बृहस्पति द्वारा ममतामें गर्भाधानका रहस्य

 पुराणादि सच्छास्त्रों में कई ऐसे अद्भुत  कथानक आते हैं कि सीधा सीधा अक्षरार्थ लेने पर बहुत ही विपरीत व हास्यप्रद होता है।किंतु  इन आर्ष ग्रंथों की शैली व भाषा विलक्षण है। कहीं आध्यात्मिक , तो कहीं आधिभौतिक ,कहीं आधिदैविक व कहीं तीनों या कोई दो प्रकार के अर्थ गुम्फित रहते हैं। अतः इनका ज्ञान आचार्य परंपरा द्वारा अविच्छिन्न परंपरा प्रणाली से ही संभव होता है। कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो,स्वतः इनके मर्मको यथावत् नही समझ सकता। केवल ""राजा हुए रानी हुई पांच दस पुत्र हुए, उसने उसको मारा""इत्यादि बातें ही स्वतः पढ़ी जा सकतीं हैं, उसके निहित भाव नहीं।
      ऐसी ही एक घटना का वर्णन  भागवत जी में किया गया है। जो आपाततः बड़ी ही वीभत्स लगती है----
      अन्तर्वर्त्न्यां  भातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पति:।
      प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत्।(भाग.९-२०-३६)।अर्थ--गर्भवती भाई की पत्नी के साथ बृहस्पति  मैथुन के लिए प्रवृत्त हुए।गर्भस्थ शिशु के द्वारा  निवारण करने पर उसे अंधा होजाने का शाप देकर बाहर ही वीर्य छोंड़ दिया।इत्यादि।
 पूरे श्लोकको  न लिखकर केवल कथानक लिखते हैं---अपने पति द्वारा त्यागे जाने की आशंका से , बाहर छोंडे गए वीर्य से उत्पन्न बालक को छोंड़ना चाहा तब देवताओं ने यह श्लोक पढा--
      मूढ़े भर द्वाजमिमम् भर द्वाजं बृहस्पते!(भाग.९-२०-३८)
हे मूर्खे! दो से उत्पन्न होने वाले इस बालक का भरण पोषण कर।
हे बृहस्पते! आप भी इस द्वाज(दो से उत्पन्न) बालक का भरण पोषण करें। इस प्रकार वे दोनों ही एक दूसरे को कहते हुए वहां से  बालक को छोंड़कर चले गए--इस लिए इस बालक का नाम #भारद्वाज ऐसा प्रशिद्ध हुआ।
      देवताओं के कहने पर भी #ममताने इस बालक को वितथ (व्यर्थ) अनावश्यक व्यभिचारज मानकर छोंड़ दिया।तब इस अनाथ को #मरुत् देवताओं ने प्राप्त करके #भरतवंशमें दे दिया।इतना ही कथानक है।।
      #अब_इसका_यथार्थ_रहस्य_देखने के लिए प्रथम कुछ वैदिक भावों को - देखते हैं--
१- यदस्य वाचो बृहत्यै पतिस्तस्मात् बृहस्पति:(जैमिनि उप.२-२५)
     इस वाणी के श्रेष्ठ पति #बृहस्पति हैं।
२-बृहस्पतिरिव बुद्ध्या (मंत्र.ब्राह्मण-२-४-१४)---बृहस्पति की तरह
     बुद्धि से(युक्त होता है)।।
३--द्वितीयां जायामश्नुते (तैत्तिरीय.१-३-१०-३)--दूसरी स्त्री को
     प्राप्त करता है।
४- तामन्तर्हितां रेतः सिग्भ्यामुपदधाति(शत.ब्रा.-७-४२-२४)--उस
     अन्तर्हिता(गर्भिणीममता को ) वीर्य सेंचन के लिए
     उपधान(निकट प्राप्त)करता है।
५--भारद्वाजं वै बृहत् (ऐतरेय.--८-३)--बृहत् ही #भारद्वाज है।
६--यद्वै रेतसो योनिमतिरिच्यतेमुया तद् भवति(शत.ब्रा. 
     ६-३-३-२६)--जो वीर्य योनि से अतरिक्त बाहर पड़ा वह उस
      (सगर्भा ममता)के कारण होता है।
७--दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगे(ऋग्वेद -अ.२--अनु.३-
     मं.१)---दशम युग सृष्टि के आरंभ से दो चतुर्युगी व्यतीत हो कर
     आगे आने वाले त्रेता में #ममताका_पुत्र_दीर्घतमा नामक ऋषि
      मंत्रद्रष्टा हुआ।।
       अब इन वैदिक वचनों को ध्यान पूर्वक समझने पर यह स्पष्ट  होजाता है कि भागवत जी में कही हुई बातें अक्षरशः #वेदप्रतिपादित ही हैं।जिसे वेद वचनों की  आध्यात्मिक अर्थ द्वारा संगति लगाई जाती है उसी प्रकार---
       
