गुरुवार, 18 जनवरी 2018

कैसे बना शिव तांडव स्‍त्रोत?


सम्पूर्ण कथा एवं अर्थ सहित जानकारी
       *(कथा)*
कुबेर व रावण दोनों ऋषि विश्रवा की संतान थे और दोनों सौतेले भाई थे। ऋषि विश्रवा ने सोने की लंका का राज्‍य कुबेर को दिया था लेकिन किसी कारणवश अपने पिता के कहने पर वे लंका का त्याग कर हिमाचल चले गए।

कुबेर के चले जाने के बाद इससे दशानन बहुत प्रसन्न हुआ। वह लंका का राजा बन गया और लंका का राज्‍य प्राप्‍त करते ही धीरे-धीरे वह इतना अहंकारी होगया कि उसने साधुजनों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिए।

जब दशानन के इन अत्‍याचारों की ख़बर कुबेर को लगी तो उन्होंने अपने भाई को समझाने के लिए एक दूत भेजा, जिसने कुबेर के कहे अनुसार दशानन को सत्य पथ पर चलने की सलाह दी। कुबेर की सलाह सुन दशानन को इतना क्रोध आया कि उसने उस दूत को बंदी बना लिया व क्रोध के मारे तुरन्‍त अपनी तलवार से उसकी हत्‍या कर दी।

कुबरे की सलाह से दशानन इतना क्रोधित हुआ कि दूत की हत्‍या के साथ ही अपनी सेना लेकर कुबेर की नगरी अलकापुरी को जीतने निकल पड़ा और कुबेर की नगरी को तहस-नहस करने के बाद अपने भाई कुबेर पर गदा का प्रहार कर उसे भी घायल कर दिया लेकिन कुबेर के सेनापतियों ने किसी तरह से कुबेर को नंदनवन पहुँचा दिया जहाँ वैद्यों ने उसका इलाज कर उसे ठीक किया।

चूंकि दशानन ने कुबेर की नगरी व उसके पुष्‍पक विमान पर भी अपना अधिकार कर लिया था, सो एक दिन पुष्‍पक विमान में सवार होकर शारवन की तरफ चल पड़ा। लेकिन एक पर्वत के पास से गुजरते हुए उसके पुष्पक विमान की गति स्वयं ही धीमी हो गई।

चूंकि पुष्‍पक विमान की ये विशेषता थी कि वह चालक की इच्‍छानुसार चलता था तथा उसकी गति मन की गति से भी तेज थी, इसलिए जब पुष्‍पक विमान की गति मंद हो गर्इ तो दशानन को बडा आश्‍चर्य हुआ। तभी उसकी दृष्टि सामने खडे विशाल और काले शरीर वाले नंदीश्वर पर पडी। नंदीश्वर ने दशानन को चेताया कि-

यहाँ भगवान शंकर क्रीड़ा में मग्न हैं इसलिए तुम लौट जाओ.

लेकिन दशानन कुबेर पर विजय पाकर इतना दंभी होगया था कि वह किसी कि सुनने तक को तैयार नहीं था। उसे उसने कहा कि-

कौन है ये शंकर और किस अधिकार से वह यहाँ क्रीड़ा करता है?  मैं उस पर्वत का नामो-निशान ही मिटा दूँगा, जिसने मेरे विमान की गति अवरूद्ध की है।

इतना कहते हुए उसने पर्वत की नींव पर हाथ लगाकर उसे उठाना चाहा। अचानक इस विघ्न से शंकर भगवान विचलित हुए और वहीं बैठे-बैठे अपने पाँव के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया ताकि वह स्थिर हो जाए। लेकिन भगवान शंकर के ऐसा करने से दशानन की बाँहें उस पर्वत के नीचे दब गई। फलस्‍वरूप क्रोध और जबरदस्‍त पीडा के कारण दशानन ने भीषण चीत्‍कार कर उठा, जिससे ऐसा लगने लगा कि मानो प्रलय हो जाएगा। तब दशानन के मंत्रियों ने उसे शिव स्तुति करने की सलाह दी ताकि उसका हाथ उस पर्वत से मुक्‍त हो सके।

दशानन ने बिना देरी किए हुए सामवेद में उल्लेखित शिव के सभी स्तोत्रों का गान करना शुरू कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दशानन को क्षमा करते हुए उसकी बाँहों को मुक्त किया।

