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माँ सीता की रसोई और हनुमान जी का भोजन

घटना उस समय की है जब श्री राम और देवी सीता वनवास की अवधि पूरी करके अयोध्या लौट चुके हैं| अन्य सब लोग तो श्री राम के राज्याभिषेक के उपरांत अपने अपने राज्यों को लौट गए, किंतु हनुमान जी ने श्री राम प्रबु के चरणों में रहने को ही जीवन का लक्ष्य माना|

एक दिन देवी सीता के मन में आया कि हनुमान ने लंका में आकर मुझे खोज निकाला और फिर युद्ध में भी श्री राम को अनुपम सहायता की, अब भी अपने घर से दूर रह कर हमारी सेवा करते हैं, तो मुझे भी उनके सम्मान में कुछ करना चाहिए| यह विचार कर उन्होंने हनुमान को अपनी रसोई से भोजन के लिए आमंत्रित कर डाला| माँ स्बयम पका कर खिलाएँगी आज अपने पुत्र हनुमान को|

सुबह से माता रसोई में व्यस्त हैं| हर प्रकार से हनुमान जी की पसंद के भोजन पकाए जा रहे हैं| एक थाल में मोतीचूर के लड्डू सजे हैं, तो दुसरे में जलेबियाँ| पूड़ी और कचोरी और बूंदी भी पकाए जा रहे हैं| आज किसी को भोजन की आज्ञा नहीं जब तक कि हनुमान न खा लें| प्रभु राम, भरता लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न सभी प्रतीक्षा में हैं कि कब हनुमान भोजन के लिए आयें और कब हमारी भी पेट पूजा हो|

दोपहर हुई और  निमंत्रण के समय अन्य्सार पवनपुत्र का आगमन हुआ| बड़े शौक से आ कर माता की चरण वन्दना की और अनुमति पाकर आसन पर विराजे| माँ परोसने लगी और पुत्र खाने लगा| लायो माता लायो पूड़ी दो, कचोरी दो, लड्डू दो| हनुमान मांग मांग कर खा रहे हैं और माता रीझ कर खिला रही हैं| थाल के थाल सफाचट होते जा रहे हैं| पर हनुमान की तृप्ति नहीं हुई| माता ने जितना पकाया था सब समाप्त, किंतु अभी पेट कहाँ भरा लल्ला का?

माता सीता पुनः भागी रसोई की ओर, पुनः चूल्हा जलाया, पकाना आरम्भ किया, उधर हनुमान पुकार रहे हैं, माता बहुत स्वादिष्ट भोजन है, और दीजिये, अभी पेट नहीं भरा| माता पकाती जा रही हैं, हनुमान खाते जा रहे हैं| भण्डार का सारा अन्न समाप्त| माता पर धर्मसंकट आन पडा है, क्या करें? भागी गयीं श्री राम प्रभु से सहायता की गुहार करने| प्रभु आप ही कुछ कीजिये, और भंडार का प्रबंध कीजिये, ये हनुमान तो सब चट किये जा रहा है|

श्री राम सुन कर हंस दीये, बोले, सीते, तुमने मेरे भक्त को अब तक नहीं पहचाना| उसका पेट इन सबसे नहीं भरने वाला, उसे कुछ और चाहिए| देवी ने पूछा, क्या है वो वस्तु जो मेरे हनुमान लल्ला को तृप्ति देगी? रामजी बोले चलो मेरे संग, मंदिर में ले गए, वहां तुलसी माँ विराजित है| एक पत्ता हाथ में लिया, आँख बंद करके उसमें अपने स्नेह, अपने आशीष, अपनी कृपा का समावेश किया, और देवी को पकड़ा दिया, जायो देवी अपने पुत्र को संतुष्ट करो|

माता भी समझ चुकी अब तो अपने पुत्र की इच्छा को| सौम्य मुस्कान लिए लौटीं रसोई की और, बोलीं, पुत्र हाथ बढायो और वो ग्रहण करो जिसकी इच्छा मन में लिए तुम मेरा पूरा भण्डार निपटा गए| हनुमान जी ने हाथ बढाया और अभिमंत्रित तुलसीदल ग्रहण किया| मुंह में रखते ही चित्त प्रसन्न, और आत्मा तृप्त| आसन से उठ खड़े हुए, बोले माँ, आनंद आ गया| आपने पहले ही दे दिया होता तो इतना परिश्रम न करना पड़ता आपको|

माता हंस पडी, बोलीं, पुत्र तुम्हारी महिमा केवल तुम्हारे प्रभु जानते हैं| वो भगवान् और तुम उनके भक्त, मैं माता तो बीच में यूं ही आ गयी| हनुमान ने चरणों में प्रणाम किया, बोले, माँ आप बीच में हो तो ही प्रसाद मिला है आज मुझे, आपके श्री कर से| माता के नयनों में आनंद के अश्रु चमक आये, और मुख से अपार आशीष अपने हनुमान लल्ला के लिए|

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