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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बाबा गेपरनाथ

बाबा गेपरनाथ की महिमा गेपरनाथ महादेव मन्दिर में शिवलिंग पर अपने आप जलाभिषेक होता है | यहाँ जो भी बाबा का दर्शन करता है उसकी हर मनोकामना पूरी हो जाती है | शिवरात्रि में जो बाबा का दर्शन करता है उसकी हर मनोकामना बाबा पूरी करते हैं | कोटा से 22 किलोमीटर दूर चम्बल नदी पर यह एक मनोरम स्थान है। चम्बल के किनारे नदी से कोई आधा से एक किलोमीटर दूर एक सड़क कोटा से रावतभाटा जाती है। रतकाँकरा गांव के पास इसी सड़क से कोई आधाकिलोमीटर चम्बल की ओर चलने पर यकायक गहराई में एक घाटी नजर आती है। जिस में तीन सौ फीट नीचे एक झरना, झरने के गिरने से बना प्राकृतिक कुंड है। वहीं एक प्राचीन शिव मंदिर है। बरसात में यह स्थान मनोरम हो उठता है और हर अवकाश के दिन वहाँ दिन भर कम से कम दो से तीन हजार लोग पिकनिक मनाने पहुँचते हैं। पानी कुंड से निकल कर चम्बल की और बहता है और बीच में तीन-चार झरने और बनाता है मगर वहाँ तक पहुँचना दुर्गम है। दुस्साहस कर के ही वहाँ जाया जा सकता है। ऊपर भूमि से नीचे कुंड, झरने और मंदिर तक पहुँचने के लिए सीधे उतार पर तंग सीढ़ियाँ हैं चार-सौ के लगभग । हालांकि वहाँ नीचे रात रहने में खास परेशा

माँ सीता की रसोई और हनुमान जी का भोजन

घटना उस समय की है जब श्री राम और देवी सीता वनवास की अवधि पूरी करके अयोध्या लौट चुके हैं| अन्य सब लोग तो श्री राम के राज्याभिषेक के उपरांत अपने अपने राज्यों को लौट गए, किंतु हनुमान जी ने श्री राम प्रबु के चरणों में रहने को ही जीवन का लक्ष्य माना| एक दिन देवी सीता के मन में आया कि हनुमान ने लंका में आकर मुझे खोज निकाला और फिर युद्ध में भी श्री राम को अनुपम सहायता की, अब भी अपने घर से दूर रह कर हमारी सेवा करते हैं, तो मुझे भी उनके सम्मान में कुछ करना चाहिए| यह विचार कर उन्होंने हनुमान को अपनी रसोई से भोजन के लिए आमंत्रित कर डाला| माँ स्बयम पका कर खिलाएँगी आज अपने पुत्र हनुमान को| सुबह से माता रसोई में व्यस्त हैं| हर प्रकार से हनुमान जी की पसंद के भोजन पकाए जा रहे हैं| एक थाल में मोतीचूर के लड्डू सजे हैं, तो दुसरे में जलेबियाँ| पूड़ी और कचोरी और बूंदी भी पकाए जा रहे हैं| आज किसी को भोजन की आज्ञा नहीं जब तक कि हनुमान न खा लें| प्रभु राम, भरता लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न सभी प्रतीक्षा में हैं कि कब हनुमान भोजन के लिए आयें और कब हमारी भी पेट पूजा हो| दोपहर हुई और  निमंत्रण के समय अन्य्सार

क्या है ब्रह्मचर्य ?

 वेदव्यास जी ने कहा है: ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः ʹविषय-इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले सुख का संयमपूर्वक त्याग करना ब्रह्मचर्य है।ʹ शक्ति, प्रभाव और सभी क्षेत्रों में सफलता की कुंजी – ब्रह्मचर्य राजा जनक शुकदेव जी से बोलेः तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण वा विभो। ʹबाल्यावस्था में विद्यार्थी को तपस्या, गुरु की सेवा, ब्रह्मचर्य का पालन एवं वेदाध्ययन करना चाहिए।ʹ (महाभारत, मोक्षधर्म पर्वः 326.15) ब्रह्मचर्य का ऊँचे-में-ऊँचा अर्थ हैः ब्रह्म में विचरण करना। ʹजो मैं हूँ वही ब्रह्म है और जो ब्रह्म है वही मैं हूँ....ʹ ऐसा अनुभव जिसे हो जाये वही ब्रह्मचारी है। ʹव्रतों में ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट है।ʹ (अथर्ववेद) ʹअब्रह्मचर्य घोर प्रमादरूप पाप है।ʹ (दश वैकालिक सूत्रः 6.17) अतः चलचित्र और विकारी वातावरण से अपने को बचायें। पितामह भीष्म, हनुमानजी और गणेशजी का चिंतन करने से रक्षण होता है। "मैं विद्यार्थियों और युवकों से यही कहता हूँ कि वे ब्रह्मचर्य और बल की उपासना करें। बिना शक्ति व बुद्धि के, अधिकारों की रक्षा और प्राप्ति नहीं हो सकती। देश की स्वतंत्रता व

