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भगवतकथा

आत्मदेव को समझाते हुए गोकर्णजी कहते है कि हे पिता जी !

देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिँ त्यज त्वं , जायासुतादिषु सदा मततां विमुञ्च ।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं , वैराग्यरागरसिकोभव भक्तिनिष्ठः ।।

यह हडडी माँस का बना हुआ शरीर है । यह मै हूँ ऐसा अभिमान छोड़ दो । पत्नी पुत्रादि मेरे है यह ममता भी छोड़ दो । जगत् क्षण भंगुर है यह मिट जायेगा । यदि राग किये बिना रहा नहीँ जाता , क्योँकि राग रस की वृत्ति है , किसी से मुहब्बत करके उसका मजा लेना है । तब उसका भी उपाय है कि "वैराग्यरागरसिको भव " अर्थात् अपना प्रियतम वैराग्य को बनाओ । वैराग्य को माशूक बनाकर उसके आशिक बन जाओ । माशूक का अर्थ है महासुख , और आशिक का अर्थ है आसक्त । महासुख ही माशूक और आसक्त ही आशिक हो गया है । इसलिए यदि किसी का आशिक बनना है तो वैराग्य के आशिक बनो और यदि किसी के प्रति निष्ठा बनानी है तो "भक्तिनिष्ठः " अर्थात् भक्ति के प्रति निष्ठा बनाऔ ।।
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् , सेवस्व साधु पुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा , सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम् ।।
लोक धर्म अर्थात् सांसारिक सम्बन्धो का त्याग करके सच्चे धर्म का सेवन करो । सेवस्व साधु पुरुषम् अर्थात् साधु पुरुषो सन्त पुरुषो की सेवा करो । जहि कामतृष्णाम अर्थात् कामतृष्णा का परित्याग करो । दूसरे के दोष और गुण का चिन्तन मे रखा है ? इनको छोड़ दो क्योकि गुणो का चिन्तन करने से राग होगा , और दोषो का चिन्तन करने से द्वेष उत्पन्न होगा । जिसके हृदय मेँ राग द्वेष आकर बस जाता है , उसके हृदय मेँ दुश्मन एवं दोस्त आकर बस जाते है ., तब उसके हृदय मेँ ईश्वर का दर्शन नही होता । इसलिए सेवाकथारसमहो नितरां पिव अर्थात् भगवतसेवा के , भगवतकथा के रस का बार बार पान करो ।।
जय श्री कृष्ण ,.....

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