सोमवार, 8 जनवरी 2018

-- श्रीभरतजी --


भरत सरिस को राम सनेही । जगु जप राम रामु जप जेही ॥

--  श्रीभरत जी श्रीराम के ही स्वरुप हैं । वे व्यूहावतार माने जाते हैं और उनका वर्ण ऐसा है कि --

भरत राम ही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥

विश्वका भरण - पोषण करने वाले होनेसे ही उनका नाम ' भरत ' पड़ा । धर्म के आधार पर ही सृष्टि है । धर्म ही धराको धारण करता है । धर्म है, इसीलिये संसार चल रहा है । संसारी तो बात जाने दीजिये, यदि एक गाँव में से पूरापूरा धर्म चला जाय, वहाँ कोई धर्मात्मा किसी रुपमें न रहे तो उस गाँवका तत्काल नाश हो जायगा । भरतजीने धर्मके उसी धुरे -- आदर्श को धारण किया ।

जौं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम धुर धरनि धरत की ॥

जन्म से ही भरतलाल श्रीरामके प्रेम की मूर्ति थे । वे सदा श्रीरामके सुख, उनकी प्रसन्नतामें ही प्रसन्न रहते थे । मैं पनका भान उनमें कभी आया ही नहीं । उन्होंने स्वयं कहा है --

महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन ।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम विआसे नैन ॥

बड़ा ही संकोची स्वभाव था भरतलालका । अपने बड़े भाईके सामने वे संकोचकी ही मूर्ति बने रहते थे । ऐसे संकोची, ऐसे अनुरागी, ऐसे भ्रातृभक्त भावमय को जब पता लगा कि माता कैकेयी ने उन्हें राज्य देने के लिये श्रीराम को वनवास दे दिया है, तब उनकी व्यथा का पार नहीं रहा । कैकेयी को उन्होंने बड़े कठोर वचन कहे । परंतु ऐसी अवस्थामें भी वे दयानिधी किसीका कष्ट नहीं सह पाते थे । जिस मन्थरा ने यह सब उत्पात किया था, उसीको जब शत्रुघ्नलाल दण्ड देने लगे, तब भरतजीने छुड़ा दिया । धैर्यके साथ पिताका और्ध्वदैहिक कृत्य करके, भरतजी श्रीरामको वनसे लौटानेके लिये चले । राज्यकी रक्षाका उन्होंने प्रबन्ध कर दिया था । अयोध्याका जो साम्राज्य देवताओंको भी लुभाता था, उस राज्यको, उस सम्पत्तिको भरतने तृणसे भी तुच्छ मानकर छोड़ दिया ! वे बार - बार यह सोचते थे -- ' श्रीराम, माता जानकी और लक्ष्मण अपने सुकुमार चरणोंसे वनके कठोर मार्गमें भटकते होंगे ।' यही व्यथा उन्हें व्याकुल किये थी । वे भरद्वाज जी से कहते हैं --

राम लखन सिय बिनु पग पनहीं । करि मुनि वेष फिरहि बन बनही ॥
अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात ॥
बलि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात ॥
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती । भूख न बासर नीद न राती ॥

वे स्वयं मार्गमें उपवास करते, कन्द - मूल खाते और भूमिपर शयन करते थे । साथमें रथ, अश्व, गज चल रहे थे; किंतु भरतलाल पैदल चलते थे । उनके लाल - लाल कोमल चरणोंमें फफोले पड़ गये थे; किंतु उन्होंने सवारी अस्वीकार कर दी ।
सेवकोंसे उन्होंने कह दिया --

रामु पयादेहि पायँ सिधाए । हम कहँ रथ गज बाजि बनाए ॥
सिर भर जाउँ उचित असमोरा । सब तें सेवक धरमु कठोरा ॥

भरतका प्रेम, भरतका भाव, भरत की विह्ललता का वर्णन तो श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में ही देखने योग्य है । ऐसा अलौकिक अनुराग कि जिसे देखकर पत्थरतक विघलने लगे ! कोई ' श्रीराम ' कह दे; कहीं श्रीरामके स्मृति - चिह्न मिलें , किसी से सुन पड़े श्रीराम का समाचार, वहीं, उसी से भरत विह्नल होकर लिपट पड़ते हैं ! सबसे उन्हें अविचल रामचरणानुराग ही माँगना है । चित्रकूट पहुँचकर वे अपने प्रभुके जब चरणचिह्न देखते हैं, तो --