सनातन धर्म के अकाट्य मन्त्र

1---अच्युताय नम:, अनन्ताय नम: गोविदाय नम:----इस मन्त्र का निरंतर जाप करने से हर प्रकार के रोगों का नाश होता है, तब तक रोगों से मुक्ति न मिले, श्रद्धा-पूर्वक जपना ही चाहिए l सतत जाप करने से असाध्य रोगों का भी नाश हो जाता है l 2---गच्छ गौतम शीघ्रं त्वं ग्रामेषु नगरेषु च l    आसनं भोजनं यानं सर्वं मे परिकल्पय ll इस मन्त्र का जाप करने से सभी तरह से साधन सुलभ होकर यात्रा सुखद होती है l 3---सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष l जन्मेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर  ll आस्तीकवचनं स्मृत्वा य: सर्पो न निवर्तते l शतधा भिद्यते मूर्धीन शिंशपावृक्षको यथा ll जब कभी सर्प दिखाई दे, उस समय इस मन्त्र को जोर-जोर से सर्प के सामने कहने से सर्प बिना किसीको काटे लौट जाता है l रात्री में सोते समय इस मन्त्र को कहा जा सकता है, वैसे इसे कंठस्थ कर लेना चाहिए l

लिङ्गाष्टकं

शिव मंत्र स्तुति ========== ब्रह्ममुरारी सुरार्चित लिंगं, बुद्धी विवरधन कारण लिंगं। संचित पाप विनाशन लिंगं, दिनकर कोटी प्रभाकर लिंगं। तत्प्रणमामि सदाशिव लिंगं ।1। देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गम् कामदहम् करुणाकर लिङ्गम्।  रावणदर्पविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।2। सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गम् बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम्।  सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।3। कनकमहामणिभूषितलिङ्गम् फनिपतिवेष्टित शोभित लिङ्गम्।  दक्षसुयज्ञ विनाशन लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।4। कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गम् पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम्। सञ्चितपापविनाशनलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम।5। देवगणार्चित सेवितलिङ्गम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम्। दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्।6। अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गम् सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम्।  अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम्।7। सुरगुरुसुरवरपूजित लिङ्गम् सुरवनपुष्प सदार्चित लिङ्गम्। परात्परं परमात्मक लिङ्गम् तत् प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ।8। लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत्

संतवाणी

परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही तो मानवजन्म मिला है,नहीं तो पशुमें और मनुष्यमें क्या फर्क हुआ ? खादते मोदते नित्यं  शुनकः  शूकरः  खरः । तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी ॥ ........     .........   .......... सूकर कूकर ऊँट खर,   बड़  पशुअन  में चार । तुलसी हरि की भगति बिनु, ऐसे ही नर नार ॥     (स्वामी रामसुखदास जी महाराज)

भगवान शिव के सामने ही क्यों होती हे नंदी की प्रतिमा?

पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की। भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से

भगवान राम का स्वलोक गमन

एक दिन राम सिंहासन पर विराजमान थे तभी उनकी अंगूठी गिर गई। गिरते ही वह भूमि के एक छेद में चली गई। हनुमान ने यह देखा तो उन्होंने लघु रूप धरा और उस छेद में से अंगूठी निकालने के लिए घुस गए। हनुमान तो ऐसे हैं कि वे किसी भी छिद्र में घुस सकते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो। . छेद में चलते गए, लेकिन उसका कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा था तभी अचानक वे पाताल लोक में गिर पड़े। पाताल लोक की कई स्त्रियां कोलाहल करने लगीं- 'अरे, देखो-देखो, ऊपर से एक छोटा-सा बंदर गिरा है।' उन्होंने हनुमान को पकड़ा और एक थाली में सजा दिया। . पाताल लोक में रहने वाले भूतों के राजा को जीव-जंतु खाना पसंद था इसलिए छोटे-से हनुमानजी को बंदर समझकर उनके भोजन की थाली में सजा दिया। थाली पर बैठे हनुमान पसोपेश में थे कि अब क्या करें। उधर, रामजी हनुमानजी के छिद्र से बाहर निकलने का इंतजार कर रहे थे। तभी महर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे मिलने आए। उन्होंने राम से कहा- 'हम आपसे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बात सुने या उसमें बाधा डाले। क्या आपको यह स्वीकार है?' . प्रभु श्रीराम

*एकादशी दो प्रकार की होती है।*

*(1)सम्पूर्णा     (2) विद्धा* *सम्पूर्णा:-* जिस तिथि में केवल एकादशी तिथि होती है अन्य किसी तिथि का उसमे मिश्रण नही होता उसे सम्पूर्णा एकादशी कहते है। *विद्धा एकादशी पुनः दो प्रकार की होती है* *(1) पूर्वविद्धा (2) परविद्धा* *पूर्वविद्धा:-* दशमी मिश्रित एकादशी को पूर्वविद्धा एकादशी कहते हैं।यदि एकादशी के दिन अरुणोदय काल (सूरज निकलने से 1घंटा 36 मिनट का समय) में यदि दशमी का नाम मात्र अंश भी रह गया तो ऐसी एकादशी पूर्वविद्धा दोष से दोषयुक्त होने के कारण वर्जनीय है यह एकादशी दैत्यों का बल बढ़ाने वाली है।पुण्यों का नाश करने वाली है। *पद्मपुराण में वर्णित है।* *" वासरं दशमीविधं दैत्यानां पुष्टिवर्धनम।* *मदीयं नास्ति सन्देह: सत्यं सत्यं पितामहः।।* " दशमी मिश्रित एकादशी दैत्यों के बल बढ़ाने वाली है इसमें कोई भी संदेह नही है।" *परविद्धा:-* द्वादशी मिश्रित एकादशी को परविद्धा एकादशी कहते हैं! *" द्वादशी मिश्रिता ग्राह्य सर्वत्र एकादशी तिथि:* "द्वादशी मिश्रित एकादशी सर्वदा ही ग्रहण करने योग्य है।" इसलिए भक्तों को परविद्धा एकादशी ही रखनी चाहिए।ऐसी एकादशी