        #अब_इस_कथानकका_यथार्थ_भाव_लिखते_हैं। :---

वाणी ही #बृहती कही जाती है--वाग्वै बृहती(शत.१४-४-१-२२)।
#पति पालन करने वाले रक्षक को कहाजाता है--पतिः पालयिता (निरुक्तम् --१०-२१)।
इस कथानकमें--पुरुष का #मन ही #बृहस्पति है।क्योंकि--यन्मनसानुमनुते तद्वाचा वदति " इस श्रुति के अनुसार मनमें उठने वाले भाव को ही वाणी द्वारा बोला जाता है। अतः #मन ही वाणीका पति #बृहस्पति है।बृहत्या:पतिः बृहस्पतिः।।
     इस बृहस्पति मन का ज्येष्ठ भ्राता  #जीवात्मा ही  #उतथ्य है।
#तथ्य का अर्थ "#सत्य" है।#उ" वितर्कका द्योतक है।(निपात द्योतक ही होते हैं)।इस प्रकार #उतथ्य का अर्थ है--जिसकी सत्यता में वितर्क(विवाद)हो।। यह जीव जीव रूपमें सत्य है या नहीं,?यही ब्रह्मको जानकर ब्रह्म होजाता है या नहीं,? यही कर्ता भोक्ता  आदि है या नहीं?इत्यादि प्रकार के विवाद  जीव के विषय में हमेशा से चलते आये हैं।द्वैताद्वैत विशिष्टाद्वैत आदि  सारे वाद इसी के ही आधारित हैं।
#ममता का अर्थ  मोह आसक्ति (अविद्या)माया  आदि तो प्रशिद्ध ही है।
    #दीर्घतमागहन अंधकार ही है। यही अज्ञान या मोह भी है।
#वीर्य--का अर्थ  #सामर्थ्य , विवेक है।
#भारद्वाज का अर्थ  #ज्ञान है
इस प्रकार  कथानंक का अर्थ होगा---
       जीवात्मा रूप #उतथ्य की पत्नी #ममता  (ममत्वसे भरी हुई वृत्ति अविद्या)के गर्भमें  मोहरूपी #दीर्घतमा  थे।
       मन रूपी #बृहस्पति ने इस मोहरूपा वृत्ति #ममता में अपने सामर्थ्य  #वीर्य का  संचार करना चाहा।किन्तु  ममता के गर्भ में  मोह घुसा बैठा है  अतः वह मानसी सामर्थ्य (विवेक)का प्रवेश सर्वथा असंभव है। "अधः तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते"(अविद्या से ग्रस्त लोग घोर अंधकार को प्राप्त होते हैं) इस प्रकार वेद में यही भाव स्पष्ट हुआ है।
         बहुत प्रयत्न करने पर भी ममता के गर्भ में पल रहा मोह मानसिक बल (विवेक )का प्रवेश नहीं होने देता है। यदि वह मन रूप बृहस्पति जैसे तैसे भी ममता #वृत्ति के निकट  डाल देता है तो , उससे  #आत्मज्ञान रूप #भारद्वाज उत्पन्न होता है।।क्योंकि आत्मज्ञान  मन और वृत्ति दोनों के संघर्ष  से ही उत्पन्न होता है, इसी लिए  वह #भारद्वाज कहा जाता है।
      उत्पन्न हुए आत्मज्ञान का  #भरण_पोषण  यम नियमादि  मरुत् देवता ही करते हैं।यही  देवताओंद्वारा #भारद्वाज का भरण पोषण  रक्षण है।,
     इस प्रकार इस कथानक में  मन वाणी ममता वृत्तियों के संघर्षण द्वारा #ज्ञानोत्पति व यम नियमादि द्वारा उसके रक्षण की सुंदर प्रक्रिया कही गई है।श्रीराम !

नास्ति  कापि  अनुचित्ति: मनागपि।।

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