दशानन द्वारा भगवान शिव की स्‍तुति के लिए किए जो स्‍त्रोत गाया गया था, वह दशानन ने भयंकर दर्द व क्रोध के कारण भीषण चीत्‍कार से गाया था और इसी भीषण चीत्‍कार को संस्‍कृत भाषा में राव: सुशरूण: कहा जाता है। इसलिए जब भगवान शिव, रावण की स्‍तुति से प्रसन्‍न हुए और उसके हाथों को पर्वत के नीचे से मुक्‍त किया, तो उसी प्रसन्‍नता में उन्‍होंने दशानन का नाम रावण यानी ‘भीषण चीत्कार करने पर विवश शत्रु’ रखा क्‍योंकि भगवान शिव ने रावण को भीषण चीत्‍कार करने पर विवश कर दिया था और तभी से दशानन काे रावण कहा जाने लगा।

शिव की स्तुति के लिए रचा गया वह सामवेद का वह स्त्रोत, जिसे रावण ने गाया था, को आज भी रावण-स्त्रोत व शिव तांडव स्‍त्रोत के नाम से जाना जाता है, जो कि निम्‍नानुसार है-
******
*रावणकृत शिव तांडव स्‍त्रोत*

  *ॐ नम: शिवाय*

*जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले*
*गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।*
*डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं*
*चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम*
*॥1॥*

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

*जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।*
*विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।*
*धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके*
*किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं*
*॥2॥*

 अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

*धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-*
*स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।*
*कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि*
*कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि* *॥3॥*

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

*जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-*
*कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।*
*मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे*
*मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि*
*॥4॥*

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

*सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-*
*प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।*
*भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः*
*श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः*
*॥5॥*

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

*ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-*
*निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।*
*सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं*
*महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः*
*॥6॥*

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

*कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-*
*द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।*
*धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-*
*प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम*
*॥7॥*

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

*नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-*
*त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।*
*निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः*
*कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः*
*॥8॥*

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

*प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-*
*विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌*
*स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं*
*गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे*
*॥9॥*

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

*अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-*
*रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।*
*स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं*
*गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे*
*॥10॥*

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

 *जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-*
*द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-*
*धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-*
*ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः*
*॥11॥*

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

*दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-*
*र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।*
*तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः*
*समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे*
*॥12॥*

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

*कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌*
*विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।*
*विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः*
*शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌*
*॥13॥*

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

*निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-*
*निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।*
*तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं*
*परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः*
*॥14॥*

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

*प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी*
*महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।*
*विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः*
*शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌*
*॥15॥*

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

*इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं*
*पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।*
*हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं*
*विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम*
*॥16॥*

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

*पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं*
*यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।*
*तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां*
*लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः*
*॥17॥*

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

*॥ इति श्री रावणकृतम् शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥*

भगवान शिव की आराधना व उपासना के लिए रचे गए सभी अन्‍य स्‍तोत्रों में रावण रचित या रावण द्वारा गया गया शिवतांडव स्तोत्र भगवान शिव को अत्‍यधिक प्रिय है, ऐसी हिन्‍दु धर्म की मान्‍यता है और माना जाता है कि शिवतांडव स्तोत्र द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने से व्यक्ति को कभी भी धन-सम्पति की कमी नहीं होती, साथ ही व्‍यक्ति को उत्कृष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है। यानी व्‍यक्ति का चेहरा तेजस्‍वी बनता है तथा उसके आत्‍मविश्‍वास में भी वृद्धि होती है।

इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से व्‍यक्ति को जिस किसी भी सिद्धि की महत्वकांक्षा होती है, भगवान शिव की कृपा से वह आसानी से पूर्ण हो जाती है। साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। यानी व्‍यक्ति जो भी कहता है, वह वैसा ही घटित होने लगता है। नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधी आदि सिद्धियां भगवान शिव से ही सम्‍बंधित हैं, इसलिए शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने वाले को इन विषयों से सम्‍बंधित सफलता सहज ही प्राप्‍त होने लगती हैं।

इतना ही नहीं, शनि को काल माना जाता है जबकि शिव महाकाल हैं, अत: शनि से पीड़ित व्‍यक्ति को इसके पाठ से बहुत लाभ प्राप्‍त है। साथ ही जिन लोगों की जन्‍म-कुण्‍डली में सर्प योग, कालसर्प योग या पितृ दोष होता है, उन लोगों के लिए भी शिवतांडव स्तोत्र  का पाठ करना काफी उपयोगी होता है क्‍योंकि हिन्‍दु धर्म में भगवान शिव को ही आयु, मृत्‍यु और सर्प का स्‍वामी माना गया है। ******

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