बृहस्पति द्वारा ममतामें गर्भाधानका रहस्य

 पुराणादि सच्छास्त्रों में कई ऐसे अद्भुत  कथानक आते हैं कि सीधा सीधा अक्षरार्थ लेने पर बहुत ही विपरीत व हास्यप्रद होता है।किंतु  इन आर्ष ग्रंथों की शैली व भाषा विलक्षण है। कहीं आध्यात्मिक , तो कहीं आधिभौतिक ,कहीं आधिदैविक व कहीं तीनों या कोई दो प्रकार के अर्थ गुम्फित रहते हैं। अतः इनका ज्ञान आचार्य परंपरा द्वारा अविच्छिन्न परंपरा प्रणाली से ही संभव होता है। कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो,स्वतः इनके मर्मको यथावत् नही समझ सकता। केवल ""राजा हुए रानी हुई पांच दस पुत्र हुए, उसने उसको मारा""इत्यादि बातें ही स्वतः पढ़ी जा सकतीं हैं, उसके निहित भाव नहीं।       ऐसी ही एक घटना का वर्णन  भागवत जी में किया गया है। जो आपाततः बड़ी ही वीभत्स लगती है----       अन्तर्वर्त्न्यां  भातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पति:।       प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत्।(भाग.९-२०-३६)।अर्थ--गर्भवती भाई की पत्नी के साथ बृहस्पति  मैथुन के लिए प्रवृत्त हुए।गर्भस्थ शिशु के द्वारा  निवारण करने पर उसे अंधा होजाने का शाप देकर बाहर ही वीर्य छोंड़ दिया।इत्यादि।  पूरे श्लोकको  न लिखकर केवल कथानक लिखते

श्री नृसिंह स्तवः गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय

प्रहलाद ह्रदयाहलादं भक्ता विधाविदारण। शरदिन्दु रुचि बन्दे पारिन्द् बदनं हरि ॥१॥ नमस्ते नृसिंहाय प्रहलादाहलाद-दायिने। हिरन्यकशिपोर्ब‍क्षः शिलाटंक नखालये ॥२॥ इतो नृसिंहो परतोनृसिंहो, यतो-यतो यामिततो नृसिंह। बर्हिनृसिंहो ह्र्दये नृसिंहो, नृसिंह मादि शरणं प्रपधे ॥३॥ तव करकमलवरे नखम् अद् भुत श्रृग्ङं। दलित हिरण्यकशिपुतनुभृग्ङंम्। केशव धृत नरहरिरुप, जय जगदीश हरे ॥४॥ वागीशायस्य बदने लर्क्ष्मीयस्य च बक्षसि। यस्यास्ते ह्र्देय संविततं नृसिंहमहं भजे ॥५॥ श्री नृसिंह जय नृसिंह जय जय नृसिंह। प्रहलादेश जय पदमामुख पदम भृग्ह्र्म ॥६॥

सच्चा इंसान

रामानुजाचार्य प्राचीन काल में हुए एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उनका जन्म मद्रास नगर के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था। . बाल्यकाल में इन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा गया। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। . शिक्षा समाप्त होने पर वे बोले-‘पुत्र, मैं तुम्हें एक मंत्र की दीक्षा दे रहा हूँ। इस मंत्र के सुनने से भी स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।’ . रामानुज ने श्रद्धाभाव से मंत्र की दीक्षा दी। वह मंत्र था-‘ऊँ नमो नारायणाय’। . आश्रम छोड़ने से पहले गुरु ने एक बार फिर चेतावनी दी-‘रामानुज, ध्यान रहे यह मंत्र किसी अयोग्य व्यक्ति के कानों में न पड़े।’ . रामानुज ने मन ही मन सोचा-‘इस मंत्र की शक्ति कितनी अपार है। यदि इसे केवल सुनने भर से ही स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है तो क्यों न मैं सभी को यह मंत्र सिखा दूँ।’ . रामानुज के हृदय में मनुष्यमात्र के कल्याण की भावना छिपी थी। इसके लिए उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा भी भंग कर दी। . उन्होंने संपूर्ण प्रदेश में उक्त मंत्र का जाप आरंभ करवा दिया। सभी व्यक्ति वह मंत्र जपने लगे। . गुरु जी को पता लगा कि उन्हें बहुत क्रोध आया।

।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।

।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।। ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।। आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।। अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् । यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।। सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके । इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।। अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रोन्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् । तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।। कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे । गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।। गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।। ।। इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम्।।

श्री गंगा स्त्रोत्र

देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे । शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥ १ ॥ भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः । नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥ हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे । दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥ तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् । मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥ पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे । भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥ कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके । पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥ तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः । नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥ पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे । इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥ रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् । त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥ अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि क

