मा की शुद्धि)
११) क्षान्ति = निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, शीतोष्ण, क्षुधा-तृषा, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि हर्ष-शोक छोड़कर धर्म में दृढ-निश्चय रखना
१२) आर्जव = कोमलता, निरभिमान, सरलता
१३) ज्ञानम् = वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़कर, पढ़ाने का सामर्थ्य, सत्य-असत्य का निर्णय
१४) विज्ञान = पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को विशेषता से जानकार उनसे यथायोग्य उपयोग लेना।
१५) आस्तिक्य = कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व-परजन्म, धर्म, विद्या, सत्संग की निन्दा कभी न करना और माता, पिता, आचार्य और अतिथियों की सेवा को न छोड़ना

कलियुग का प्रभाव नाशक मन्त्र

महाभारत पुराण में लिखा गया है कि कर्कोटक नाग, नल-दमयन्ती और ऋतुपर्ण का नाम लेने से कलियुग का प्रभाव नहीं होता। इसलिए श्रद्धा-भाव से पाठ-पूजा के वक्त इस मंत्र द्वारा इनका नाम स्मरण करें - 

कर्कोटस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।
ऋतुपर्णस्य राजर्षे: कीर्तनं कलिनाशनम्।। 

रुद्राभिषेक का महत्त्व

 शिव के रुद्राभिषेक से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है साथ ही ग्रह जनित दोषों और रोगों से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है। रूद्रहृदयोपनिषद अनुसार शिव हैं –
सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:
अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं। भगवान शंकर सर्व कल्याणकारी देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी पूजा,अराधना समस्त मनोरथ को पूर्ण करती है। हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान शिव का पूजन करने से सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूर्ण होती हैं। भगवान शिव को शुक्लयजुर्वेद अत्यन्त प्रिय है कहा भी गया है वेदः शिवः शिवो वेदः। इसी कारण ऋषियों ने शुकलयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से रुद्राभिषेक करने का विधान शास्त्रों में बतलाया गया है यथा –
यजुर्मयो हृदयं देवो यजुर्भिः शत्रुद्रियैः।
पूजनीयो महारुद्रो सन्ततिश्रेयमिच्छता।।
विधि से रुद्राभिषेक करने से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है ।जाबालोपनिषद में याज्ञवल्क्य ने कहा – शतरुद्रियेणेति अर्थात शतरुद्रिय के सतत पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। परन्तु जो भक्त यजुर्वेदीय विधि-विधान से पूजा करने में असमर्थ हैं या इस विधान से परिचित नहीं हैं वे लोग केवल भगवान शिव के षडाक्षरी मंत्र– ॐ नम:शिवाय (Om Namah Shivaya ) का जप करते हुए रुद्राभिषेक का पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकते है।महाशिवरात्रि पर शिव-आराधना करने से महादेव शीघ्र ही प्रसन्न होते है। शिव भक्त इस दिन अवश्य ही शिवजी का अभिषेक करते हैं।
क्या है रुद्राभिषेक ?
अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है – स्नान करना अथवा कराना। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान रुद्ररूप शिव को कराया जाता है। वर्तमान समय में अभिषेक रुद्राभिषेक के रुप में ही विश्रुत है। अभिषेक के कई रूप तथा प्रकार होते हैं। शिव जी को प्रसंन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी अपनी जटा में गंगा को धारण करने से भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना गया है।
रुद्राभिषेक क्यों करते हैं?
शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।
रुद्राभिषेक का आरम्भ कैसे हुआ ?
प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी जबअपने जन्म का कारण जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो उन्होंने ब्रह्मा की उत्पत्ति का रहस्य बताया और यह भी कहा कि मेरे कारण ही आपकी उत्पत्ति हुई है। परन्तु ब्रह्माजी यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध से नाराज भगवान रुद्र लिंग रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का आदि अन्त जब ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला तो हार मान लिया और लिंग का अभिषेक किया, जिससे भगवान प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि यहीं से रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।
यह भी माना जाता है की समुद्र मंथन के समय बिश पीने से जो भगवान शिव को जलन हुई, उससे राहत दिलाने के लिए शिव पर गंगा जल डाला गया। कहा जाता है कि यहीं से भी रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।
एक अन्य कथा के अनुसार ––
एक बार भगवान शिव सपरिवार वृषभ पर बैठकर विहार कर रहे थे। उसी समय माता पार्वती ने मर्त्यलोक में रुद्राभिषेक कर्म में प्रवृत्त लोगो को देखा तो भगवान शिव से जिज्ञासा कि की हे नाथ मर्त्यलोक में इस इस तरह आपकी पूजा क्यों की जाती है? तथा इसका फल क्या है? भगवान शिव ने कहा – हे प्रिये! जो मनुष्य शीघ्र ही अपनी कामना पूर्ण करना चाहता है वह आशुतोषस्वरूप मेरा विविध द्रव्यों से विविध फल की प्राप्ति हेतु अभिषेक करता है। जो मनुष्य शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से अभिषेक करता है उसे मैं प्रसन्न होकर शीघ्र मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ। जो व्यक्ति जिस कामना की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक करता है वह उसी प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग करता है अर्थात यदि कोई वाहन प्राप्त करने की इच्छा से रुद्राभिषेक करता है तो उसे दही से अभिषेक करना चाहिए यदि कोई रोग दुःख से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे कुशा के जल से अभिषेक करना या कराना चाहिए।

