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शरणागति

शरणागति के विषय में एक कथा आती है । सीताजी, रामजी और हनुमानजी जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे । उस वृक्ष की शाखाओं और टहनियों पर एक लता छायी हुई थी । लता के कोमल-कोमल तन्तु फैल रहे थे । उन तन्तुओं में कहीं पर नयी-नयी कोंपलें निकल रही थीं और कहीं पर ताम्रवर्ण के पत्ते निकल रहे थे । पुष्प और पत्तों से लता छायी हुई थी । उससे वृक्ष की सुन्दर शोभा हो रही थी । वृक्ष बहुत ही सुहावना लग रहा था । उस वृक्ष की शोभा को देखकर भगवान् श्रीराम हनुमानजी से बोले-'देखो हनुमान् ! यह लता कितनी सुन्दर है ! वृक्ष के चारों ओर कैसी छायी हुई है ! यह लता अपने सुन्दर-सुन्दर फल, सुगन्धित फूल और हरी-हरी पत्तियों से इस वृक्ष की कैसी शोभा बढ़ा रही है । इससे जंगल के अन्य सब वृक्षों से यह वृक्ष कितना सुन्दर दीख रहा है ! इतना ही नहीं, इस वृक्ष के कारण ही सारे जंगल की शोभा हो रही है । इस लता के कारण ही पशु-पक्षी इस वृक्ष का आश्रय लेते हैं । धन्य है यह लता !'
भगवान् श्रीराम के मुख से लता की प्रशंसा सुनकर सीताजी हनुमानजी से बोलीं-'देखो बेटा हनुमान् ! तुमने खयाल किया कि नहीं ? देखो, इस लता का ऊपर चढ़ जाना, फूल-पत्तों से छा जाना, तन्तुओं का फैल जाना-ये सब वृक्ष के आश्रित हैं, वृक्ष के कारण ही हैं । इस लता की शोभा भी वृक्ष के ही कारण है । इस वास्ते मूल में महिमा तो वृक्ष की ही है । आधार तो वृक्ष ही है । वृक्ष के सहारे बिना लता स्वयं क्या कर सकती है ? कैसे छा सकती है ? अब बोलो हनुमान् ! तुम्हीं बताओ, महिमा वृक्ष की ही हुई न ? '
रामजी ने कहा-'क्यों हनुमान् ! यह महिमा तो लता की ही हुई न ?'
हनुमानजी बोले-'हमें तो तीसरी ही बात सूझती है ।'
सीताजी ने पूछा-'वह क्या है बेटा ?'
हनुमानजी ने कहा-'माँ ! वृक्ष और लता की छाया बड़ी सुन्दर है । इस वास्ते हमें तो इन दोनों की छाया में रहना ही अच्छा लगता है अर्थात् हमें तो आप दोनों की छाया ( चरणों के आश्रय ) में रहना ही अच्छा लगता है !'
सेवक सुत पति मातु भरोसें । रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ।।
( मानस ४ । ३ । २ )
ऐसे ही भगवान् और उनकी दिव्य आह्लादिनी शक्ति-दोनों ही एक-दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं । परंतु कोई तो उन दोनों को श्रेष्ठ बताता है, कोई केवल भगवान् को श्रेष्ठ बताता है और कोई केवल उनकी आह्लादिनी शक्ति को श्रेष्ठ बताता है । शरणागत भक्त के लिये तो प्रभु और उनकी आह्लादिनी शक्ति-दोनों का आश्रय ही श्रेष्ठ है ।

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