मृत्य्वष्टकम्

     ।। मार्कण्डेय उवाच ।। नारायणं सहस्राक्षं पद्मनाभं पुरातनम् । प्रणतोऽस्मि हृषीकेशं किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। १ गोविन्दं पुण्डरीकाक्षमनन्तमजमव्ययम् । केशवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। २ वासुदेवं जगद्योनिं भानुवर्णमतीन्द्रियम् । दामोदरं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ३ शङ्खचक्रधरं देवं छन्नरुपिणमव्ययम् (छन्दोरुपिणमव्ययम्) । अधोक्षजं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ४ वाराहं वामनं विष्णुं नरसिंहं जनार्दनम् । माधवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ५ पुरुषं पुष्करं पुण्यं क्षेमबीजं जगत्पतिम् । लोकनाथं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ६ भूतात्मानं महात्मानं जगद्योनिमयोनिजम् (यज्ञयोनिमयोनिजम्) । विश्वरुपं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ७ सहस्रशीर्षसं देवं व्यक्ताऽव्यक्तं सनातनम् । महायोगं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ? ।। ८ ।।फल-श्रुति।। इत्युदीरितमाकर्ण्य स्तोत्रं तस्य महात्मनः । अपयातस्ततो मृत्युर्विष्णुदूतैश्च पीडितः ।। ९ इत्येन विजितो मृत्युर्मार्कण्डेयेन धीमता । प्रसन

मंगला गौरी स्तोत्रं

ॐ रक्ष-रक्ष जगन्माते देवि मङ्गल चण्डिके । हारिके विपदार्राशे हर्षमंगल कारिके ॥ हर्षमंगल दक्षे च हर्षमंगल दायिके । शुभेमंगल दक्षे च शुभेमंगल चंडिके ॥ मंगले मंगलार्हे च सर्वमंगल मंगले । सता मंगल दे देवि सर्वेषां मंगलालये ॥ पूज्ये मंगलवारे च मंगलाभिष्ट देवते । पूज्ये मंगल भूपस्य मनुवंशस्य संततम् ॥ मंगला धिस्ठात देवि मंगलाञ्च मंगले। संसार मंगलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् ॥ देव्याश्च मंगलंस्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः। प्रति मंगलवारे च पूज्ये मंगल सुख-प्रदे ॥ तन्मंगलं भवेतस्य न भवेन्तद्-मंगलम् । वर्धते पुत्र-पौत्रश्च मंगलञ्च दिने-दिने ॥ मामरक्ष रक्ष-रक्ष ॐ मंगल मंगले । ॥ इति मंगलागौरी स्तोत्रं सम्पूर्णं ॥

॥ श्री कालभैरवाष्टकं ॥

॥ श्री कालभैरवाष्टकं ॥ देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् । नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥ भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् । कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥ शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् । भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥ भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् । विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ४॥ धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् । स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥ रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् । मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥ अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् । अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥ भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायक

|| द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ||

|| द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् || सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम् | भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये || १|| श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम् | तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् || २|| अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् | अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् || ३|| कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय | सदैवमान्धातृपुरे वसन्तमोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे || ४|| पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् | सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि || ५|| याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः | सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये || ६|| महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः | सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे || ७|| सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरितीरपवित्रदेशे | यद्धर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे || ८|| सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्य

॥ अथ चन्द्रशेखराष्टकम् ॥

॥ अथ चन्द्रशेखराष्टकम् ॥ चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् । चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ १॥ रत्नसानुशरासनं रजतादिशृङ्गनिकेतनं सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् । क्षिप्रदघपुरत्रयं त्रिदिवालयैभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २॥ पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजदूयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रह।म् । भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशनं भवमव्ययं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ३॥ मत्त्वारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीमनोहरं पङ्कजासनपद्मलोचनपुजिताङ्घ्रिसरोरुहम् । देवसिन्धुतरङ्गसीकर सिक्तशुभ्रजटाधरं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ४॥ यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं शैलराजसुता परिष्कृत चारुवामकलेवरम् । क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ५॥ कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वरकुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् । अन्धकान्धकामा श्रिता मरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ६॥ भषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्षयज्ञर्विनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम

|| दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं ||

|| दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं || विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कणामृताय शशिशेखरधारणाय | कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || १|| गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय | गंगाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || २|| भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय | ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ३|| चर्मम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय | मंझीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ४|| पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय | आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ५|| भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय | नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ६|| रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय | पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ७|| मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय | मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ८||

सुदर्शन चक्र

प्राचीनकाल के समय की बात है, दैत्य और दानव प्रबल और शक्तिशाली होकर सभी मनुष्यों और ऋषिगणों को पीड़ा देने लगे और धर्म का लोप करने लगे | . इससे परेशान होकर सभी ऋषि और देवगण भगवान विष्णु के पास पहुंचे | विष्णु भगवान ने पूछा — देवताओं !! इस समय आपके आने का क्या कारण है ? में आप लोगों के किस काम आ सकता हूँ । नि: संकोच होकर आप अपनी समस्या बताइये . देवताओं ने कहा – ‘हे देव रक्षक हरि’! हम लोग दैत्यों के अत्याचार से अत्यंत दुखी हैं | शुक्राचार्य की दुआ और तपस्य से वें बहुत ही प्रबल हो गए हैं । हम सभी देवतां और ऋषि उन पराक्रमी दैत्यों के सामने विवश होकर उनसे परास्त हो गए हैं | . स्वर्ग पर भी उन अत्त्यचारी दैत्यों का राज्य हो गया है । इस समय आप ही हमारे रक्षक हैं | इसलिए हम आपकी शरण में आये हैं | हे देवेश ! आप हमारी रक्षा करें”| . भगवान विष्णु ने कहा- ऋषिगणों हम सभी के रक्षक भगवान शिव हैं | उन्हीं की कृपा से में धर्म की स्थापना तथा असुरों का विनाश करता हूँ | . आप लोगों का दुख दूर करने के लिए में भी शिव महेश्वर की उपासना करूँगा | और मुझे पूरा विश्वास है की शिव शंकर जरुर प्रसन्न होंगे और