श्रीराधा और उनके नाम की महिमा


राधा राधा नाम को सपनेहूँ जो नर लेय।
ताको मोहन साँवरो रीझि अपनको देय।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–उन राधा से भी उनका ‘राधा’ नाम मुझे अधिक मधुर और प्यारा लगता है। ‘राधा’ शब्द कान में पड़ते ही मेरे हृदय की सम्पूर्ण कलियां खिल उठती हैं। कोई भी मुझे प्रेम से राधा नाम सुनाकर खरीद सकता है। राधा मेरा सदा बंधा-बंधाया मूल्य है। राधा समस्त प्रेमीजनों की मुकुटमणि है। राधा के समान प्राणाधिक प्रिय दूसरा कहीं कोई नहीं है। वह सदा-सर्वदा मेरे वक्ष:स्थल पर निवास करती हैं।

श्रीराधा नाम की महिमा को श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बताया है–’जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुन लेता हूं, उसी समय उसे अपनी उत्तम भक्ति-प्रेम दे देता हूं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो वह दौड़कर श्रीहरि के धाम में पहुंच जाता है।’

‘रा’ शब्द का उच्चारण करने पर उसे सुनते ही माधव हर्ष से फूल जाते हैं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्रीराधा का नाम-श्रवण करने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूं।’

सामवेद में ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है। ‘राधा’ नाम के पहले अक्षर ‘र’ का उच्चारण करते ही करोड़ों जन्मों के संचित पाप और शुभ-अशुभ कर्मों के भोग नष्ट हो जाते हैं। ‘आकार’ के उच्चारण से गर्भवास (जन्म), मृत्यु और रोग आदि छूट जाते हैं। ‘ध’ के उच्चारण से आयु की वृद्धि होती है और आकार के उच्चारण से जीव भवबंधन से मुक्त हो जाता है। राधा नाम का ‘र’ श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की भक्ति और दास्य प्रदान करता है। ‘आकार’ समस्त अभिलाषित पदार्थ और सिद्धियों की खान ईश्वर की प्राप्ति कराता है। ‘धकार’ का उच्चारण भगवान के साथ अनन्तकाल तक रहने का सुख, सारूप्य और उनका तत्वज्ञान प्रदान करता है। ‘आकार’ श्रीहरि की भांति तेजोराशि, दानशक्ति, योगशक्ति और श्रीहरि की स्मृति प्रदान करता है।