हरषहिं निरखि राम पद अंका । मानहुँ पारसु पायउ रंका ॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहि रघुवर मिलन सरिस सुख पावहि ॥

महर्षि भरद्वाजने ठीक ही कहा था --

तुम्ह तौं भरत मोर मत एहू । धरें देह जनु राम सनेहु ॥

चित्रकूटमें श्रीरामजी मिलते हैं । अयोध्याके समाजके पीछे ही महाराज जनक भी वहाँ पहुँच जाते हैं । महर्षि वशिष्ठ तथा विश्वामित्रजी और महाराज जनकतक कुछ कह नहीं पाते । सब लोग परिस्थितीकी विषमता देखकर थकित हो जाते हैं । सारी मन्त्रणाएँ होती हैं और अनिर्णीत रह जाती हैं । केवल जनकजी ठीक स्थिति जानते हैं । वे भरतको पहचानते हैं । एकान्तमें रानी सुनयनासे उन्होंने कहा --

परमारथ स्वारथ सुख सारे । भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू । मोहि लखि परत भरत मत एहू ॥
मोरेहुँ भरत न पेलिहहि मनसहुँ राम रजाइ ॥

श्रीराम क्या आज्ञा दे ? वे भक्तवत्सल हैं । भरतपर उनका असीम स्नेह है । वे भरतके लिये सब कुछ त्याग सकते हैं । उन्होंने स्पष्ट कह दिया --

मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु ।

परंतु धन्य हैं भरतलाल ! धन्य है उनका अनुराग ! आराध्यको जो प्रिय हो, जिसमें श्रीरामको प्रसन्नता हो, जो करनेसे श्रीरघुनाथको संकोच न हो, वही उन्हें प्रिय है । उन्हें चाहे जितना कष्ट सहना पड़े ; किंतु श्रीरामको तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिये । उनका अविचल निश्चय हैं --

जो सेवक साहिबहि सँकोची । निज सुख चहइ तासु मति पोची ॥

अतएव श्रीरामकी प्रसन्नताके लिये उनकी चरणपादुका लेकर भरत अयोध्या लौट आये । राजसिंहासनपर पादुकाएँ पधरायी गयीं । राम बनमें रहें और भरत राजसदनके सुख भोगें, यह सम्भव नहीं था । अयोध्यासे बाहर नन्द्रिग्राममें भूमिमें गङ्ढा खोदकर कुशका आसन बिछाया उन्होंने । चौदइ वर्ष वे महातापस बिना लेटे बैठे रहे । गोमूत्र - यावक - व्रत ले रक्खा था उन्होंने । गायको जौ खिला देनेपर वह जौ गोबरमें निकलता है । उसीको गोमूत्रमें पकाकर वे ग्रहण करते थे । चौदह वर्ष उनकी अवस्था कैसी रही, यह गोस्वामी तुलसीदासजी बतलाते हैं --

पुलक गात हियँ सिय रघु बीरु । जीह नामु जप लोचन नीरु ॥

भरतजीने इसी प्रकार वे अवधिके वर्ष बिताये । उनका दृढ़ निश्चय था --

बीते अवधि रहहि जौं प्राना । अधम कवन जग मोहि समाना ॥

श्रीराम भी इसे भली भाँति जानते थे । उन्होंने भी विभीषणसे कहा --

बीते अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ॥

इसीलिये श्रीरघुनाथ जी ने हनुमानजी को पहले ही भरतके पास भेज दिया था । जब पुष्पक से श्रीराघवेन्द्र आये, उन्होंने अपने तपस्या से कृश हुए, जटा बढ़ाये भाई को देखा । उन्होंने देखा कि भरतजी उनकी चरण - पादुकाएँ मस्तकपर रक्खे चले आ रहे हैं । प्रेमविह्लल राम ने भाई को हदय से लिपटा लिया ।

तत्त्वतः भरत और राम नित्य अभिन्न हैं । अयोध्या में या नित्य साकेत में भरतलाल सदा श्रीराम की सेवा में संलग्न, उनके समीप ही रहते हैं ।

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