|| वैद्यनाथाष्टकम्||

|| वैद्यनाथाष्टकम्|| श्रीरामसौमित्रिजटायुवेद षडाननादित्य कुजार्चिताय | श्रीनीलकण्ठाय दयामयाय श्रीवैद्यनाथाय नमःशिवाय || १|| शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव | शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव || गङ्गाप्रवाहेन्दु जटाधराय त्रिलोचनाय स्मर कालहन्त्रे | समस्त देवैरभिपूजिताय श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || २|| शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव | शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव || भक्तःप्रियाय त्रिपुरान्तकाय पिनाकिने दुष्टहराय नित्यम् | प्रत्यक्षलीलाय मनुष्यलोके श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ३|| शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव | शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव || प्रभूतवातादि समस्तरोग प्रनाशकर्त्रे मुनिवन्दिताय | प्रभाकरेन्द्वग्नि विलोचनाय श्रीवैद्यनाथाय नमः शिवाय || ४|| शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव | शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव शंभो महादेव || वाक् श्रोत्र नेत्राङ्घ्रि विहीनजन्तोः वाक्श्रोत्रनेत्रांघ्रिसुखप्रदाय | कुष्ठादिसर्वोन्नतरोगहन्त्रे श्रीवैद्यना

श्री रामचरित मानस

श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदासद्वारा १६वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। इस ग्रन्थ को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण मण्डलों द्वारा शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है। श्री रामचरित मानस के नायक राम हैं जिनको एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। त्रेता युग में हुए ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित और हिन्दी की ही एक लोकप्रिय भाषा अवधी में रचित रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। संत महात्मा समझाते हैं -कलयुग दोषों का खज़ाना है । पर इसकी एक महिमा यह

||श्री गणाधिपति पञ्चरत्न स्तोत्रम् ||

||श्री गणाधिपति पञ्चरत्न स्तोत्रम् || ॐ सरागिलोकदुर्लभं विरागिलोकपूजितं सुरासुरैर्नमस्कृतं जरापमृत्युनाशकम् . गिरा गुरुं श्रिया हरिं जयन्ति यत्पदार्चकाः नमामि तं गणाधिपं कृपापयः पयोनिधिम् .. १.. गिरीन्द्रजामुखाम्बुज प्रमोददान भास्करं करीन्द्रवक्त्रमानताघसङ्घवारणोद्यतम् . सरीसृपेश बद्धकुक्षिमाश्रयामि सन्ततं शरीरकान्ति निर्जिताब्जबन्धुबालसन्ततिम् .. २.. शुकादिमौनिवन्दितं गकारवाच्यमक्षरं प्रकाममिष्टदायिनं सकामनम्रपङ्क्तये . चकासतं चतुर्भुजैः विकासिपद्मपूजितं प्रकाशितात्मतत्वकं नमाम्यहं गणाधिपम् .. ३.. नराधिपत्वदायकं स्वरादिलोकनायकं ज्वरादिरोगवारकं निराकृतासुरव्रजम् . कराम्बुजोल्लसत्सृणिं विकारशून्यमानसैः हृदासदाविभावितं मुदा नमामि विघ्नपम् .. ४.. श्रमापनोदनक्षमं समाहितान्तरात्मनां सुमादिभिः सदार्चितं क्षमानिधिं गणाधिपम् . रमाधवादिपूजितं यमान्तकात्मसम्भवं शमादिषड्गुणप्रदं नमामि तं विभूतये .. ५.. गणाधिपस्य पञ्चकं नृणामभीष्टदायकं प्रणामपूर्वकं जनाः पठन्ति ये मुदायुताः . भवन्ति ते विदां पुरः प्रगीतवैभवाजवात् चिरायुषोऽधिकः श्रियस्सुसूनवो न संशयः .. ॐ .. ||इति

श्री अर्द्धनारीश्वर स्तोत्र

चाम्बेये गौरार्थ शरीराकायै कर्पूर गौरार्थ शरीरकाय तम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय . चपंगी फूल सा हरित पार्वतिदेविको अपने अर्द्ध शरीर को जिसने दिया है कर्पूर रंग -सा जटाधारी शिव को मेरा नमस्कार. कस्तूरिका कुंकुम चर्चितायै चितारजः पुंज विचर्चिताय कृतस्मारायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय . कस्तूरी -कुंकुम धारण कर अति सुन्दर लगनेवाली पार्वती देवी को जिसने अपने अर्द्ध देह दिया हैं,उस शिव को नमस्कार.अपने सम्पूर्ण शरीर पर विभूति मलकर दर्शन देनेवाले शिव को नमस्कार.मन्मथ के विकार नाशक शिव को नमकार. जणत क्वणत कंगण नूपुरायै पादाप्ज राजत पणी नूपुराय . हेमांगदायै च पुजंगदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय कंकन -नूपुर आदि आभूषण पहने पार्वती देवी को पंकज पाद के परमेश्वर ने अपने अर्द्ध शरीर दिया है. स्वर्णिम वर्ण के उस शिव को नमस्कार. विशाल नीलोत्पल लोचनायै विकासी पंकेरुह लोचनाय . समेक्षणायै विशामेक्षनाय नमः शिवायै च नमः शिवाय . विशालाक्षी पार्वती देवी को अपने अर्ध शरीर दिए त्रिनेत्र परमेश्वर को नमस्कार . मंदार माला कलितालकायै कपालमालंगित सुन्दराय दिव्याम्बर