जानिए किस कामना के लिए क्या प्रदार्थ एवं कौनसा फूल शिव को चढ़ाएं

जानिए किस कामना के लिए क्या प्रदार्थ एवं कौनसा फूल शिव को चढ़ाएं -👇
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👉 वाहन सुख के लिए चमेली का फूल।
👉 दौलतमंद बनने के लिए कमल का फूल, शंखपुष्पी या बिल्वपत्र।
👉 विवाह में समस्या दूर करने के लिए बेला के फूल। इससे योग्य वर-वधू मिलते हैं।
👉 पुत्र प्राप्ति के लिए धतुरे का लाल फूल वाला धतूरा शिव को चढ़ाएं। यह न मिलने पर सामान्य धतूरा ही चढ़ाएं।
👉 मानसिक तनाव दूर करने के लिए शिव को शेफालिका के फूल चढ़ाएं।
👉 जूही के फूल को अर्पित करने से अपार अन्न-धन की कमी नहीं होती।
👉 अगस्त्य के फूल से शिव पूजा करने पर पद, सम्मान मिलता है।
👉 शिव पूजा में कनेर के फूलों के अर्पण से वस्त्र-आभूषण की इच्छा पूरी होती है।
👉 लंबी आयु के लिए दुर्वाओं से शिव पूजन करें।
👉सुख-शांति और मोक्ष के लिए महादेव की तुलसी के पत्तों या सफेद कमल के फूलों से पूजा करें।
इसी तरह भगवान शिव की प्रसन्नता से मनोरथ पूरे करने के लिए शिव पूजा में कई तरह के अनाज चढ़ाने का महत्व बताया गया है। इसलिए श्रद्धा और आस्था के साथ इस उपाय को भी करना न चूकें। जानिए किस अन्न के चढ़ावे से कैसी कामना पूरी होती है -
👉 शिव पूजा में गेहूं से बने व्यंजन चढ़ाने पर कुंटुब की वृद्धि होती है।
👉 मूंग से शिव पूजा करने पर हर सुख और ऐश्वर्य मिलता है।
👉 चने की दाल अर्पित करने पर श्रेष्ठ जीवन साथी मिलता है।
👉 कच्चे चावल अर्पित करने पर कलह से मुक्ति और शांति मिलती है।
👉तिलों से शिवजी पूजा और हवन में एक लाख आहुतियां करने से हर पाप का अंत हो जाता है।
👉  उड़द चढ़ाने से ग्रहदोष और खासतौर पर शनि पीड़ा शांति होती है।
इसी तरह भगवान शिव की प्रसन्नता से मनोरथ पूरे करने के लिए शिव पूजा में कई तरह के अनाज चढ़ाने का महत्व बताया गया है। इसलिए श्रद्धा और आस्था के साथ इस उपाय को भी करना न चूकें। जानिए किस अन्न के चढ़ावे से कैसी कामना पूरी होती है -
👉 शिव पूजा में गेहूं से बने व्यंजन चढ़ाने पर कुंटुब की वृद्धि होती है।
👉 मूंग से शिव पूजा करने पर हर सुख और ऐश्वर्य मिलता है।
👉 चने की दाल अर्पित करने पर श्रेष्ठ जीवन साथी मिलता है।
👉 कच्चे चावल अर्पित करने पर कलह से मुक्ति और शांति मिलती है।
👉 तिलों से शिवजी पूजा और हवन में एक लाख आहुतियां करने से हर पाप का अंत हो जाता है।
👉 उड़द चढ़ाने से ग्रहदोष और खासतौर पर शनि पीड़ा शांति होती है।
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शिव संदेश

