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महाराज मनु



  जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरंभ में देखा कि उनकी मानसिक सृष्टि नहीं बढ़ रही है,  तब अपने शरीर से उन्होंने एक दम्पति को प्रकट किया।

 ब्रह्मा जी के दाहिने अंग से मनु तथा बायें अंग से उनकी पत्नी शतरूपा प्रकट हुईं।

ब्रह्मा जी ने मनु को सृष्टि करने का आदेश दिया। उस समय पृथ्वी जल में डूब गयी थी। मनु ने स्थल की माँग की प्रजा विस्तार के लिए ।

ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर भगवान ने वाराह रूप धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया। मनु अपनी पत्नी के साथ तप करने लगे।

तप के द्वारा उन्होंने भगवान को प्रसन्न किया। भगवद्दर्शन करके भगवान की आज्ञा से महाराज मनु ने प्रजा उत्पन्न करना स्वीकार किया।

भगवान का दर्शन हो जाने के पश्चात मनु ने शतरूपा से दो पुत्र तथा तीन कन्याएँ उत्पन्न कीं।महाराज मनु के पुत्र हुए प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा कन्याएँ हुईं आकूति, देवहूति तथा प्रसूति।

  मनु महाराज की सन्तानों से ही पृथ्वी पर सभी मनुष्य वंश बढ़े।महाराज मनु के प्रथम पुत्र प्रियव्रत जी परम भगवद्भक्त हुए । उन्होंने ने ही इस पृथ्वी को सप्तद्वीपवती बनाया।

दूसरे पुत्र उत्तानपाद जी के पुत्र ध्रुव जी जैसे भक्त श्रेष्ठ हुई। मनु की कन्या आकूति का विवाह महर्षि रुचि से हुआ जिससे भगवान यज्ञ रूप में अवतरित हुए ।

 दूसरी कन्या देवहूति का विवाह महर्षि कर्दम से हुआ,  जिससे भगवान ने कपिलरूप में अवतार लिया।

तीसरी कन्या प्रसूति ब्रह्मा जी के मानसपुत्र दक्ष को विवाही गयीं।

         अपना मन्वन्तरकाल व्यतीत होने पर मनु जी ने राज्य पुत्रों को दे दिया और स्वयं विरक्त होकर पत्नी के साथ तप करने वन में चले गये।

वे द्वादशाक्षर मन्त्र  का निरंतर जप करते और बराबर उनका चित्त भगवान में लगा रहता।उनके मन में केवल एक ही इच्छा थी कि प्रभु का इन चर्मचक्षुओं से साक्षात्कार हो।

          मनु अविचल विश्वास से तपस्या में लगे थे। उनके साथ उनकी साध्वी पत्नी शतरूपा भी तप कर रही थीं।

दीर्घकालतक वे केवल जल पीकर रहे और फिर उसे भी छोड़ दिया। वे एक पैर से खड़े होकर भगवान में चित्त लगाये एकाग्र मन से प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब वे करुणामय कृपा करते हैं।

अनेक बार ब्रह्मा जी तथा दूसरे देवता मनु के समीप आये और उन्होंने वरदान माँगने को कहा; किन्तु मनु की निष्ठा में अन्तर नहीं पड़ा।

अपने आराध्य को छोड़कर दूसरे से उन्हें कुछ कहना नहीं था।तप करते-करते दम्पति के शरीर अस्थियों के ढाँचेमात्र रह गये; किन्तु उनका मन प्रसन्न था ।

उनके चित्त में खेद का नाम नहीं था।अन्ततः प्रभु द्रवित हुए । आकाशवाणी ने महाराज मनु को वरदान माँगने को कहा।

 वह साधारण आकाशवाणी नहीं थी, उसके कानों में पड़ते ही दोनों के शरीर पुष्ट हो गये।प्राणों में जैसे अमृत संचार हो गया।

मनु ने दणडवत् करके बड़ी श्रद्धा से कहा---'प्रभो ! यदि हम दीनों पर आपका स्नेह है तो आप हमें दर्शन दें।

           भक्तवत्सल भगवान मनु की प्रार्थना सुनकर उनके सम्मुख प्रकट हो गए ।एकटक मनु उस पीताम्बरधारी, सर्वाभरणभूषित मुनिमनहारी दिव्य रूप को देखते रह गये।

 प्रभु अकेले नहीं प्रकट हुए थे, उनके साथ उनकी पराशक्ति भी प्रकट हुयी थीं।भगवान ने प्रकट हो कर फिर वरदान मांगने के लिए कहा।

 महाराज मनु एकटक उस दिव्यरूप को देख रहे थे। नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे।हृदय कहता था कि यह रूप सदा नेत्रों के सामने ही रहना चाहिए ।

मनु ने बड़े संकोच से कहा---'दयामय! आप उदार चूड़ामणि हैं। आपके लिए अदेय कुछ भी नहीं है । मेरे मन में एक लालसा है तो सही; किन्तु मुझे बड़ा संकोच हो रहा है ।
          भगवान ने जब बार-बार निःसंकोच माँगने को कहा तब, मनु ने माँगा---'आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो ।' भगवान हँस पड़े।भला, उनके समान रूप-शील-गुण में दूसरा कोई कहां से आ सकता है।उन्होंने स्वयं मनु का पुत्र होना स्वीकार किया।
           श्रीशतरूपा जी ने भगवान के आग्रह करने पर कहा--'मेरे पतिदेव ने जो वरदान माँगा है, मुझे भी वही अत्यंत प्रिय है ।

प्रभो ! आपके जो अपने जन हैं, जो भक्त आपको परमप्रिय हैं, उनको जो सुख, जो गति, जो भक्ति, जो ज्ञान प्राप्त होता है,  वही आप हमें प्रदान करें।
           मनु ने भगवान से प्रार्थना की---'दयाधाम! मेरा चित्त आपमें वात्सल्यभाव से लगा रहे।मेरा जीवन आपके विना सम्भव न रहे।भगवान ने मनु को आश्वासन दिया।

त्रेता में यही महाराज मनु अयोध्यानरेश दशरथ जी हुए और उनकी पत्नी शतरूपा कौशल्या हुयीं। भगवान ने श्री राम के रूप में अवतार ग्रहण किया।

अपने अंशों के साथ वे महाराज दशरथ के पुत्र बने और उनकी नित्यशक्ति मिथिलाराजकुमारी के रूप में प्रकट होकर महाराज दशरथ की पुत्रवधू बनीं।

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