पत्नी

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा। सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।। (108/18) अर्थात-जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो प्रियवादिनी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है।- गृह कार्य में दक्ष-गृह कार्य यानी घर के काम, जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना, बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना, घर आए अतिथियों का मान-सम्मान करना, कम संसाधनों में ही गृहस्थी चलाना आदि कार्यों में निपुण होती है, उसे ही गृह कार्य में दक्ष माना जाता है। ये गुण जिस पत्नी में होते हैं, वह अपने पति की प्रिय होती है। प्रियवादिनी-पत्नी को अपने पति से सदैव संयमित भाषा में ही बात करना चाहिए। संयमित भाषा यानी धीरे-धीरे व प्रेमपूर्वक। पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है व उसके मनोरथ पूरा करता है। पति के अलावा पत्नी को घर के अन्य सदस्यों जैसे- सास-ससुर, देवर-देवरानी, जेठ-जेठानी, ननद आदि से भी प्रेमपूर्वक ही बात करनी चाहिए। पतिपरायणा-जो पत्नी अपने पति को ही सर्वस्व

श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र

श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र (हिन्दी अनुवाद सहित) मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकुंजभूविलासिनी। व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥१।। भावार्थ–समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली व प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुखकमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्दकिशोर श्रीकृष्ण की चिरसंगिनी हृदयेश्वरि हैं, हे जगज्जननी श्रीराधिके ! आप मुझे कब अपने कृपाकटाक्ष का पात्र बनाओगी? अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ्र कोमले। वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्॥२।। भावार्थ–आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, मूंगे, अग्नि तथा लाल पल्लवों के समान अरुण कान्तियुक्त कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान देने वाली तथा अभयदान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आपके हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की आलय (भंडार), स्वामिन

"किसी को छोटा कहना अपराध है"

को बड़? "छोट कहत अपराधू"। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।। गोस्वामी जी नाम वंदना प्रकरण में स्वयं राम जी और उनके नाम में तुलना कर कहना चाहते हैं कि इनमें कौन बड़ा है। वे कहते हैं कि श्रीराम जी और उनके नाम में कौन बड़ा है , ये तो सरलता से कह सकता हूं लेकिन किसी को छोटा कहना अपराध होगा। "को बड़"? - स्पष्ट है कि राम से बढ़कर राम जी के नाम है। परंतु "छोट कहत अपराधू" - संत सज्जन किसी को छोट अर्थात निम्न नहीं कह सकते हैं।  भरत जी को देखिए... "मो समान को पातकी"? "मैं जन नीचू" "महि सकल अनरथ कर मूला" हनुमानजी को देखिए... प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलइ अहारा।। अस "मैं अधम" सखा सुनु मोहु पर रघुबीर। किन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।। गोस्वामी जी... मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर... अतः हमें अपने व्यवहारिक जीवन में "छोट कहत अपराधू" अर्थात किसी को छोटा नहीं समझना चाहिए लेकिन ये भी ध्यान रहे कि दीनता हीनता में न बदले। गोस्वामी जी कहते हैं कि श्रीराम जी और उनके नाम में कौन बड़ा और

बैद्यनाथ महादेव की कथा

बैद्यनाथ महादेव की कथा 🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸 एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये। इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे। प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया। उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा। रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें। शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा। जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया। वह लिंग वहीं अचल हो गया। वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु

रावण अंगद संवाद के कुछ रोचक अंश

 कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥ बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥ भावार्थ:- ===अंगद ने कहा-==== तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान्‌ ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥3॥ * सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥ देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥ भावार्थ:-==  अंगद  ने आगे कहा === तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमान्‌ ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है॥4॥ *जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥ पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥ भावार्थ:-==== (रावण बोला-) =====अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू अपने पिता  को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी त

ब्राह्मण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण:

ब्राह्मण के कर्त्तव्य, कर्म और गुण: अध्यापनमध्ययनम् यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् --मनुस्मृति अध्याय-1 शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्मस्वभावजम् -- गीता अध्याय-18, श्लोक-42 अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति विद्यातपोभ्याम् भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति -- मनुस्मृति अध्याय-5 अर्थात् ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में निम्नलिखित 15 कर्म और गुण अवश्य होने चाहिए: १) वेदादि ग्रन्थ पढना २) वेदादि ग्रन्थ पढाना ३) यज्ञ करना ४) यज्ञ कराना ५) दान देना ६) दान लेना (किन्तु प्रतिग्रह लेना नीच-कर्म है) ७) शम = मन से बुरे कार्य की इच्छा भी न करनी और उसको अधर्म में कभी प्रवृत्त न होने देना ८) दम = चक्षु और श्रोत्र आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोककर धर्म में चलाना ९) तप = सदा ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना १०) शौच = शरीर आदि की पवित्रता (पानी से शरीर, ज्ञान से बुद्धि, सत्य से मन, विद्या-तप से जीवात्मा की शुद्धि) ११) क्षान्ति = निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, शीतोष्ण, क्षुधा-तृषा, हानि-लाभ, मान-