भगवान शिव ने देवी पार्वती को समय-समय पर कई ज्ञान की बातें बताई हैं। जिनमें मनुष्य के सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और वैवाहिक जीवन की बातें शामिल हैं। भगवान शिव ने देवी पार्वती को 5 ऐसी बातें बताई थीं जो हर मनुष्य के लिए उपयोगी हैं, जिन्हें जानकर उनका पालन हर किसी को करना ही चाहिए-
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*1. क्या है सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ा पाप*
देवी पार्वती के पूछने पर भगवान शिव ने उन्हें मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा धर्म और अधर्म मानी जाने वाली बात के बारे में बताया है। भगवान शंकर कहते है-
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*श्लोक-*
नास्ति सत्यात् परो नानृतात् पातकं परम्।।
*अर्थात-*
मनुष्य के लिए सबसे बड़ा धर्म है सत्य बोलना या सत्य का साथ देना और सबसे बड़ा अधर्म है असत्य बोलना या उसका साथ देना।
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इसलिए हर किसी को अपने मन, अपनी बातें और अपने कामों से हमेशा उन्हीं को शामिल करना चाहिए, जिनमें सच्चाई हो, क्योंकि इससे बड़ा कोई धर्म है ही नहीं। असत्य कहना या किसी भी तरह से झूठ का साथ देना मनुष्य की बर्बादी का कारण बन सकता है।
.
*2. काम करने के साथ इस एक और बात का रखें ध्यान,,,,,*
.
*श्लोक-*
आत्मसाक्षी भवेन्नित्यमात्मनुस्तु शुभाशुभे।
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*अर्थात-*
मनुष्य को अपने हर काम का साक्षी यानी गवाह खुद ही बनना चाहिए, चाहे फिर वह अच्छा काम करे या बुरा। उसे कभी भी ये नहीं सोचना चाहिए कि उसके कर्मों को कोई नहीं देख रहा है।
कई लोगों के मन में गलत काम करते समय यही भाव मन में होता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा और इसी वजह से वे बिना किसी भी डर के पाप कर्म करते जाते हैं, लेकिन सच्चाई कुछ और ही होती है। मनुष्य अपने सभी कर्मों का साक्षी खुद ही होता है। अगर मनुष्य हमेशा यह एक भाव मन में रखेगा तो वह कोई भी पाप कर्म करने से खुद ही खुद को रोक लेगा।
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*3. कभी न करें ये तीन काम करने की इच्छा,,,,,*
*श्लोक-*
मनसा कर्मणा वाचा न च काड्क्षेत पातकम्।
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*अर्थात-*
आगे भगवान शिव कहते है कि- किसी भी मनुष्य को मन, वाणी और कर्मों से पाप करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य जैसा काम करता है, उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है।
.
यानि मनुष्य को अपने मन में ऐसी कोई बात नहीं आने देना चाहिए, जो धर्म-ग्रंथों के अनुसार पाप मानी जाए। न अपने मुंह से कोई ऐसी बात निकालनी चाहिए और न ही ऐसा कोई काम करना चाहिए, जिससे दूसरों को कोई परेशानी या दुख पहुंचे। पाप कर्म करने से मनुष्य को न सिर्फ जीवित होते हुए इसके परिणाम भोगना पड़ते हैं बल्कि मारने के बाद नरक में भी यातनाएं झेलना पड़ती हैं।
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*4. सफल होने के लिए ध्यान रखें ये एक बात*
संसार में हर मनुष्य को किसी न किसी मनुष्य, वस्तु या परिस्थित से आसक्ति यानि लगाव होता ही है। लगाव और मोह का ऐसा जाल होता है, जिससे छूट पाना बहुत ही मुश्किल होता है। इससे छुटकारा पाए बिना मनुष्य की सफलता मुमकिन नहीं होती, इसलिए भगवान शिव ने इससे बचने का एक उपाय बताया है।
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*श्लोक-*
दोषदर्शी भवेत्तत्र यत्र स्नेहः प्रवर्तते। अनिष्टेनान्वितं पश्चेद् यथा क्षिप्रं विरज्यते।।
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*अर्थात-*
भगवान शिव कहते हैं कि- मनुष्य को जिस भी व्यक्ति या परिस्थित से लगाव हो रहा हो, जो कि उसकी सफलता में रुकावट बन रही हो, मनुष्य को उसमें दोष ढूंढ़ना शुरू कर देना चाहिए। सोचना चाहिए कि यह कुछ पल का लगाव हमारी सफलता का बाधक बन रहा है। ऐसा करने से धीरे-धीरे मनुष्य लगाव और मोह के जाल से छूट जाएगा और अपने सभी कामों में सफलता पाने लगेगा।
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*5. यह एक बात समझ लेंगे तो नहीं करना पड़ेगा दुखों का सामना,,,,,*
*श्लोक-*
नास्ति तृष्णासमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।
सर्वान् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
.
*अर्थात-*
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आगे भगवान शिव मनुष्यो को एक चेतावनी देते हुए कहते हैं कि- मनुष्य की तृष्णा यानि इच्छाओं से बड़ा कोई दुःख नहीं होता और इन्हें छोड़ देने से बड़ा कोई सुख नहीं है।
मनुष्य का अपने मन पर वश नहीं होता। हर किसी के मन में कई अनावश्यक इच्छाएं होती हैं और यही इच्छाएं मनुष्य के दुःखों का कारण बनती हैं। जरुरी है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं में अंतर समझे 