कलियुग का प्रभाव नाशक मन्त्र

महाभारत पुराण में लिखा गया है कि कर्कोटक नाग, नल-दमयन्ती और ऋतुपर्ण का नाम लेने से कलियुग का प्रभाव नहीं होता। इसलिए श्रद्धा-भाव से पाठ-पूजा के वक्त इस मंत्र द्वारा इनका नाम स्मरण करें -  कर्कोटस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च। ऋतुपर्णस्य राजर्षे: कीर्तनं कलिनाशनम्।। 

रुद्राभिषेक का महत्त्व

 शिव के रुद्राभिषेक से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है साथ ही ग्रह जनित दोषों और रोगों से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है। रूद्रहृदयोपनिषद अनुसार शिव हैं – सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका: अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं। भगवान शंकर सर्व कल्याणकारी देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी पूजा,अराधना समस्त मनोरथ को पूर्ण करती है। हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान शिव का पूजन करने से सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूर्ण होती हैं। भगवान शिव को शुक्लयजुर्वेद अत्यन्त प्रिय है कहा भी गया है वेदः शिवः शिवो वेदः। इसी कारण ऋषियों ने शुकलयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से रुद्राभिषेक करने का विधान शास्त्रों में बतलाया गया है यथा – यजुर्मयो हृदयं देवो यजुर्भिः शत्रुद्रियैः। पूजनीयो महारुद्रो सन्ततिश्रेयमिच्छता।। विधि से रुद्राभिषेक करने से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है ।जाबालोपनिषद में याज्ञवल्क्य ने कहा – शतरुद्रियेणेति अर्थात शतरुद्रिय के सतत पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। परन्तु जो भक्त यजुर्वेदीय विधि-विधान से पूजा करने में असमर्थ ह

श्रीराधा और उनके नाम की महिमा

राधा राधा नाम को सपनेहूँ जो नर लेय। ताको मोहन साँवरो रीझि अपनको देय।। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–उन राधा से भी उनका ‘राधा’ नाम मुझे अधिक मधुर और प्यारा लगता है। ‘राधा’ शब्द कान में पड़ते ही मेरे हृदय की सम्पूर्ण कलियां खिल उठती हैं। कोई भी मुझे प्रेम से राधा नाम सुनाकर खरीद सकता है। राधा मेरा सदा बंधा-बंधाया मूल्य है। राधा समस्त प्रेमीजनों की मुकुटमणि है। राधा के समान प्राणाधिक प्रिय दूसरा कहीं कोई नहीं है। वह सदा-सर्वदा मेरे वक्ष:स्थल पर निवास करती हैं। श्रीराधा नाम की महिमा को श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बताया है–’जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुन लेता हूं, उसी समय उसे अपनी उत्तम भक्ति-प्रेम दे देता हूं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो वह दौड़कर श्रीहरि के धाम में पहुंच जाता है।’ ‘रा’ शब्द का उच्चारण करने पर उसे सुनते ही माधव हर्ष से फूल जाते हैं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्रीराधा का नाम-श्रवण करने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूं।’ सामवेद में ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है। ‘राधा’ नाम के पहले अक्षर ‘र’ का उच्चारण करते ही करोड़ों जन्मों क

जानिए किस कामना के लिए क्या प्रदार्थ एवं कौनसा फूल शिव को चढ़ाएं

जानिए किस कामना के लिए क्या प्रदार्थ एवं कौनसा फूल शिव को चढ़ाएं -👇 🌟🌟⭐🌟🌟⭐🌟🌟⭐🌟🌟⭐🌟🌟⭐🌟🌟⭐🌟🌟 👉 वाहन सुख के लिए चमेली का फूल। 👉 दौलतमंद बनने के लिए कमल का फूल, शंखपुष्पी या बिल्वपत्र। 👉 विवाह में समस्या दूर करने के लिए बेला के फूल। इससे योग्य वर-वधू मिलते हैं। 👉 पुत्र प्राप्ति के लिए धतुरे का लाल फूल वाला धतूरा शिव को चढ़ाएं। यह न मिलने पर सामान्य धतूरा ही चढ़ाएं। 👉 मानसिक तनाव दूर करने के लिए शिव को शेफालिका के फूल चढ़ाएं। 👉 जूही के फूल को अर्पित करने से अपार अन्न-धन की कमी नहीं होती। 👉 अगस्त्य के फूल से शिव पूजा करने पर पद, सम्मान मिलता है। 👉 शिव पूजा में कनेर के फूलों के अर्पण से वस्त्र-आभूषण की इच्छा पूरी होती है। 👉 लंबी आयु के लिए दुर्वाओं से शिव पूजन करें। 👉सुख-शांति और मोक्ष के लिए महादेव की तुलसी के पत्तों या सफेद कमल के फूलों से पूजा करें। इसी तरह भगवान शिव की प्रसन्नता से मनोरथ पूरे करने के लिए शिव पूजा में कई तरह के अनाज चढ़ाने का महत्व बताया गया है। इसलिए श्रद्धा और आस्था के साथ इस उपाय को भी करना न चूकें। जानिए किस अन्न के चढ़ावे से कैसी का

शिव संदेश

भगवान शिव ने देवी पार्वती को समय-समय पर कई ज्ञान की बातें बताई हैं। जिनमें मनुष्य के सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और वैवाहिक जीवन की बातें शामिल हैं। भगवान शिव ने देवी पार्वती को 5 ऐसी बातें बताई थीं जो हर मनुष्य के लिए उपयोगी हैं, जिन्हें जानकर उनका पालन हर किसी को करना ही चाहिए- . *1. क्या है सबसे बड़ा धर्म और सबसे बड़ा पाप* देवी पार्वती के पूछने पर भगवान शिव ने उन्हें मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा धर्म और अधर्म मानी जाने वाली बात के बारे में बताया है। भगवान शंकर कहते है- . *श्लोक-* नास्ति सत्यात् परो नानृतात् पातकं परम्।। *अर्थात-* मनुष्य के लिए सबसे बड़ा धर्म है सत्य बोलना या सत्य का साथ देना और सबसे बड़ा अधर्म है असत्य बोलना या उसका साथ देना। . इसलिए हर किसी को अपने मन, अपनी बातें और अपने कामों से हमेशा उन्हीं को शामिल करना चाहिए, जिनमें सच्चाई हो, क्योंकि इससे बड़ा कोई धर्म है ही नहीं। असत्य कहना या किसी भी तरह से झूठ का साथ देना मनुष्य की बर्बादी का कारण बन सकता है। . *2. काम करने के साथ इस एक और बात का रखें ध्यान,,,,,* . *श्लोक-* आत्मसाक्षी भवेन्नित्यमात्मनुस्तु शु

किस रोग में कौन सा आसन करें

👉🏻 पेट की बिमारियों में- उत्तानपादासन, पवनमुक्तासन, वज्रासन, योगमुद्रासन, भुजंगासन, मत्स्यासन। 👉🏻 सिर की बिमारियों में- सर्वांगासन, शीर्षासन, चन्द्रासन। 👉🏻 मधुमेह- पश्चिमोत्तानासन, नौकासन, वज्रासन, भुजंगासन, हलासन, शीर्षासन। 👉🏻 वीर्यदोष– सर्वांगासन, वज्रासन, योगमुद्रा। 👉🏻 गला- सुप्तवज्रासन, भुजंगासन, चन्द्रासन। 👉🏻 आंखें- सर्वांगासन, शीर्षासन, भुजंगासन। 👉🏻 गठिया– पवनमुक्तासन, पद्मासन, सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, उष्ट्रासन। 👉🏻 नाभि- धनुरासन, नाभि-आसन, भुजंगासन। 👉🏻 गर्भाशय– उत्तानपादासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, ताड़ासन, चन्द्रानमस्कारासन। 👉🏻 कमर दर्द – हलासन, चक्रासन, धनुरासन, भुजंगासन। 👉🏻 फेफड़े- वज्रासन, मत्स्यासन, सर्वांगासन। 👉🏻 यकृत- लतासन, पवनमुक्तासन, यानासन। 👉🏻 गुदा,बवासीर,भंगदर आदि में- उत्तानपादासन, सर्वांगासन, जानुशिरासन, यानासन। 👉🏻 दमा- सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन, भुजंगासन। 👉🏻 अनिद्रा- शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, योगमुद्रासन। 👉🏻 गैस– पवनमुक्तासन, जानुशिरासन, योगमुद्रा, वज्रासन। 👉🏻 जुकाम– सर्वांगासन, हलासन, शीर्षासन। 👉🏻 मानसिक शांति

श्रीरामरक्षा स्तोत्र

श्रीरामरक्षा स्तोत्र सभी तरह की विपत्तियों से व्यक्ति की रक्षा करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य भय रहित हो जाता है। एक कथा है कि भगवान शंकर ने बुधकौशिक ऋषि को स्वप्न में दर्शन देकर, उन्हें रामरक्षास्तोत्र सुनाया और प्रातःकाल उठने पर उन्होंने वह लिख लिया। यह स्तोत्र संस्कृत भाषा में है। इस स्तोत्र के नित्य पाठ से घर के कष्ट  व भूतबाधा भी दूर होती है। जो इस स्तोत्र का पाठ करता है वह दीर्घायु, सुखी, संततिवान, विजयी तथा विनयसंपन्न होता है। रामरक्षा स्तोत्र का नियमित एक  पाठ करने से शरीर रक्षा होती है। मंगल का कुप्रभाव समाप्त होता है। रामरक्षा स्तोत्र के प्रभाव से व्यक्ति के चारों और एक सुरक्षा कवच बन जाता है जिससे हर प्रकार की विपत्ति से रक्षा होती है। यदि गर्भवती स्त्री रोजाना इस स्तोत्र का पाठ करे तो इसके शुभ प्रभाव से गर्भ रक्षा होती है।  स्वस्थ, सौभाग्यशाली एवं आज्ञाकारी संतान प्राप्त होती है। रामरक्षा स्तोत्र पाठ से भगवान राम के साथ पवनपुत्र हनुमान भी प्रसन्न होते हैं। सर्पप्रथम हाथ में जल लेकर विनियोग मंत्र बोलें- विनियोग र् अस्य श्री रामरक्षा स्तोत्र मंत्रस्य बुधकौशिक