किस रोग में कौन सा आसन करें

👉🏻 पेट की बिमारियों में- उत्तानपादासन, पवनमुक्तासन, वज्रासन, योगमुद्रासन, भुजंगासन, मत्स्यासन।
👉🏻 सिर की बिमारियों में- सर्वांगासन, शीर्षासन, चन्द्रासन।
👉🏻 मधुमेह- पश्चिमोत्तानासन, नौकासन, वज्रासन, भुजंगासन, हलासन, शीर्षासन।
👉🏻 वीर्यदोष– सर्वांगासन, वज्रासन, योगमुद्रा।
👉🏻 गला- सुप्तवज्रासन, भुजंगासन, चन्द्रासन।
👉🏻 आंखें- सर्वांगासन, शीर्षासन, भुजंगासन।
👉🏻 गठिया– पवनमुक्तासन, पद्मासन, सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, उष्ट्रासन।
👉🏻 नाभि- धनुरासन, नाभि-आसन, भुजंगासन।
👉🏻 गर्भाशय– उत्तानपादासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, ताड़ासन, चन्द्रानमस्कारासन।
👉🏻 कमर दर्द – हलासन, चक्रासन, धनुरासन, भुजंगासन।
👉🏻 फेफड़े- वज्रासन, मत्स्यासन, सर्वांगासन।
👉🏻 यकृत- लतासन, पवनमुक्तासन, यानासन।
👉🏻 गुदा,बवासीर,भंगदर आदि में- उत्तानपादासन, सर्वांगासन, जानुशिरासन, यानासन।
👉🏻 दमा- सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, भुजंगासन।
👉🏻 अनिद्रा- शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, योगमुद्रासन।
👉🏻 गैस– पवनमुक्तासन, जानुशिरासन, योगमुद्रा, वज्रासन।
👉🏻 जुकाम– सर्वांगासन, हलासन, शीर्षासन।
👉🏻 मानसिक शांति के लिए– सिद्धासन, योगासन, शतुरमुर्गासन, खगासन योगमुद्रासन।
👉🏻 रीढ़ की हड्डी के लिए- सर्पासन, पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, शतुरमुर्गासन करें।
👉🏻 गठिया के लिए- पवनमुक्तासन, साइकिल संचालन, ताड़ासन किया करें।
👉🏻 गुर्दे की बीमारी में– सर्वांगासन, हलासन, वज्रासन, पवनमुक्तासन करें।
👉🏻 गले के लिए- सर्पासन, सर्वांगासन, हलासन, योगमुद्रा करें।
👉🏻 हृदय रोग के लिए- शवासन, साइकिल संचालन, सिद्धासन किया करें।
👉🏻 दमा के लिए- सुप्तवज्रासन, सर्पासन, सर्वांगासन, पवनतुक्तासन, उष्ट्रासन करें।
👉🏻 रक्तचाप के लिए– योगमुद्रासन, सिद्धासन, शवासन, शक्तिसंचालन क्रिया करें।
👉🏻 सिर दर्द के लिए- सर्वांगासन, सर्पासन, वज्रासन, धनुरासन, शतुरमुर्गासन करें।
👉🏻 पाचन शक्ति बढ़ाने के लिए- यानासन, नाभि आसन, सर्वांगासन, वज्रासन करें।
👉🏻 मधुमेह के लिए- मत्स्यासन, सुप्तवज्रासन, योगमुद्रासन, हलासन, सर्वांगासन, उत्तानपादासन करें।
👉🏻 मोटापा घटाने के लिए– पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, सर्पासन, वज्रासन, नाभि आसन करें।
👉🏻 आंखों के लिए- सर्वांगासन, सर्पासन, वज्रासन, धनुरासन, चक्रासन करें।
👉🏻 बालों के लिए– सर्वांगासन, सर्पासन, शतुरमुर्गासन, वज्रासन करें।
👉🏻 प्लीहा के लिए- सर्वांगासन, हलासन, नाभि आसन, यानासन करें।
👉🏻 कमर के लिए– सर्पासन, पवनमुक्तासन, सर्वांगासन, वज्रासन, योगमुद्रासन करें।
👉🏻 कद बड़ा करने के लिए- ताड़ासन, शक्ति संचालन, धनुरासन, चक्रासन, नाभि आसन करें।
👉🏻 कानों के लिए– सर्वांगासन, सर्पासन, धनुरासन, चक्रासन करें।
👉🏻 नींद के लिए– सर्वांगासन, सर्पासन, सुप्तवज्रासन, योगमुद्रासन, नाभि आसन करें।
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श्रीरामरक्षा स्तोत्र

श्रीरामरक्षा स्तोत्र सभी तरह की विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य भय रहित हो जाता है। एक कथा है कि भगवान शंकर ने बुधकौशिक ऋषि को स्वप्न में दर्शन देकर, उन्हें रामरक्षास्तोत्र सुनाया और प्रातःकाल उठने पर उन्होंने वह लिख लिया। यह स्तोत्र संस्कृत भाषा में है। इस स्तोत्र के नित्य पाठ से घर के कष्ट  व भूतबाधा भी दूर होती है। जो इस स्तोत्र का पाठ करता है वह दीर्घायु, सुखी, संततिवान, विजयी तथा विनयसंपन्न होता है। रामरक्षा स्तोत्र का नियमित एक  पाठ करने से शरीर रक्षा होती है। मंगल का कुप्रभाव समाप्त होता है। रामरक्षा स्तोत्र के प्रभाव से व्यक्ति के चारों और एक सुरक्षा कवच बन जाता है जिससे हर प्रकार की विपत्ति से रक्षा होती है। यदि गर्भवती स्त्री रोजाना इस स्तोत्र का पाठ करे तो इसके शुभ प्रभाव से गर्भ रक्षा होती है।  स्वस्थ, सौभाग्यशाली एवं आज्ञाकारी संतान प्राप्त होती है। रामरक्षा स्तोत्र पाठ से भगवान राम के साथ पवनपुत्र हनुमान भी प्रसन्न होते हैं।

सर्पप्रथम हाथ में जल लेकर विनियोग मंत्र बोलें-

विनियोग र् अस्य श्री रामरक्षा स्तोत्र मंत्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्रीसीतारामचंद्रो देवता अनुष्टुप छंदः सीता शक्तिः श्रीमान हनुमान कीलकम श्री रामचंद्र प्रीत्यर्थे रामरक्षा स्तोत्रजपे विनियोगः।

जल को जमीन पर छोड़ दें।

अब इस ध्यान मंत्र से श्री राम के दिव्य स्वरुप का चिंतन करें।

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपदमासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमल दल स्पर्धिनेत्रम् प्रसन्नम। वामांकारूढ़ सीता मुखकमलमिलल्लोचनम् नीरदाभम् नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलम् रामचंद्रम ।।

स्तोत्र

चरितं रघुनाथस्य शतकोटि प्रविस्तरम् । एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् । 1।

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितं ।2।

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम्। स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्  ।।3।।

रामरक्षां पठेत प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम्। शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः  ।। 4।।

कौसल्येयो दृशो पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुति।  घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ।।5।।

जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः।  स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ।।6।।

करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित। मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ।।7।।

सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः।  उरु रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृताः  ।।8।।

जानुनी सेतुकृत पातु जंघे दशमुखांतकः। पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामअखिलं वपुः ।।9।।

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृति पठेत। स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ।।10।।

पातालभूतल व्योम चारिणश्छद्मचारिणः। न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं  रामनामभिः ।।11।।

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन। नरौ न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।।12।।

जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्। यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ।।13।।

वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत। अव्याहताज्ञाः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ।।14।।

आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः। तथा लिखितवान् प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ।।15।।

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्। अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान स नः प्रभुः ।।16।।

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ। पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ।।17।।

फलमूलाशिनौ  दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ। पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ।।18।।

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ।।19।।

आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशा वक्ष याशुगनिषङ्गसङ्गिनौ। रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम ।।20।।

सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा। गच्छन् मनोरथान नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ।।21।।

रामो दाशरथी शूरो लक्ष्मणानुचरो बली। काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ।।22।।

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः। जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः।।23।।

इत्येतानि जपन नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः। अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति न संशयः ।।24।।

रामं दुर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम। स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नरः ।।25।।

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम।

राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शांतमूर्तिं वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम।।26।।

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ।।27।।

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम। श्रीराम राम रणकर्कश राम राम। श्रीराम राम शरणं भव राम राम ।।28।।

श्रीराम चन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि श्रीराम चंद्रचरणौ वचसा गृणामि। श्रीराम चन्द्रचरणौ शिरसा नमामि श्रीराम चन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ।।29।।

माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ।।30।।

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च  जनकात्मज। पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ।।31।।

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथं। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ।।32।।

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीराम दूतं शरणं प्रपद्ये ।।33।।

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम। आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम ।।34।।

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्। लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ।।35।।

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम्। तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ।।36।।

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः।

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धराः।।37।।

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ।।38।।

। ।  इति श्रीबुद्ध कौशिकमुनि विरचितं श्रीरामरक्षा स्तोत्रम संपूर्णम् । ।

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